10 जुलाई 2012

क्रांति का बिगुल ही अब नव चेतना जगाएगा


लोकतंत्र कब तलक यूँ जनता को भरमाएगा।
स्वतंत्रता का जश्न अब न और देखा जाएगा।
जन प्रतिनिधियों के कृत्य देख-देख लगता है,
क्रांति का बिगुल ही अब नव चेतना जगाएगा।


सिंह लंहड़ों में नहीं बढ़ने लगे हैं शृगाल दल।
खोने लगी है निष्ठा अब थकने लगे हैं हारावल।
लगता है पाखण्ड ही पाखण्ड है चारों तरफ़,
बोझिल धरा है पाप से उठने लगे हैं दावानल।
राह झूठ की है स्वर्ग कैसे पहुँचा जाएगा।
क्रांति का बिगुल ही अब नव चेतना जगाएगा।



चरमरा रही हैं आज जन सुविधायें व्यवस्थायें।
कैसा था कल युवापीढ़ी को आज क्या‍ बतायें।
हाथ में न ले लें अस्त्र, शस्त्र की न बोलें ज़ुबाँ,
खूनी दिवाली हो और बारूद की होली जलायें।
ऐसा हुआ तो देश का इतिहास बदल जाएगा।
क्रांति का बिगुल ही अब नव चेतना जगाएगा।


खुली हवा में सांस लेंगे सोचा था आजादी में।
घुटने लगा है दम हरसू बढ़ती आबादी में।
हमने बस आजादी में बस यही तो किया है,
दिन बिताये हैं ऐश में पैसे की बरबादी में।
कशिश में अब जिंदग़ी का दाँव खेला जाएगा।
क्रांति का बिगुल ही अब नव चेतना जगाएगा।

7 जुलाई 2012

कब गरमी की रुत जाय

दिन दिन गर्मी के तेवर से
तन मन जन घबराय।
कब गरमी की रुत जाय।

लाय भरी जब चले पवन
तन मन पिघला जाये।
जेठ दुपहरी तपे अगन सी
रैन अषाढ़ जलाये
बचपन जाने कहा ग्रीष्‍म
कहा धूप तपन और लाय।

पीठ अलाई गीले बिस्‍तर
रात गुनगुनी तारे गिन गिन
हाथ बिजौना रात न छूटे
करवट बदलें पलकें छिन छिन
नींद आय सैं भोर निठुरिया
गाय भैंस रँभाय।

दूर कूक कोयल की सुन
नाचे मन मयूर गुनगुन
छिटपुट मेघों के कतरे
छाये नभ छितरे छितरे
अभी कहाँ सावन की आहट
ढांढ़स कौन बँधाय।