20 अगस्त 2016

'आकुल' का नवगीत संग्रह 'जब से मन की नाव चली' प्रकाशित। विमोचन शीघ्र

'आकुल' के सद्य प्रकाशित गीत संग्रह 'नवभारत का स्‍वप्‍न सजाएँँ' के बाद प्रकाशित नवगीत संग्रह 'जब से मन की नाव चली' भी प्रकाशित हो चुका है। उक्‍त दोनों पुस्‍तकों का विमोचन शीघ्र ही होना है। पुस्‍तकों का प्रकाशन जयपुर के अनुष्‍टुप प्रकाशन से हुआ है। विमाेचन माह सितम्‍बर में हिन्‍दी दिवस के अवसर पर हिन्‍दी सप्‍ताह के दौरान किया जाना प्रस्‍तावित है।

जन भावनाओं के खिवैया नवगीत- भानु 'भारवि'

वरिष्‍ठ कवि गीतकार डा. गोपाल कृष्‍ण भट्ट 'आकुल' साहित्‍य की बहुविध विधाओं के चितेरे रहे हैं। प्रकाश्‍य कृति 'जब से मन की नाव चली' नवगीत का संकलन हैै, जो कवि के मानवतावादी सोच तथा उसके मंगल के लिए गतिमान संकल्‍पें का संकुल है। उनके गीतों में मानवीय संवेदनाओं की छटपटाहट है। वे जिस परिवेश से गुजरते हैं, वहाँँ उन्‍हें अनेकानेक विसंगतियों से साक्षात् होता है। ये विसंगतियाँँ उनके शब्‍द-चित्रों के माध्‍यम से साहित्‍य के कैनवास पर एक अनूठे अंदाज़ में उभरने लगती हैं। उनके गीतों में चीजों की यथार्थ अभिव्‍यक्ति तो है ही, साथ ही एक ठोस प्रहार भी है।
दलितों, शोषितों, पीडि़तों की पैरोकारी करते उनके गीतों में सर्वसाध्‍य साधन के शोध की ललक भी है। वे अपने आपको निसर्ग के काफ़ी क़रीब पाते हैं। उनके शब्‍दों में बहुतेरे रंग हैं, जिनका उपयोग वे एक कुशल सर्जक की तरह पूरे सामंजस्‍य, सामर्थ्‍य, एवं मनोयोग के साथ अपने गीतों में करते हैं। उनका बिम्‍बविधान अनुपम है। रूपक व प्रतिमानों प्रयोग के वे पारखी हैं।  'चन्‍दनवन में विषधर भटकें...' आदि में दो विषम प्रवृत्तियों के साथ आनुष्‍ठानिक अनवरतता को दर्शा कर कवि सम्‍भावनाअों को तलाशने का अटूट प्रयास करता है।
राजनीति के दल-प्रपंच से वंचित और व्‍यथित औसत जन की पीड़ा का वह सहभागी रहता है। वह 'भ्रष्‍टाचारी दलदल में, इन्‍दीवर खिल रहे देश में/आम आदमी मेहनतकश है, खास जी रहे ऐश में' कह कर एक तीीखा कटाक्ष करता है। उनके गीतों में राष्‍ट्रवाद का स्‍वर अनुगुंजित होता है। कवि परम्‍परावादी लोक मान्‍यताओं व लोक संस्‍कृति का प क्षधर है, तभी तो वह मनुष्‍य को सावचेत करता है 'जो समक्ष है उसे बचा लो/सहज मिले बस उसे बसालो/ अवचेतन मन से क्‍यों विचलित/ जीवन है अनमोल बचालो।' (इसी संग्रह से)  

18 अगस्त 2016

आज है राखी का त्‍योहार

आज है राखी का त्‍योहार
रक्षाबंधन 
भाई को बहिना का उपहार
कच्‍चे धागे में लिपटा है
एक अनोखा प्‍यार।
आज है राखी का त्‍योहार.....

