19 मई 2013

अखंड भारत की हे जननी

अखंड भारत की हे जननी, जन्‍मभूमि तुम
हिमगिरि, संगम, प्रभास की, पुण्‍यभूमि तुम
मथुरा, गोकुल, वृन्दावन की, ब्रजभूमि तुम
गीता, पुराण, उपनिषदों की, वेदभूमि तुम
ब्रह्मास्‍त्र से भी ना डिगी वो, मरुभूमि तुम
अखंड भारत की हे जननी-------------

रत्‍ननिधि के आँचल से, पोषित हो तुम
वन, उपवन, कानन, नदियों से, शोभित हो तुम
वासंती मलयानिल सुरभि से, आंदोलित हो तुम
रश्मिरथी की ऊर्जा से, सुनियोजित हो तुम
दशावतारों की दृष्‍टा हो, रंगभूमि तुम।
अखंड भारत की हे जननी----------

सहिष्‍णु, मर्यादित हो, सनातन हो तुम
युग परिवर्तनों से, अधुनातन हो तुम
सभ्‍यता संस्‍कृति में, अद्यतन हो तुम
सृष्टि का इतिहास हो, पुरातन हो तुम
वंदन करूँ, अर्चन करूँ, हो मातृभूमि तुम।
अखंड भारत की हे जननी-------------

18 मई 2013

इंसान को ही खोजना होगा


कल का काम आज ही, हो कैसे सफल।
इंसान को ही खोजना, होगा इसका हल।।

धूल भरी आँधियाँ, प्रकृति का गुस्‍सा है।
सूरज का भी क़हर, पतझड़ पर बरसा है।
दिन पे दिन अब खो रही है सब्र धरती,
युग बदले हुए भी, हुआ एक अरसा है।
न जाने क्‍यों होता नहीं, समय पे अमल।
इंसान को ही खोजना, होगा इसका हल।।

दिमाग पे उसके अजीब, ज़ुनून छाया है।
आखिरकर  इंसान को, ऐसा क्‍या पाया है।
रग रग में नफ़रत नहीं, प्रदूषण है भरा,
जान कर भी  अनजान वो, क्‍यों भरमाया है।
इंसान पी रहा है, यह कैसा हलाहल।
इंसान को ही खोजना, होगा इसका हल।।

प्रकृति से इंसान, हमेशा हारा है।
प्रकृति ने ही उसे, फि‍र सँवारा है।
कौनसी ताक़त, उसे है रोकती,
प्रकृति को उसने, सदा नकारा है।
इंसान क्‍यूँ  इतना कैसे, गया है बदल।
इंसान को ही खोजना, होगा इसका हल।।

सर्वोपरि समस्‍या है, धरा प्रदूषण।
भ्रष्‍टाचार, महँगाई, वायु प्रदूषण।
गंदगी से अटे पड़े हैं,रास्‍ते सारे,
आवश्‍यकता है प्रण लें, करें पर्यूषण।
इंसान यदि चाहे हालात, जाएँ बदल।
इंसान को ही खोजना, होगा इसका हल।।

14 मई 2013

थकता नहीं है आदमी

भीड़ ही भीड़ है
चारों तरफ है आदमी।
चलता ही जा रहा है बस
थकता नहीं है आदमी।

वाहनों की दौड़-भाग से
नहीं इसे परहेज

न है इसे प्रतिद्वंदिता
न द्वेष रखता है सहेज
इसका तो अपना ध्‍येय है
पीढ़ियों से अपराजेय है
फि‍र भी देवताओं सा
लगता नहीं है आदमी।

इसकी अभिलाषाओं का
कभी न अंत होना है
कभी न तृप्‍त होगा यह
अभी न संत होना है
अभी इसे विकास के
सोपानों पे चढ़ना है शेष
गगन गिरा, गगन कुसुम
बागानों पे चढ़ना है शेष
दौड़ मैराथन की है
रुकता नहीं है आदमी।

खाली ही हाथ आया है
खाली ही हाथ जाएगा
प्रकृति के दस्‍तूर को
कभी न तोड़ पाएगा
कैसा आकर्षण इसे  
बाँधे हुए है आज तक
धरा की है महानता
साधे हुए है आज तक
इसकी दुर्दशा को बस
तकता नहीं है आदमी। 

12 मई 2013

ममता माँ की

माँ की आँखों से बहें, गंगा जमुना नीर।
कभी न माँ को कष्‍ट दें, फूटे कभी न पीर।
फूटे कभी न पीर, हाल हर देवें खुशियाँ।
माँ का लें आशीष, भरें इससे अंजुरियाँ।
कह 'आकुल' कविराय, उठा ले बला जहाँ की।
फि‍र भी करे न हाय, महत्‍ता ऐसी माँ की।


ममता माँ की बावरी, दौलत ही औलाद।
बंजर धरती भी फले, मिल जाये जो खाद।
मिल जाये जो खाद, फसल झूमे लहराये।
माँ का ही आशीष, काम जीवन में आये।
कह ‘आकुल’ कविराय, करो नित माँ की झाँकी।
जन्‍नत की सौगात, नियामत ममता माँ की।



'मातृ दिवस' पर सभी पाठकों को शुभकामनायें।  

11 मई 2013

प्रकृति से कर प्रेम तू प्राणी (चौपाइयाँ)



प्रकृति से कर प्रेम तू प्राणी। बोल सभी से मीठी वाणी।।
जीवन कितना सा संसारी। मिलजुल कर रहना हितकारी।।

धरती युगों युगों से सहती। कष्‍ट प्रकोप आक्रमण सहती।।
पर उपकारी या अपचारी। हो वो चाहे विप्‍लवकारी।।

दावानल वृक्षों का कटना। ॠतु में वर्षा का जल घटना। ।
अपशिष्‍टों से धरा प्रदूषण। बढ़ते जाते अब खर-दूषण।।

जन जाग्रति के लिए यज्ञ हों। समाधान से ना अनभिज्ञ हों।।
घर घर जा अभियान चलायें। संसाधन उपलब्‍ध करायें।।

वृक्षारोपण जल संचय हो। दृढ़ निश्‍चय हो ना संशय हो।।
धूम्रपान और मद्यपान विष। भोजन लें सब पूर्ण निरामिष।।