10 अक्तूबर 2013

मन के कहीं बसेरे होते

मन के कहीं बसेरे होते
ना उड़ते बन यायावर
अपनों से ना होते दूर।

गगन कुसुम की चाहत इतनी
दूर गगन भी छाँव लगे
राह भले ही आग धधकती
और जिन्‍दगी दाँव लगे
धता बताते पलकों के पर
चंचल मन के पाँव लगे
चंद्रकला सी अभिलाषाएँ
प्‍यासे मरुधर गाँव लगे

मन के कई न चेहरे होते
नहीं ढूँढ़ते चारागर
अपनों में होते मशहूर।

दीवानापन खोता आया
चैन दिहाड़ी सा जीवन
धूल-धमासा, गिट्टी रोड़ी
खाली हाँड़ी सा जीवन
साँस-साँस की गति ताल में
फि‍र भी ताड़ी सा जीवन
नशा भरे अपने ही पाँवों
मार कुल्‍हाड़ी सा जीवन

न के नहीं अँधेरे होते
ना छिपते तब ज्‍यादातर
अपनों से रहते क्‍यों दूर