साथ खेल पढ़ बड़े हुए जब
अपने पग पर खड़े हुए जब
रिश्‍तों की तासीर बताई
घर की इज्‍जत है समझाई
मात पिता की प्रतिमूरत है
बहिन भाई की जो सूरत है

एक पेट जाये हैं दोनों
एक खून इक नार।
आज है राखी का त्‍योहार.......
राखी के अवसर पर बेटी कीर्ति(5) और बेटा पीयूष (1) (1989)

संस्‍कार देने होंगे अब
रिश्‍ते दृढ़ करने होंगे अब
घर घर में रिश्‍ते पोषित हों
नारी कहीं नहीं शोषित हो
माँँ बहु बेटी बहिन बहार
घर में सुख की बहे बयार

नैहर और ससुराल बनेंगे
स्‍वर्ग सेतु और द्वार ।
आज है राखी का त्‍योहार......।

15 अगस्त 2016

देश मेरा खुशहाल है


(नवगीत )

जोश अभी भी नहीं हुआ कम
देश मेरा खुशहाल है।

भ्रष्‍टाचारी दलदल में
इंदीवर खिल रहे देश में
आम आदमी मेहनतकश है
खास जी रहे ऐश में
सबको देती खुशी हो गई
उमर उनहत्‍तर साल है।



आदर्शों की ले के गठरिया
खड़ा कबीर बज़ा़र में
बापू के ब्ंदर भी उछलते
देखे हैं सरकार में
संस्‍कृति के वीजारोपण से
बना वो वृक्ष तमाल है।

सर्वे भवन्‍तु सुखिन: व
वसुधैवकुटुम्‍बकम् का दर्शन
गीता-वेद-पुराणों से
मिलता है सबको दिग्‍दर्शन
दशावतारों की भूू पर
महाभारत काव्‍य विशाल है।


हवा चले कैसी कितनी भी
राष्‍ट्रगीत और गान से
ध्‍वज मेरे भारत का हमेशा
फहराएगा शान से
सत्‍यमेव जयते ब्रह्मास्‍त्र व
वन्‍दे मातरम् ढाल है।

(हाल ही में प्रकाशित नवगीत संग्रह 'जब से मन की नाव चली' से )




14 अगस्त 2016

शीघ्र आ रहा है 'आकुल' का नवगीत संग्रह 'जब से मन की नाव चली'। लोकार्पण शीघ्र

प्राक्कथन-
"जब से मन की नाव चली" नवगीत लहरियाँ लगें भली 

आचार्य संजीव वर्मा "सलिल"

                    गीतिकाव्य की अन्विति जीवन के सहज-सरस रागात्मक उच्‍छ्-वास से संपृक्त होती है। "लय" गीति का उत्स है। खेत में धान की बुवाई करती महिलायें हों या किसी भारी पाषाण को ढकेलता श्रमिक दल, देवी पूजती वनिताएँ हों या चौपाल पर ढोलक थपकाते सावन की अगवानी करते लोक गायक बिना किसी विशिष्ट अध्ययन या प्रशिक्षण के "लय" में गाते-झूमते आनंदित होते हैं। बंबुलिया हो या कजरीफाग हो या राई, रास हो या सोहर, जस हों या काँवर गीत जन-मन हर अवसर पर नाद, ताल और सुर साधकर "लय" की आराधना में लीन हो आत्मानंदित हो जाता है। 

                    यह "लय" ही वेदों का ''पाद'' कहे गए  "छंद" का प्राण है। किसी ज्येष्ठ-श्रेष्ठ का आशीष पड़-स्पर्श से ही प्राप्त होता है। ज्ञान मस्तिष्क में, ज्योति नेत्र में, प्राण ह्रदय मे, बल हाथ में होने पर भी "पाद" बिना संचरण नहीं हो सकता। संचरण बिना संपर्क नहीं, संपर्क बिना आदान-प्रदान नहीं, इसलिए "पिंगल"-प्रणीत छंदशास्त्र वेदों का पाद है। आशय यह कि छन्द अर्थात "लय" साढ़े बिना वेदों की ऋचाओं के अर्थ नहीं समझे जा सकते। जनगण ने आदि काल से "लय" को साधा जिसे समझकर नियमबद्ध करते हुए "पिंगलशास्त्र" की रचना हुई। लोकगीति नियमबद्ध होकर छन्द और गीत हो गयी। समयानुसार बदलते कथ्य-तथ्य को अगीकार करती गीत की विशिष्ट भावभंगिमा "नवगीत" कही गयी। 

