15 जुलाई 2011

गुरुवे नम:

अक्षर ज्ञान दि‍वाय कै, उँगली पकड़ चलाय।
पार लगावै गुरु ही या, केवट पार लगाय।।1।।

बि‍न गुरुत्व धरती नहीं, धुर बि‍न चलै ना चाक।
गुरुजल बि‍न संयंत्र परम, गुरु बि‍न से ना धाक।।2।।

सर्वोपरि‍ स्थान है, गुरु को यह इति‍हास।
देव अदैव चराचर प्राणी, करें सभी अरदास।।3।।

'आकुल' जग में गुरु से, धर्म-ज्ञान-प्रताप।
आश्रय जो गुरु को रहै, दूर रहै संताप।।4।।

गुरु कौ सर पै हाथ जो, भवसागर तर जाय।
श्रद्धा, नि‍ष्ठा , प्रेम, यश, लक्ष्मी-सुरसती आय।।5।।

गुरु को तोल कराय जो, वो मूरख कहवाय।
तोल मोल के फेर में, यूँ ही जीवन जाय।।6।।

ज्ञान गुरु, दीक्षा गुरु, धर्म गुरु बेजोड़।
चले संस्कृति‍ इन्हीं सूँ, इनकौ न कोई तोड़।।7।।

मात-पि‍ता-गुरु-राष्ट्र ऋण, कोई न सक्यो उतार।
जब भी, जैसे भी मि‍लें, इन कूँ कभी न तार।।8।।

गुरु बि‍न समरथ जानि‍ये, दो दि‍न भलै न खास।
'आकुल’ पड़ै अकाल, अकेलो पड़ै, खोय वि‍स्वास।।9।।

'आकुल’ वो बड़भाग है, ऐसौ कहें, बतायँ।
गुरु और मात-पि‍ता जब जायँ, वाके कंधे जायँ।।10।।

गुरु पूर्णि‍मा पर 'दोहे'

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