23 मार्च 2012

ऐ हुतात्माओ

ऐ हुतात्माओ
तुम्‍हें श्रद्धा से नमन् पर...!!!
आज श्रद्धा के साथ साथ
शर्म से भी झुके हैं सि‍र
स्वतंत्रता के स्वप्न जो देखे थे तुमने
वो कल की बात बने हैं
रक्षक ही भक्षक
हमारे प्रति‍नि‍धि‍ ही
नर पि‍शाच बने हैं
आज, कल से कहीं
बदतर हालात हैं देश में
आज अपनों ही से डरे हुए हैं हम
अनेकों समास्याओं से घि‍रे हुए हैं हम
भ्रष्टाचार सि‍र चढ़ कर बोल रहा है
आरक्षण हमारे संवि‍धान के अधि‍कारों का
कर मखैल रहा है
वर्गवाद पनप रहा है
पर्यावरण की अनदेखी से
सारा वि‍श्व झुलस रहा है
उदधि‍ का प्रचण्ड रूप
सीमाओं को गटक रहा है
संस्कारों की धज्जियाँ उड़ रही हैं
राष्‍ट्रभाषा की खि‍ल्ली उड़ रही है
हि‍न्दी अपनी अस्मिता बचाने को
संघर्ष कर रही है
प्रान्तीय भाषायें भी हि‍न्दी से
सौतेला व्य‍वहार कर रही हैं
कि‍सी को नहीं राष्ट्रभाषा की चि‍न्ता
राजभाषा की जगह सभी को
पड़ी है अपनी लोक भाषा की
इनामों इकरामों की बंदरबाट चल रही है
सम्मानों का मखौल उड़ रहा है
हर शाख पे बैठा उल्लू
अपनी 360 डि‍ग्री कोण तक
गर्दन घुमा घुमा कर
लक्ष्मी के करतब देख रहा है
मै बस देख रहा हूँ तो
जाने अनजाने मराहि‍लों पर
फ़ना होते अलग अलग
हुतात्माओं को
जो कारण अकारण
काल का ग्रास बन रहे हैं
उनसे पता नहीं
देश को कोई दि‍शा
मि‍लेगी भी या नहीं
बस देख रहा हूँ
मौन बदलते साल दर साल
क्योंकि‍ मुझे भी
मेरी मंजि‍ल नज़र आ रही है
उम्र दर उम्र की उखड़ती साँसों में
दर्द के सैलाब में
असंतोष के भँवर में
इसीलि‍ए कदाचि‍त् हूँ मैं ‘आकुल’
क्योंकि‍ सब बदलेंगे पर समय नहीं बदलेगा
क्योंकि‍ समय को लेना है सबसे बदला
क्योंकि‍ समय ही भरेगा हर घाव
क्योंकि‍ समय के मौन को
ग़लत समझ बैठा है मानव और
चल पड़ा है दम्भ के
दावानल को पार करने
मेरी तमाम उम्र का फ़लसफ़ा यही है
संतोष धरो दोस्ती करो
रि‍श्तों को नि‍भाने को संतोष चाहि‍ए और
आज संतोष नहीं है कि‍सी के पास
दौड़ ही दौड़ है तो
दामन थामो दोस्ती़ का
क्योंकि‍ दोस्त फ़रि‍श्ते होते हैं
बाक़ी सब रि‍श्ते‍ होते हैं
तभी वसुधैवकुटुम्बकम् का स्वप्न
साकार होगा और
मि‍लेगी चि‍र शांति‍ हुतात्मा‍ओं को !!!
ऐ हुतात्‍माओ
तुम्‍हें श्रद्धा से पुन: नमन् !!!
(आज ही के दि‍न ये तीनों *भगति‍संह, राजगुरू और सुखदेव* अंग्रेजों के दमन के खि‍लाफ़ आवाज़ उठाने पर शहीद हुए थे।)

14 मार्च 2012

शैफ़ाली

नाम है शैफाली
जाने हयात का
आँगन में है दरख्‍त
पारि‍जात का।

फ़स्ले बहाराँ में
वो रूठे रहे
और मौसि‍म में
सदा हँसते रहे
दरख्त भी रूठा रहा
इस मौसि‍म में
वर्ना हर मौसि‍म में
फूल झरते रहे
अफसोस रहा मुझे
बस इस बात का।

