10 दिसंबर 2012

अब तो अब-हवा पतझड़ सी

अब तो आब हवा पतझड़ सी
मौसम भी दो चार बहें।

सड़कों के चेहरे पर लिखते
कदमों के आहत मनसूबे
फुटपाथों की उखड़ी साँसें
कहते थकतीं रोज़ अजूबे
अतिथि‍ बनकर आते हैं सुख
दुख बेदम दिन-रात सहें।

मेरी आँखें पथराई
उसकी आँखों से खून रिसे
चक्की के पाटों में फँस कर
मूढ़ उमरिया रोज़ पिसे
इंसाँ बदतर हालातों में
कैसे मन-मन मार रहें।

जुगनू सी खुशियाँ रातों में
बुनती मधुबन के सपने
दिन में उल्लासों की नियति
चुनती अनमन से अपने
चिथड़े चिथड़े हुई चुनरिया
किस्से कितनी बार कहें

दावानल सी हुई ज़िन्दगी
बड़वानल सी आशायें
जठरानल की द्वन्द्व पिपासा
कहीं कहर ना बरपायें
रीति रिवाज, परम्पराओं की
बिखरी बिखरी आज तहें

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