                    स्वतन्त्रता पश्चात सत्तासीन दल ने एक विशेष विचारधारा के प्रति आकर्षण वश उसके समर्थकों को शिक्षा संस्थानों में वरीयता दी। फलत: योजनाबद्ध तरीके से विकसित होती हिंदी साहित्य विधाओं में लेखन और मानक निर्धारण करते समय उस विचारधारा को थोपने का प्रयास कर समाज में व्याप्त विसंगति, विडंबना अतिरेकी दर्द, पीड़ा, वैमनस्य, टकराव, ध्वंस आदि को नवगीतलघुकथा, व्यंग्य तथा दृश्य माध्यमों नाटक, फिल्म आदि में न केवल वरीयता दी गयी अपितु समाज में व्याप्त सौहार्द, सद्भाव, राष्ट्रीयता, प्रकृति-प्रेम, सहिष्णुता, रचनात्मकता को उपेक्षित किया गया। इस विचारधारा से बोझिल होकर तथाकथित प्रगतिशील कविता ने दम तोड़ दिया जबकि गीत के मरण की छद्म घोषणा करनेवाले भले ही मर गए हों, गीत नव चेतना से संप्राणित होकर पुनर्प्रतिष्ठित हो गया। अब प्रगतिवादी गीत की नवगीतीय भाव-भंगिमा में घुसपैठ करने के प्रयास में हैं। वैदिक ऋचाओं से लेकर संस्कृत काव्य तक और आदिकाल से लेकर छायावाद तक लोकमंगल की कामना को सर्वोपरि मानकर रचनाकर्म करते गीतकारों ने ''सत-शिव-सुन्दर'' और ''सत-चित-आनंद'' की प्राप्ति का माध्यम ''गीत'' और ''नवगीत'' को बनाये रखा। 

                    यह सत्य है कि जब-जब दीप प्रज्वलित किया जाता है, 'तमस' उसके तल में आ ही जाता है किन्तु आराधना 'उजास' की ही की जाती है।  इस मर्म को जान और समझकर रचनाकर्म में प्रवृत्त रहनेवाले साहित्य साधकों में वीर भूमि राजस्थान की शिक्षा नगरी कोटा के डॉ. गोपालकृष्ण भट्ट "आकुल" की कृति "जब से मन की नाव चली" की रचनाएँ आश्वस्त करती हैं कि तमाम युगीन विसंगतियों पर उनके निराकरण के प्रयास और नव सृजन की जीजीविषा भारी है। 
कल था मौसम बौछारों का / आज तीज औ' त्योहारों का 
रंग-रोगन बन्दनवारों का / घर-घर जा बंजारन नित 
इक नवगीत सुनाती जाए। 

                    यह बनजारन क्या गायेगी?, टकराव, बिखराव, द्वेष, दर्द या हर्ष, ख़ुशी, उल्लास, आशा, बधाई? इस प्रश्न के उठते में ही नवगीत का कथ्य इंगित होगा।  आकुल जी युग की पीड़ा से अपरिचित नहीं हैं। 
कलरव करते खग संकुल खुश / अभिनय करते मौसम भी खुश 
समय-चक्र का रुके न पहिया / प्रेम-शुक्र का वही अढैया 
छोटी करने सौर मनुज की / फिर फुसलायेगा इस बार

                    'ढाई आखर' पढ़ने वाले को पण्डित मानाने की कबीरी परंपरा की जय बोलता कवि विसंगति को "स्वर्णिम मृग, मृग मरीचिका में / फिर दौड़ाएगा इस बार" से इंगित कर सचेत भी करता है।  

                    महाभारत के महानायक कर्ण पर आधारित नाटक ‘प्रतिज्ञा’, गीत-ग़ज़लऔर नज्‍़मों का संग्रह ‘पत्थरों का शहर’, काव्य संग्रह ‘जीवन की गूँज’, लघुकथा संग्रह ‘अब रामराज्य आएगा’, गीत संग्रह ‘नव भारत का स्वप्न सजाएँ’ रच चुके आकुल जी के ४५ नवगीतों से समृद्ध यह संकलन नवगीत को साम्यवादी चश्मे से देखनेवालों को कम रुचने पर भी आम पाठकों और साहित्यप्रेमियों से अपनी 'कहनऔर 'कथ्य' के लिए सराहना पायेगा। 

