26 अक्तूबर 2011

अनगि‍न दीप जले

आया है फि‍र जीत दि‍लों को
वि‍जयी जश्न मनाने
अनगि‍न दीप जले।।

भूल द्रोह फि‍र गले मि‍लें अब
कब तक शि‍कवे गि‍ले पलें अब
रहना एक छत्र छाया में
अपना घर फि‍र अपना घर है
एक हवा है एक फज़ा हैं
एक दवा है एक सज़ा है
रहना है जब साथ साथ
अपना वतन फि‍र अपना वतन है
आया है फि‍र तंग दि‍लों को
नि‍स्पृह गले लगाने
अनगि‍न दीप जले।।

फि‍र बस जायेंगे रीते दि‍न
फि‍र बस जायेंगे उनके बि‍न
कौन अमर है यही नि‍यति‍ थी
अपनापन फि‍र अपनापन है
ति‍मि‍र हटा के प्रकृति‍ सजी है
महाकाल की अवंति‍ सजी है
मानव मन फि‍र मानव मन है
आया है फि‍र श्रांत दि‍लों को
जीवन गीत सुनाने
अनगि‍न दीप जले।।

कल जो हुआ न अब होना है
जो खोया न अब खोना है
पीछे तो है भूत भयावह
अपना पतन फि‍र अपना पतन है
उत्सव तो मन भेद भुलायें
दूर हुओं को पास बुलायें
परि‍वर्तन फि‍र परि‍वर्तन है
आया है फि‍र सुप्त दि‍लों को
इक नवगीत सुनाने
अनगि‍न दीप जले।।

24 अक्तूबर 2011

शुभ दि‍वाली

दीपाली की शुकानाएँ

प्रकाश पर्व

धरती पर उतर आया जैसे
सि‍तारों का कारवाँ
आकाश में जाते पटाखों से
टूटते तारों का उल्कापात सा आभास
फूटता अमि‍त प्रकाश
टि‍मटि‍माते दीपों से लगती
झि‍लमि‍ल सि‍तारों की दीप्ति
दूर तक दीपावलि‍यों से नहाई हुई
उज्‍ज्वल वीथि‍याँ
लगती आकाशगंगा सी पगडंडि‍याँ
एक अनोखा पर्व
जि‍सने पैदा कर दि‍या
पृथ्वी पर एक नया ब्रह्माण्ड
सूर्य, चन्द्र और आकाश दि‍ग्भ्रिमि‍त
सैंकड़ों प्रकाशवर्ष दूर
यह कैसा अनोखा प्रकाश !!!!
धरती पर उतर आया आकाश
सि‍तारों को कैसे चुरा लि‍या
पृथ्वी ने मेरे आँगन से !!!
चाँद ने भी सुना कि‍
चुरा लि‍या है चाँदनी को !!!
और अप्रति‍म सौंदर्य का प्रति‍मान
बनी है धरा उसकी चाँदनी को ओढ़े !!!!
पीछे पीछे दौड़ा आया सूर्य
कि‍सने कि‍या दर्प उसका चूर !!!!
रात में फैला यह अभूतपूर्व उजास
नहीं हो सकता यह चाँद का प्रयास !!!
अहा ! चाँद का प्रति‍रूप
धरती का यह अनोखा रूप
ओह ! पर्वों का लोक पृथ्वी है यह !!!
जहाँ हर ऋतु में नृत्य करती धरा
कभी वासंती, कभी हरीति‍मा
कभी श्वेत वसना वसुंधरा
अथक यात्रा में संलग्न धरा,
तुम धन्य हो !!
अमर रहे !!
मेरे प्रकाश से भी कहीं ऊर्जस्वी
तुम्हा्रा यह पर्व,
मैं अनंत काल तक
प्रकाश दूँगा तुम्हें.....
चाँद बोला- मैं भी अनंत काल तक
शीतलता बि‍खेरूँगा......
धरा है, तो है हमारा महत्व
हलाहल से भरे रत्ननि‍धि‍ की गोद में
नीलवर्ण स्वरूप और
प्रकृति‍ से इतना अपनत्व !!!
आतप से तप कर
स्वर्णि‍म बना तुम्हा‍रा अस्ति‍त्व
शीतलता से बनी तुम धैर्य की प्रति‍मूर्ति‍!!
दोनों ने एक स्वर में कहा-
हे ! धरा
प्रकृति‍ के अप्रति‍म स्वरूप को
अक्षुण्ण रखने के लि‍ए
करता है यह आकाश गर्व
स्वात्वाधि‍कार है तुम्हें मनाने का
यह प्रकाश पर्व !!!!

22 अक्तूबर 2011

नवगीत की पाठशाला: २५. उत्सव गीत

नवगीत की पाठशाला: २५. उत्सव गीत: कल था मौसम बौछारों का आज तीज और त्योहारों का रंग रोगन वंदनवारों का घर घर जा कर बंजारा नि‍त इक नवगीत सुनाए। कल बि‍जुरी ने पावस गीत दीप...