रातों में वो चहकती
कचनार सी
बातों में बहकती
आबशार सी
सुबुह थकी थकी
जाने हयात वो
ज्यूँ नि‍सार हो
शम्ए मज़ार सी
अफसोस रहा मुझे
हर इक रात का।

जब से नाम बदला है
आई बहार
नामकरण कर दि‍या है
हरसिंगार
सिंगार सी सजी सँवरी
रहती है अब
फूलों से लदी रहती है
ज्‍यूँ बागो बहार
अफसोस कहाँ मुझे
अब इस बात का।

7 मार्च 2012

रंग-भंग-चंग का त्‍‍योहार है होली

रंग-भंग-चंग का त्योहार है होली।
रँगता गया जो इसमें होली उसकी तो हो ली।।
लेके चंग टोली झूमो नाचो व गाओ।
जि‍ससे मि‍लो रंग लगा के अपना बनाओ।।
मस्ती का सुरूर ठुमके में न आएगा।
जब तलक हलक भंग का अंटा न जाएगा।।
देखना फि‍र रंग-भंग-चंग का नज़ारा।
क़ि‍‍स्मत में नहीं सबके ये होली का पि‍टारा।।
खेलो खि‍लाओ बि‍न्दास होके नाचो नचाओ।
रंग-भंग-चंग संग त्‍योहार मनाओ।।

6 मार्च 2012

आईना

आईने बदलने से सूरत नहीं बदला करती।
यूँही बैठे रहने से कि‍स्मत नहीं बदला करती।
बेशकीमती ताबूत में भी मि‍ट्टी होना है लाश को,
क़ब्र बदलने से मौत की हक़ीक़त नही बदला करती।

नफासत आईने की सदा
हक़ीक़त ही बयाँ करता है सब से।
हक़ीक़त आदमी की झूठ
नफासत से बयाँ करता है रब से।

इक नज़र ही है जो आईने भी तोड़ देती है
इक फ़ज़र ही है जो अंधेरों को ओढ़ लेती है
इतनी ताक़त तो आफ़्ताब में भी नहीं
इक हवा ही है जो समंदर का रुख मोड़ देती है।

5 मार्च 2012

होली पर कुण्‍डलि‍याँ

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होली की मस्ती में हो अबीर गुलाल का रंग।
पानी में घुल कर रंग-रंग हो जाए ना बदरंग।
हो जाए ना बदरंग रंग बेरंग लगे होली।
काले दि‍ल वालों की काली होती है होली।
कह ‘आकुल’ कवि‍राय जाओ घर घर खेलो होली।
खेलो खुल कर केवल सूखे रंगों से होली।।1।।


लाल गुलाबी नीला हरा गुलाल चटक पीला।
कैसा भी हो सूखा हो रँग वह हो ना गीला।
वह हो ना गीला सूखे से खेलो जी भर कर।
खूब लगाओ मुँह गालों पर गलबहि‍याँ भर कर।
कह ‘आकुल’ कवि‍राय न रंग में भंग न कोई धमाल।
होली में कोई क्यों हो गुस्से में पीला लाल।।2।।


रंग चढ़े ऐसा होली का सि‍र चढ़ कर बोले।
दि‍न चढ़ते-चढ़ते चढ़ता है वह हौले-हौले।
वह हौले-हौले से छाने लगता है घर-घर।
देवर-भाभी जीजा-साली यार-दोस्त घर भर।
कह ‘आकुल’ कवि‍राय नृत्य कर गाते मस्त मलंग।
होली में रसि‍या फगवा से चढ़ता कामत रंग।।3।।


हल्‍दी चंदन टेसू केसर रोली का टीका।
रंग चढ़े रंगरेजी जैसा पड़े नहीं फीका।
पड़े नहीं फीका रंगों की भाषा हो ऐसी।
अपनों की क्या बात बात है रीझे परदेसी।
कह ‘आकुल’ कवि‍राय बात जो खरी-खरी कह दी।
घाव बने कैसा भी जोड़े चूना और हल्‍दी।।4।।



संस्कार इस माटी के बस तब मि‍ल पायेंगे।
त्योहारों पर मि‍लना-जुलना जब कर पायेंगे।
जब कर पायेंगे बातें आपस में दु:ख-दर्दों की।
तब समझेंगे परम्परायें परि‍पाटी पुरखों की।
कह ‘आकुल’ कवि‍राय मनाओ सभी पर्व त्योहार।
तभी सहेज कर रख पायेंगे हम अपने संस्कार।।5।।