                    आकुल जी विपुल शब्द भण्डार के धनी हैं। तत्सम-तद्भव शब्दों का यथेचित प्रयोग उनके नवगीतों को अर्थवत्ता देता है। संस्कृत निष्ठ शब्द (देवोत्थान, मधुयामिनी, संकुल, हश्र, मृताशौच, शावक, वाद्यवृंद, बालवृन्द, विषधर, अभ्यंग, भानु, वह्नि, कृशानु, कुसुमाकाशी, उदधि, भंग, धरणीधर, दिव्यसन, जाज्वल्यमान, विलोड़न, द्रुमदल, झंकृत, प्रत्यंचा, जिगीषा, अतिक्रम संजाल, उच्छ्वास, दावानल, जठरानल, हुतात्मा, संवत्सर, वृक्षावलि, इंदीवर आदि), उर्दू से ग्रहीत शब्द (रिश्ते, क़दम, मलाल, शिकवा, तहज़ीब, शाबाशी, अहसानों, तल्ख़, बरतर, मरहम, बरक़त, तबक़े, इंसां, सहर, ज़मीर, सगीर, मंज़ि‍ल, पेशानी, मनसूबे, जिरह, ख़्वाहिश, उम्मीद, वक़्त, साज़ि‍श, तमाम, तरफ, पयाम, तारीख़, असर, ख़ामोशी, गुज़र आदि ), अंग्रेजी शब्द (स्वेटर, कोट, मैराथन, रिकॉल आदि), देशज शब्द (अँगना, बिजुरिया, कौंधनि, सौर, हरसे, घरौंदे, बिझौना, अलाई, सैं, निठुरिया, चुनरिया, बिजुरिया, उमरिया, छैयाँ आदि) रचनाओं में विविध रंग-वर्ण के सुमनों की तरह सुरुचिपूर्वक गूँथे गये हैं। कुछ कम प्रचलित शब्द-प्रयोग के माध्यम से आकुल जी पाठक के शब्द-भण्डार को समृद्ध करते हैं।

                    मुहावरे भाषा की संप्रेषण शक्ति के परिचायक होते हैं। आकुल जी ने 'घर का भेदी / कहीं न लंका ढाए', 'मिट्टी के माधो', 'अधजल गगरी छलकत जाए', 'मत दुखती रग कोई  छू आकुल' जैसे प्रयोगों से अपने नवगीतों को अलंकृत किया है। इन नवगीतों में शब्द-युग्मों का प्रयोग सरसता में वृद्धि करता है। कस-बल, रंग-रोगन, नार-नवेली, विष-अमरित, चारु-चन्द्र, घटा-घनेरी, जन-निनाद, बेहतर-कमतर, क्षुण्ण-क्षुब्ध, भक्ति-भाव, तकते-थकते, सुख-समृद्धि, लुटा-पिटा, बाग़-बगीचे, हरे-भरे, ताल-तलैया, शाम-सहर, शिकवे-गिले, हार-जीत, खाते-पीते, गिरती-पड़ती, छल-कपट, आब-हवा, रीति-रिवाज़, गर्म-नाज़ुक, लोक-लाज, ऋषि-मुनि-सन्त, गंगा-यमुनी, द्वेष-कटुता आदि ऐसे शब्द युग्म हैं जिन्हें अलग करने पर दोनों भाग सार्थक रहते हैं जबकि कनबतियाँ, छुटपुट, गुमसुम आदि को विभक्त करने पर एक या दोनों भाग अर्थ खो बैठते हैं। ऐसे प्रयोग रचनाकार की भाषिक प्रवीणता के परिचायक हैं।

                    इन नवगीतों में अन्त्यानुप्रास अलंकारों का प्रयोग निर्दोष है। 'मनमथ पिघला करते', नील कंठ' आदि में श्लेष अलंकार का प्रयोग है। पहिया-अढ़ैया, बहाए-लगाये-जाए, जतायें-सजाएँ, भ्रकुटी-पलटी-कटी जैसे अंत्यानुप्रासिक प्रयोग नवता की अनुभूति कराते हैं। लाय, कलिंदी, रुत, क्यूँ, सुबूह, पैंजनि, इक, हरसायेगी, सरदी, सकरंत, ढाँढस आदि प्रयोग प्रचलित से हटकर किये गए हैं। दूल्हा राग बसन्त, आल्हा राग बसन्त, मेघ बजे नाचे बिजुरी, जिगिषा का दंगल, पीठ अलाई गीले बिस्तर, हाथ बिझौना रात न छूटे जैसे प्रयोग आनंदित करते हैं।

                    आकुल जी की अनूठी कहन 'कम शब्दों में अधिक कहने' की सामर्थ्य रखती है। नवगीतों की आधी पंक्ति में ही वे किसी गंभीर विषय को संकेतित कर मर्म की बात कह जाते हैं। 'हुई विदेशी अब तो धरती', 'नेता तल्ख सवालों पर बस हँसते-बँचते', 'कितनी माँगें मन्नत घूमें काबा-काशी', 'कोई तो जागृति का शंख बजाने आये', वेद पुराण गीता कुरआन / सब धरे रिहल पर धूल चढ़ी', 'मँहगाई ने सौर समेटी', 'क्यूँ नारी का मान न करती', 'आये-गये त्यौहार नहीं सद्भाव बढ़े', 'किसे राष्ट्र की पड़ी बने सब अवसरवादी', 'शहरों की दीवाली बारूदों बीच मनाते', 'वैलेंटाइन डे में लोग वसंतोत्सव भूले', अक्सर लोग कहा करते हैं / लोक-लुभावन मिसरे', समय भरेगा घाव सभी' आदि अभिव्यक्तियाँ लोकोक्तियों की तरह जिह्वाग्र पर आसीन होने की ताब रखती हैं।

