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23 जुलाई 2011
पावस दोहे
गरमी सूँ कुम्हलाय तन, चली पवन पुरवाई।
मुस्काये जन-जन के मन, पावस संदेसा लाई।।1।।
आवत देख पयोद नभ, पुलकित कोयल मोर।
नर नारी खेतन चले, लिए संग हल ढोर।।2।।
बिजरी चमकै दूर सूँ, घन गरजैं सर आय।
सौंधी पवन सुगन्ध सूँ, मन हरसै ललचाय।।3।।
कारे-कारे घन चले, सागर सूँ जल लेय।
कितने घन संग्रह करैं, कितने लेवें श्रेय।।4।।
कितने घन सूखे रहे, कुछ बरसे कुछ रोय।
जो बरसे का काम के, खेत सकें न बोय।।5।।
पावस की बलिहारि है, पोखर सर हरसाय।
बरखा शीतल पवन संग, हर तरवर लहराय।।6।।
क्यूँ दादुर तू स्वारथी, पावस में टर्राय।
गरमी सरदी का करै, तब क्यूँ ना बर्राय।।7।।
बरखा भी तब काम की, जब ना बाढ़ विनास।
जाते तौ सूखौ भलौ, बनी रहे कछु आस।।8।।
बरसा ऐसी हो प्रभू, भर दे ताल तलाई।
खेतन कूँ पानी मिले, देवें राम दुहाई।।9।।
पावस जल संग्रह करौ, 'आकुल' कहवै भैया।
धरती सोना उगले और देस हो सौन चिरैया।।10।।
21 जुलाई 2011
काक
दोहे
कोयल कौ घर फोड़ कै, घर घर कागा रोय।
घड़ियल आँसू देख कै, कोउ न वाको होय।।1।।
बड़-बड़ बानी बोल कै, कागा मान घटाय।
कोऊ वाकौ यार है, ‘आकुल’ कोई बताय।।2।।
चिरजीवी की काकचेष्टा, जग ने करी बखान।
पिक बैरी, आहत सीता, खोयो सब सम्मान।।3।।
पिक के घर में सेव कै, कागा पिक ना होय।
लाख मलाई चाट कै, काला सित ना होय।।4।।
मेहनत कर कै घर करे, पिक से यारी होय।
कागा सौ ना जीव है, ऐयारी में कोय।।5।।
गो,बामन बिन कनागत, दशाह घाट बिन काक।
सद्गति बिन उत्तर करम, जीवन का बिन नाक।।6।।
कागा महिमा जान ल्यो्, पण्डित काकभुशण्ड।
इन्द्र पुत्र जयन्त कूँ, एक आँख को दण्ड।।7।।
आमिष भोजी कागला, कोई ना प्रीत बढ़ाय।
औघड़ सौ बन-बन घूमै, यूँ ही जीवन जाय।।8।।
कोयल-बुलबुल ना लड़ें, दोनों मीठौ गायँ।
प्रीत बढ़ावै दोस्तीं, कागा समझै नायँ।।9।।
‘आकुल’ या संसार में, तू कागा से सीख।
ना काहू से दोस्ती, ना काहू से भीख।।10।।
कोयल कौ घर फोड़ कै, घर घर कागा रोय।
घड़ियल आँसू देख कै, कोउ न वाको होय।।1।।
बड़-बड़ बानी बोल कै, कागा मान घटाय।
कोऊ वाकौ यार है, ‘आकुल’ कोई बताय।।2।।
चिरजीवी की काकचेष्टा, जग ने करी बखान।
पिक बैरी, आहत सीता, खोयो सब सम्मान।।3।।
पिक के घर में सेव कै, कागा पिक ना होय।
लाख मलाई चाट कै, काला सित ना होय।।4।।
मेहनत कर कै घर करे, पिक से यारी होय।
कागा सौ ना जीव है, ऐयारी में कोय।।5।।
गो,बामन बिन कनागत, दशाह घाट बिन काक।
सद्गति बिन उत्तर करम, जीवन का बिन नाक।।6।।
कागा महिमा जान ल्यो्, पण्डित काकभुशण्ड।
इन्द्र पुत्र जयन्त कूँ, एक आँख को दण्ड।।7।।
आमिष भोजी कागला, कोई ना प्रीत बढ़ाय।
औघड़ सौ बन-बन घूमै, यूँ ही जीवन जाय।।8।।
कोयल-बुलबुल ना लड़ें, दोनों मीठौ गायँ।
प्रीत बढ़ावै दोस्तीं, कागा समझै नायँ।।9।।
‘आकुल’ या संसार में, तू कागा से सीख।
ना काहू से दोस्ती, ना काहू से भीख।।10।।
20 जुलाई 2011
'काव्य केसरी' मानद सम्मानोपाधि के लिए जनकवि रघुनाथ मिश्र और 'आकुल' का चयन
