26 जुलाई 2013

डाली चम्‍पा की

बीज बिना लग जाती है
डाली चम्‍पा की।

बिन जाने पहचाने
भा जाता है कोई
अपना सा लगने
लगता है कोई बटोही
खुशबू ने कब दिया
किसी को कोई बुलावा
किसे पता कब कर
जायेगा कोई छलावा

शिखर चढ़ा जाती है
पाती अनुकम्‍पा की।

बौछारों से हरियाली
दिन दूनी बढ़ती
थोड़ी सी खुशहाली
अमरबेल सी चढ़ती
आशाओं के नीड़
बसाते पंखी रोज
काक बया की करते हैं
बदहाली रोज

काल कभी भी बन जाती है
व़ृष्टि शंपा की।

1-7-2013
को अनुभूति में प्रकाशित
25-07-2013 
को नवगीत की पाठशाला में प्रकाशित

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