                    उलटबाँसी कहने की कबीरी विरासत 'चलती रहती हैं बस सड़कें, हम सब तो बस ठहरे-ठहरे' जैसी पंक्तियों  में दृष्टव्य है। समय के सत्य को समझ-परखकर समर्थों को चेतावनी देने के कर्तव्य निभाने से कवि चूका नहीं है- 'सरहदें ही नहीं सुलग रहीं / लगी है आग अंदर भी' क्या इस तरह की चेतावनियों को वे समझ सकेंगे, जिनके लिए इन्हें अभिव्यक्त किया गया है ? नहीं समझेंगे तो धृतराष्ट्री विनाश को आमन्त्रित करेंगे। आकुल जी ने 'अंगद पाँव अनिष्ट ने जमाया है', कर्मण्य बना है वो, पढ़ता रहा जो गीता' की तरह  मिथकों का प्रयोग यथावसर किया है। वे वरिष्ठ रचनाकार हैं। 

                    हिंदी छंद के प्रति उनका आग्रह इन नवगीतों को सरस बनाता है। अवतारी जातीय दिगपाल छंद में पदांत के लघु गुरु गुरु में अंतिम गुरु के स्थान पर कुछ पंक्तियों में दो लघु लेने की छूट उन्होंने  'किससे क्या है शिकवा' शीर्षक रचना में ली है। 'दूल्हा राग बसन्त' शीर्षक नवगीत का प्रथम अंतरा नाक्षत्रिक जातीय सरसी छंद में है किन्तु शेष २ अंतरों में पदांत में गुरु-लघु के स्थान पर गुरु-गुरु कर दिया गया है। 'खुद से ही' का पहले - तीसरा अंतरा महातैथिक जातीय रुचिर छन्द में है किन्तु दुआरे अंतरे में पदांत के गुरु के स्थान पर लघु आसीन है।  संभवत: कवि ने छन्द-विधान में परिवर्तन के प्रयोग करने चाहे, या ग़ज़ल-लेखन के प्रभाव से ऐसा हुआ।  किसी रचना में छंद का शुद्ध रूप हो तो वह सीखने वालों के लिये पाठ हो पाती है।

                    आकुल जी की वरिष्ठता उन्हें अपनी राह आप बनाने की ओर प्रेरित करती है। नवगीत की प्रचलित मान्यतानुसार 'हर नवगीत गीत होता है किन्तु हर गीत नवगीत नहीं होता' जबकि आकुल जी का मत है ''सभी गीत नवगीत हो सकते हैं किन्तु सभी नवगीत गीत नहीं कहे जा सकते" (नवभारत का स्वप्न सजाएँ, पृष्ठ ८)। यहाँ विस्तृत चर्चा अभीष्ट नहीं है पर यह स्पष्ट है कि आकुल जी की नवगीत विषयक धारणा सामान्येतर है। उनके अनुसार "कविता छान्दसिक स्वरूप है जिसमें मात्राओं का संतुलन उसे श्रेष्ठ बनाता है, जबकि गीत लय प्रधान होता है जिसमें मात्राओं का सन्तुलन छान्दसिक नहीं अपितु लयात्मक होता है। गीत में मात्राओं को ले में घटा-बढ़ाकर सन्तुलित किया जाता है जबकि कविता मात्राओं में ही सन्तुलित किये जाने से लय में पढ़ी जा सकती है।  इसीलिये कविता के लिए छन्दानुशासन आवश्यक है जबकि 'गीत' लय होने के कारण इस अनुशाशन से मुक्त है क्योंकि वह लय अथवा ताल में गाया जाकर इस कमी को पूर्ण कर देता है। गीत में भले ही छन्दानुशासन की कमी रह सकती है किन्तु शब्दों का प्रयोग लय के अनुसार गुरु व् लघु वर्ण के स्थान को अवश्य निश्चित करता है जो छन्दानुशासन का ही एक भाग है, जिसकी कमी से गीत को लयबद्ध करने में मुश्किलें आती हैं।" (सन्दर्भ उक्त) 
                    ''जब से मन की नाव चली'' के नवगीत आकुल जी के उक्त मंतव्य के अनुसार ही रचे गए हैं। उनके अभिमत से असहमति रखनेवाले रचनाकार और समीक्षक छन्दानुशासन की कसौटी पर इनमें कुछ त्रुटि इंगित करें तो भी इनका कथ्य इन्हें ग्रहणीय बनाने के लिए पर्याप्त है। किसी रचना या रचना-संग्रह का मूल्यांकन समग्र प्रभाव की दृष्टि से करने पर ये रचनाएँ सारगर्भित, सन्देशवाही, गेयात्मक, सरस तथा सहज बोधगम्य हैं। इनका सामान्य पाठक जगत में स्वागत होगा।  समीक्षकगण चर्चा के लिए पर्याप्त बिंदु पा सकेंगे तथा नवगीतकार इन नवगीतों के प्रचलित मानकों के धरातल पर अपने नवगीतों के साथ परखने का सुख का सकेंगे। सारत: यह कृति विद्यार्थी, रचनाकार और समीक्षक तीनों वर्गों के लिए उपयोगी होगी। 

