प्रेम, प्यार और प्रीत अढाई।
वक्त, भक्त, प्रभु, मित्र अढाई।
धर्म, कर्म, विद्या, भी ढाई।
जगत्पाल विष्णु भी ढाई।
ढाई कोस चले नित काया।
स्वस्थ निरोग रहे यह काया।
भगे मोह, मत्सर और माया।
स्वस्थ बदन में सुख सरमाया।
जागो जब तब सुखद सवेरा।
खोये समय न छँटे अँधेरा।
प्रेम, प्यार और प्रीत घनेरा।
उस घर में है स्वर्ग बसेरा।
आओ 'आकुल' प्रीत बढ़ायें।
दिन दूने हम मित्र बनायें।
ढाई अक्षर प्रेम सिखायें।
दुनिया की यह रीत सिखायें।
लेबल
- गीतिका (126)
- छंद (122)
- गीत (27)
- छ्रंद (10)
- मुक्तक (10)
- कविता (6)
- सम्मान (5)
- गतिका (3)
- पर्व (3)
- आलेख (2)
- तैलंगकुलम् (2)
- नवगीत (2)
- पुस्तकें (2)
- समीक्षा (2)
- हिन्दी (2)
- काव्य निर्झरणी (1)
- कुंडलिया छंद (1)
- गीतिकर (1)
- दोहा (1)
- बालगीत (1)
- राष्ट्रभाषा (1)
- श्रद्धांजलि (1)
- संस्मरण (1)
- समाचार (1)
- हिन्दुस्तान (1)
14 फ़रवरी 2012
5 फ़रवरी 2012
दूल्हा राग बसंत
सभी राग बाराती हैं बस, दूल्हा राग बसंत।
लोक गीत देहाती हैं सब, आल्हा राग बसंत।।
हरसायेगी पवन बसंती सरदी का अब अंत।
सूरज ने भी बदला है पथ साक्ष्य मकर सकरंत।
कहीं पतंगें उड़ें कहीं पर सरसों बीच पतंग।
रंग बिरंगे कपड़े पहनें सब करके अभ्यंग।
होली के रंगों में गायेंगे अब फाग बसंत।।
गजक, रेवड़ी, तिल-पपड़ी अब देंगी नहीं दिखाई।
नहीं दिखेंगे कल परसौं से स्वेटर, कोट, रजाई।
कल खेली थी सूरज से हमने आँख मिचौली।
अब छाया की बाथ भरेंगे धूप लगेगी गोली।
वन-उपवन-कानन फैलेगी सुरभित प्रीत अनंत।।
धर्म और संस्कृति का अपना इक दर्शन है न्यारा।
उत्सव,पर्व,त्योहार मिलन का दिग्दर्शन है प्यारा।
प्रीत सिखाता यही देश है रीत सिखाती धरती।
गंगा जमुना की झारी माँ की आँखों से झरती।
सार्थक तभी बसन्त द्वेष कटुता का हो बस अंत।।
(पुष्टिमार्गीय सम्प्रदाय में हवेली संगीत के अंतर्गत कीर्तनों का बहुत महत्व है। इनके मंदिरों में अष्टछाप पद्धति से दर्शन और ऋतु के भाव से कीर्तन किये जाते हैं। कुम्भनदास, छीतस्वामी, सूरदास, कृष्णदास समेत आठ कृष्ण्भक्त अष्टछाप कवियों के रचित कीर्तनों को शास्त्रीय रागों में रच कर मंदिरों में मंगला,शृंगार,ग्वाल,राजभोग,उत्थापन,भोग,संध्या,शयन आठों सेवाओं के कीर्तन गाये जाते हैं। इसी पद्धति में से प्रख्यात एक कवि कृष्ण भक्त श्री कृष्णदास जी का एक पद है ‘और राग सब भये बराती,दूल्हे राग वसंत’ वसंत ऋतु में मंदिरों में राग वसंत में गाया जाता है। इस पद की प्रथम पंक्ति को लेकर इस नवगीत की रचना की है।)
लोक गीत देहाती हैं सब, आल्हा राग बसंत।।
हरसायेगी पवन बसंती सरदी का अब अंत।
सूरज ने भी बदला है पथ साक्ष्य मकर सकरंत।
कहीं पतंगें उड़ें कहीं पर सरसों बीच पतंग।
रंग बिरंगे कपड़े पहनें सब करके अभ्यंग।
होली के रंगों में गायेंगे अब फाग बसंत।।
गजक, रेवड़ी, तिल-पपड़ी अब देंगी नहीं दिखाई।
नहीं दिखेंगे कल परसौं से स्वेटर, कोट, रजाई।
कल खेली थी सूरज से हमने आँख मिचौली।
अब छाया की बाथ भरेंगे धूप लगेगी गोली।
वन-उपवन-कानन फैलेगी सुरभित प्रीत अनंत।।
धर्म और संस्कृति का अपना इक दर्शन है न्यारा।
उत्सव,पर्व,त्योहार मिलन का दिग्दर्शन है प्यारा।
प्रीत सिखाता यही देश है रीत सिखाती धरती।
गंगा जमुना की झारी माँ की आँखों से झरती।
सार्थक तभी बसन्त द्वेष कटुता का हो बस अंत।।
(पुष्टिमार्गीय सम्प्रदाय में हवेली संगीत के अंतर्गत कीर्तनों का बहुत महत्व है। इनके मंदिरों में अष्टछाप पद्धति से दर्शन और ऋतु के भाव से कीर्तन किये जाते हैं। कुम्भनदास, छीतस्वामी, सूरदास, कृष्णदास समेत आठ कृष्ण्भक्त अष्टछाप कवियों के रचित कीर्तनों को शास्त्रीय रागों में रच कर मंदिरों में मंगला,शृंगार,ग्वाल,राजभोग,उत्थापन,भोग,संध्या,शयन आठों सेवाओं के कीर्तन गाये जाते हैं। इसी पद्धति में से प्रख्यात एक कवि कृष्ण भक्त श्री कृष्णदास जी का एक पद है ‘और राग सब भये बराती,दूल्हे राग वसंत’ वसंत ऋतु में मंदिरों में राग वसंत में गाया जाता है। इस पद की प्रथम पंक्ति को लेकर इस नवगीत की रचना की है।)
सदस्यता लें
संदेश (Atom)