5 अगस्त 2012

अब भी सम्‍हल मानव





रे अब भी सम्‍हल मानव
कर प्रेम घन वन वृक्षों से
छाने को घटा घनघोर। 

टूटने को है सब्र का बाँध
निहारती हैं आँखे हर घड़ी
जाने को है सूखा सावन
सूने हैं कुँए बावड़ी
घनश्‍याम के न आने से
रूठा है वृन्‍दावन और
रूठे हैं ब्रजवासी चहुँओर।

रे अब भी बदल मानव
कम कर बढ़ रहे संक्रमण को
जगने को प्रफुल्लित हर अलसभोर।

पाल एक वृक्ष
घर में सुत को जैसे
रोज रख ध्‍यान
मंदर में बुत को जैसे
बुहारता है जैसे
घर आँगन हर रोज
रख साफ गाँव मुहल्‍ला
रखता है खुद को जैसे

रे संकल्‍प ले चल मानव
जल बचत वृक्ष संरक्षण को
आज हो या कल हो कैसा भी हो दौर।
कोटा, 5-8-2012

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