'आकुल' का नया गीत संग्रह 'नवभारत का स्‍वप्‍न सजायें' प्रकाशित। लोकार्पण शीघ्र

                          कलुष को बुुहारते गीत- भानु 'भारवि'
नवभारत का स्‍वप्‍न सजायें
एक गीतकार मानव मन की कोमल भावनाओं, संवेदनाओं और अनुभूतियों का प्रस्‍फुरण गीत या कविता के माध्‍यम से करता है। हाड़ौ़ती अंचल के ऐसे ही वरिष्‍ठ गीतकार गोपाल कृष्‍ण भट्ट 'आकुल' सामाजिक विद्रूपता, कलुषित मनोवृत्तियों तथा जीवन के कटु यथार्थ्‍य को भावनाओं की समाधि पर बैठे एक संत की तरह जितनी पारदर्शिता के साथ अभिव्‍यक्‍त करते हैं, उतनी ही संकल्‍पशील दृढ़ता के साथ उसके खिलाफ़  अपने आपको
खड़ा भी रखते हैं। 'आकुल'जी समीपस्‍थ परिवेश के अहसासों के साथ देश-दुनियाँँ की अन्‍यथा वृत्तियों को भी गहनता से परखते है। वे ऐसी सभी चिन्‍ताओं से अपने अापको परिवेष्टित पाते हैं, जिनके अपसरण की समाज को बड़ी जरूरत है। वे इन स्थितियों के विरुद्ध न केवल एक सहृदय गीतकार के रूप में अपितु, संघर्षशील मार्गदर्शक के रूप में भीी समाज का मार्ग प्रशस्‍त करते हैं। राष्‍ट्रीयता, नैतिकता व सदाचार कवि के गीतों का मूल स्‍वर है, जिसे उन्‍होंने समग्र छान्‍दसिक अनुशासन, लयात्‍मकता और स्निग्‍ध भंगिमाओं के साथ उकेेरा है। उन गीतों में प्रयुक्‍त छन्‍द, लय और गीति स्‍वाभाविक, सहज और विषयानुकूल रहे हैं, जो कवि के अन्‍तस से नि:सृत लगते हैं, जिसके सृजन में कवि ने कोई विशेष प्रयास किये हों, ऐसा प्रतीत नहीं होता। आशा है, ये गीत सुधी पाठकों के दिल-ओ-दिमाग़ को झंकृत करते रहेंगे और चिरंतन रचे-बसे रहेंगे। - अनुष्‍टुप प्रकाशन, जयपुर से प्रकाशित इस संग्रह पर प्रकाशक, साहित्‍यकार और सम्‍पादक की कलम से (इस संग्रह से उद्धृत )  

क़दम-क़दम चलना होगा



है स्‍वतंत्रता दिवस आज, कुछ करने होंगे वादे।
क़दम-क़दम चलना होगा, अब करके ठोस इरादे।
कई चुनौती आएँँगी पर, अडिग अटल रहना है,
बढ़े हौसलों के दम पूरे करने होंगे वादे।।
क़दम-क़दम चलना होगा......'

बस विकास की बात करेंगे।
एक सभी दिन-रात करेंगे।
कोई बड़ा न छोटा होगा,
कभी न कोई घात करेंगे।
है स्‍वतंत्रता दिवस, करें संकल्‍प बढ़ें फिर आगे।।
क़दम-क़दम चलना होगा.....'