भारतीय साहित्य संगम उदयपुर (राजस्थान) द्वारा वर्ष 2011 के द्वितीय फेज़ में आमंत्रित की गयी रचनाओं में हाल ही में संस्थान द्वारा कोटा के जनकवि और वरिष्ठ साहित्यकार श्री रघुनाथ मिश्र की पुस्तक 'सोच ले तू किधर जा रहा है' और जनकवि गोपाल कृष्ण्ा भट्ट 'आकुल' की पुस्तक 'जीवन की गूँज' को चयन किया गया है। सचिव कुलदीप प्रियदर्शी ने अपने पत्र द्वारा सूचित किया है कि दोनों को विद्वद् निर्णायकों ने सम्मानार्थ योग्य पाया है और इन्हें 'काव्य केसरी' मानद सम्मानोपाधि के लिए चयन किया है। औपचारिकताओं के पश्चात् आगे के कार्यक्रम के लिए शीघ्र ही सूचित किया जायेगा। इस सम्मानोपाधि के लिए चयन किये जाने पर जलेस सदस्यों व शहर के अनेकों साहित्यकारों में हर्ष की लहर दौड़ गयी। रोज़ अनेकों दूरभाष और मोबाइल पर शुभकामनायें मिल रही हैं। श्री भट्ट और मिश्र ने एक दूसरे को बधाई दी। हाल ही में श्री आकुल पं0 बृज बहादुर पाण्डेय स्मृति सम्मान ले कर बहराइच से लौटे थे और श्री मिश्र को पिछले दिनों परियावाँ, प्रतापगढ़ से (उ0प्र0) साहित्यिक-सांस्कृतिक-कला संगम अकादमी द्वारा हिन्दी गरिमा 2011 मानद सम्मानोपाधि से सम्मानित किया गया था।
15 जुलाई 2011
गुरुवे नम:
अक्षर ज्ञान दिवाय कै, उँगली पकड़ चलाय।
पार लगावै गुरु ही या, केवट पार लगाय।।1।।
बिन गुरुत्व धरती नहीं, धुर बिन चलै ना चाक।
गुरुजल बिन संयंत्र परम, गुरु बिन से ना धाक।।2।।
सर्वोपरि स्थान है, गुरु को यह इतिहास।
देव अदैव चराचर प्राणी, करें सभी अरदास।।3।।
'आकुल' जग में गुरु से, धर्म-ज्ञान-प्रताप।
आश्रय जो गुरु को रहै, दूर रहै संताप।।4।।
गुरु कौ सर पै हाथ जो, भवसागर तर जाय।
श्रद्धा, निष्ठा , प्रेम, यश, लक्ष्मी-सुरसती आय।।5।।
गुरु को तोल कराय जो, वो मूरख कहवाय।
तोल मोल के फेर में, यूँ ही जीवन जाय।।6।।
ज्ञान गुरु, दीक्षा गुरु, धर्म गुरु बेजोड़।
चले संस्कृति इन्हीं सूँ, इनकौ न कोई तोड़।।7।।
मात-पिता-गुरु-राष्ट्र ऋण, कोई न सक्यो उतार।
जब भी, जैसे भी मिलें, इन कूँ कभी न तार।।8।।
गुरु बिन समरथ जानिये, दो दिन भलै न खास।
'आकुल’ पड़ै अकाल, अकेलो पड़ै, खोय विस्वास।।9।।
'आकुल’ वो बड़भाग है, ऐसौ कहें, बतायँ।
गुरु और मात-पिता जब जायँ, वाके कंधे जायँ।।10।।
गुरु पूर्णिमा पर 'दोहे'
पार लगावै गुरु ही या, केवट पार लगाय।।1।।
बिन गुरुत्व धरती नहीं, धुर बिन चलै ना चाक।
गुरुजल बिन संयंत्र परम, गुरु बिन से ना धाक।।2।।
सर्वोपरि स्थान है, गुरु को यह इतिहास।
देव अदैव चराचर प्राणी, करें सभी अरदास।।3।।
'आकुल' जग में गुरु से, धर्म-ज्ञान-प्रताप।
आश्रय जो गुरु को रहै, दूर रहै संताप।।4।।
गुरु कौ सर पै हाथ जो, भवसागर तर जाय।
श्रद्धा, निष्ठा , प्रेम, यश, लक्ष्मी-सुरसती आय।।5।।
गुरु को तोल कराय जो, वो मूरख कहवाय।
तोल मोल के फेर में, यूँ ही जीवन जाय।।6।।
ज्ञान गुरु, दीक्षा गुरु, धर्म गुरु बेजोड़।
चले संस्कृति इन्हीं सूँ, इनकौ न कोई तोड़।।7।।
मात-पिता-गुरु-राष्ट्र ऋण, कोई न सक्यो उतार।
जब भी, जैसे भी मिलें, इन कूँ कभी न तार।।8।।
गुरु बिन समरथ जानिये, दो दिन भलै न खास।
'आकुल’ पड़ै अकाल, अकेलो पड़ै, खोय विस्वास।।9।।
'आकुल’ वो बड़भाग है, ऐसौ कहें, बतायँ।
गुरु और मात-पिता जब जायँ, वाके कंधे जायँ।।10।।
गुरु पूर्णिमा पर 'दोहे'
5 जुलाई 2011
वसुधैवकुटुम्बकम्
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