13 अक्तूबर 2011

सान्‍नि‍ध्‍य सेतु: शब्‍द दो तुम मैं लि‍खूँगा

सान्‍नि‍ध्‍य सेतु: शब्‍द दो तुम मैं लि‍खूँगा: आज आक्रोश दि‍न पर दि‍न बढ़ रहा है। बात काश्‍मीर की हो या भ्रष्‍टाचार की,जन समस्‍याओं की हो या महँगाई की,राजनीति‍ की हो या साहि‍त्‍य की,आम आद...

वि‍श्‍व दृष्‍टि‍ दि‍वस

बचें दृष्टि से दृष्टि‍‍दोष संकट फैला है चहुँ दि‍श।
नि‍कट, दूर या सूक्ष्म दृष्टि‍ सिंहावलोकन हो चहुँ दिश।।

दृष्टि‍ लगे या दृष्टि पड़े जब डि‍ढ्या बने वि‍षैली।
तड़ि‍त सदृश झकझोरे तन मन दृष्टि बने पहेली।।

गि‍द्ध दृष्‍टि‍ से आहत जन-जन वक्र दृष्टि से जनपथ।
जनप्रति‍नि‍धि‍ सत्ताधीशों के कर्म अनीति‍ से लथपथ।।

रखें दृष्टि‍गत, जनजाग्रति, जननि‍नाद,जनक्रांति‍।
है वि‍कल्प बस दृष्टि रखें ना फैलायें दि‍ग्भ्रांति‍।।

सर्वप्रथम संक्रामक जन जीवन के हटें प्रदूषण।
हरि‍त क्रांति‍,हर प्राणी रक्षि‍त करें ना और परीक्षण।।

सर्वहि‍ताय जन सुखाय सर्वतोभद्र दृष्टि‍ हो एक।
बि‍न दृष्टि बन जायेंगे धृतराष्ट्र अनेकानेक।।

वि‍श्व दृष्टि‍ दि‍न है संकल्प करें लि‍ख दें इक लेख।
पहुँचे दृष्टि क्षि‍ति‍ज तक खींचें सुख समृद्धि‍ की रेख।।

7 अक्तूबर 2011

कितने रावण मारे अब तक

कितने रावण मारे अब तक
कितने कल संहारे
मन के भीतर बैठे रावण को
क्या मार सका रे
तेरी काया षड् रिपु में
उलझी पड़ी हुई है
इसीलिए यह वसुंधरा
रावणों से भरी हुई है
नगर शहर और गली मोहल्ले
रावण भरे पड़े हैं
है आतंक इन्हीं का चहुँ दिस
कारण धरे पड़े हैं
कद बढ़ता ही जाता है
हर वर्ष रावणों का बस
राम और वानर सेना की
लम्बाई अंगुल दस
बढ़ते शीष रावणों के
जनतंत्र त्रस्‍त वि‍चलि‍त है
भावि‍ अनि‍ष्‍ट, वि‍नाश देख
बल, बुद्धि‍, युक्‍ति‍ कुंठि‍त है
वो रावण था एक दशानन
हरसू यहाँ दशानन
नहीं दृष्टि में आते
राम विभीषण ना नारायण
क्या अवतार चमत्कारों की
करते रहें प्रतीक्षा
देती हैं रोजाना अब
हर नारी अग्नि परीक्षा
कन्या भ्रूण हत्या प्रताडना
नारी अत्याचार
रणचंडी हुंकारेगी
अब लगते हैं आसार
धरे हाथ पर हाथ बैठ
नर पुंगव भीष्म बने हैं
कहाँ युधिष्ठिर धर्मराज अब
पत्थर भीम बने हैं
होते शक्तिहीन नर
भूला बैठा है वानर बल
कब गूँजेगा जन निनाद
कब उमड़ेगा जनता दल
होंगे नर संहार प्रकृति‍
सर्जेगी प्रलय प्रभंजन
या नारी की कोख जनेगी
नरसिंह अलख निरंजन
ऐसा ना हो षड् रिपु से नर
निर्बल हो डर जाये
फिर कल का इतिहास
कहीं नारी के नाम न जाये

1 अक्तूबर 2011

दशहरा

सुनहुँ राम वानर सेना संग सीमा में घुस आये।
घोर नि‍नाद देख चहुँदि‍स सेना नायक घबराये।।
कुंभकरण संग मेघनाद समरांगण स्‍वर्ग सि‍धारे।
बलशाली सेनानायक बलहीन हुए तब सारे।
रावण तक पहुँचा संदेसा मंदोदरी सकुचाई।
बोली हे लंकेश संधि‍ में ही है बुद्धि‍मताई।।
लंका तो अब धूधू जल कर राख बनी है दशानन।
घर भेदी जब साथ राम के कौन बचै घर आँगन।।
इकलखपूत सवालख नाती खो रावण मुरझाया।
अब ना रण में और हानि प्रि‍य मैं या राम लुभाया।।
घर भेदी लंका ढायी खोये सुत भ्रात सुजान।
नारी फि‍र इति‍हास बनी रामायण एक प्रमान।।