राह भ्‍ाले ही कण्‍टकीर्ण हों।
मन हो साफ़ नहीं संकीर्ण हों।
हो मक़सद फ़ौ़लादी मन में,
चाहे कपड़े जीर्ण-शीर्ण हों।
है स्‍वतंत्रता दिवस, आज से सारे फ़र्क मिटा दे।।
क़दम-क़दम चलना होगा.....'

सुख सुविधाओं की न कमी हो।
बंजर किंचित भी न जमीं हो।
खेत लहलहायें, ऋतु झूमें,
विश्‍वपटल पर धाक जमी हो।
है स्‍वतंत्रता दिवस, आज तू ऐसी हवा चला दे।।
क़दम-क़दम चलना होगा.....'
(हाल ही में प्रकाशित गीत संग्रह 'नवभारत का स्‍वप्‍न सजाएँँ' से)


8 अगस्त 2016

सुरेश चंद्र सर्वहारा की नयी पुस्‍तक 'ढलती हुई धूप' पर 'आकुल' की समीक्षा

जीने की लालसा जगाती ढलती हुई धूप

जीने को मन करता ही है। मौन संदेश मिलते हैं, आँखे ढूँढती रहती है, छाँह, संतोष, आश्रय, सुरक्षा और बहाना, सब दिल को ढाँढ़स देते रहते हैं, पर परिस्थितियाँ कैसी भी हों, जीने को मन करता ही है।

‘ढलती हुई धूप’ आने वाली नई स्‍वर्णिम भोर की आशा सँजोती सर्वहाराजी का नया कविता संग्रह है, जो अश्‍वत्‍थ की तरह आधिभौतिक में अध्‍यात्‍म को जीने और दशकुलवृक्षों की तरह हर ऋतु में सदाबहार रहने की शिक्षा देता हुआ। विभिन्‍न प्रकार की जिजीविषा को जीते हुए उनके जीवन के उतार-चढ़ाव को जीती हुई 49 कवितायें कहीं आधुनिक कविता का बोध कराती हैं, कहीं नवगीत की झलक भी दे जाती हैं। नैराश्‍य का मूल यदि है, तो भी अश्‍वत्‍थ जीवनसंचार की पुरातन परम्‍परा को जीता हुआ चेतन आनंद की अनुभूति भी देता है कवि को और उस पल्‍लवित वृक्ष को देखने की जिगीषा भी कवि में जीने की लालसा जगाती है उनकी पुस्‍तक ‘ढलती हुई धूप’। जीवन तो बस चलते रहने का नाम है। लेखक अपने नैराश्‍य को कितना भी लेखनी से उकेर लें जीने को मन करता ही है। यही जीने की लालसा सबको नया जीवन संचार देती है। सर्वहाराजी ने लिखा है-

वह सूखा पेड़
भीगता रहा बारिश में......
ऐसी एक लंबी
अँधेरी रात के बाद
जब जागा वह पेड़
तो देखा उसने
कटी शाख पर
उग आईं कोंपल को
अचरज से भर
चहचहाया एक पक्षी भी
आ गया वहाँ
कहीं दूर से और
लगा सोचने
उस सूखे पेड़ पर
फि‍र से बनाने को घर। (सूखा पेड़, पृ. 43-44)

लेखक स्‍वयं जीता है कविता। कौन है पेड़, कौन है पक्षी। सूखे वृक्ष के रुप में स्‍वयं को बारिश के थपेड़ों में संघर्ष करते हुए थक कर सोने पर जब नींद खुलती है तो कविमन पंछी बावरा उस सूखे वृक्ष पर बैठ कर उन अंकुरित आशापालव पर जीवन की लालसा को देखता है, तो जीने को मन करता ही है।  नई सुबह फि‍र नये उल्‍लास के साथ जीने को आग्रह करती है, अरे... ढलती सुबह देखो... कैसे सुनहले गोटे पहन कर आई है... पक्षी चहचहा रहे हैं.....पलाश...हारसिंगार के फूलों की चाँदनी बिखर रही है....नई उमंगों के साथ लोग दौड़ रहे हैं... किसी श्रमिक को खुल कर हँसते हुए देख कर लेखक मन फि‍र नैराश्‍य को भूल लेखनी चलाता है-
पता भी नहीं चला 
छू कर बदन मेरा
कब बह गयी
वासन्‍ती हवा....
अचरज मुझे कि
कुछ नहीं हुआ उसे
पाप ताप
अभिशाप मेरे
सब सह गई
वासन्‍ती हवा। (वासन्‍ती हवा, पृ. 51-52)

कवि मन है न, फूल सा कोमल, कागज सा जिद्दी, ममता सा भावुक, स्‍याही सा गहरा, शैवाल सा चिकना। ना, ना, भी करे तो भी चाहना तो है उसके कवि मन में, पर कहेगा कि उसे कोई चाह नहीं। कह गई लेखक की कलम ऐसे ही भाव। देखें-

फूल नहीं चाहते
कोई आए करने
उनकी भूरि-भूरि
प्रशंसा या कोसने प्रारब्‍ध...
यश-प्रार्थी नहीं हैं फूल
नहीं चाहते वे
खिलने का कोई पुरस्‍कार
खिलकर चार दिन
दे जाते हैं फूल
रंग रूप रस गंध
सब कुछ दुनिया को
उपहार। (फूल खिलते हैं, पृ. 73-75)
चाहना नहीं है तो कवि के यह उद्गार क्‍यों-
कुछ देर ही सही
तैरती रहती है
इनकी मधुर मधुर स्‍मृति
समय की
लहरों के आर-पार।
सही तो कहा है चाहना तो जरूरी भी है, ठहरी हुई नदी का जल भी पीने योग्‍य नहीं रह पाता, नदी भी कहाँ चाहती है कि वह किसी सुंदरवन में ठहर जाए, वह जानती है कि उसका संतोष तो किसी प्‍यासे की पिपासा का शमन है। मेघ भी कहाँ चाहते हैं कि वे नंदनवन में ही बरसें, प्‍यासी धरती की चाहना को चंचल हवा उसे स्‍वच्‍छंद उड़ने को ढकेलती रहती है। जीने को मन करता ही है। अगर नैराश्‍य ने घेरा है उन्‍हें, तो क्‍यों लिखती है लेखनी उनकी-
समझते हैं शब्‍द ये
व्‍यर्थता एकाकीपन की
इसलिए बैठकर साथ।
कह रहे हैं बात
अपने अन्‍तर्मन की।
दे रहे हैं अर्थ
रह कर आत्‍मनिर्भर
नए-नए भाव को बिखेरते
कभी हँसी तो सहलाते हैं
कभी घाव को।
खिलते फूलों से
शब्‍द ये भर रहे हैं
कविता की माला में
निज अस्तित्‍व की गंध (नि:शब्‍द सम्‍बंध पृ. 84-85)
नैराश्‍य में भी जीने की चाहना। समय का सदुपयोग कवि के लिए लेखनी से मित्रता से बढ़ कर क्‍या होगा। अपनी हर बात को निराशा में डूबने से पहले ठेलती है, रोकती है, नहीं लिखने देती नैराश्‍य की बातें, और थक हार कर जिद्दी अंतर्मन के आगे झुकती भी है, तो इस शर्त पर कि जीने का कोई संदेश देना होगा-
चाह आशाएँ
मनुज की
क्षण-क्षण यहाँ दम तोड़ती
स्‍वप्‍न की चिड़ि‍या मगर कब
नभ में उड़ना छोड़ती।
वर्ष नूतन या पुरातन
सब समय के अंग हैं,
स्‍वीकार लें सबको 
सहज हम   
आँसू हँसी तो संग हैं। (नव वर्ष पृ.102-103)

मुक्‍त गगन में उड़ने की
आशा दो खग में
नव गति को
संचालित कर दो
हर डगमग पग में।
आदि काल से शुभ्र भाव तुम
रहीं जगाती
उद्बोधन के गान रही
वेदों में गाती।
विश्‍व प्रेम के फुल गूँथ कर
मन के स्रग में
संस्‍कारित कर दो
मानव को
फिर से जग में। (उषा सुंदरी- पृ.120)
सर्वहाराजी ने बहुत ही संयम से अपने इस संग्रह को निखारा है। हर कविता में नैराश्‍य है पर कहीं न कहीं आशा का जीवनसंचार उसमें है, क्‍या यह चाहना नहीं रही होगी उन्‍हें कि भले ही नैराश्‍य का संकलन है तो जब वह पुस्‍तक बन कर आए तो वह उसे पढ़ेंगे, बार...बार.. न जाने कितनी बार....यह क्‍या है... यही है जीने की लालसा.... जीवन का मर्म.... सच है न, जीने को मन करता ही है....।

सरल शब्‍दों में उकेरी हैं सर्वहाराजी ने ये कवितायें। एक शब्‍द शायद कोई नहीं समझ पाये। पुस्‍तक के अंतिम पृष्‍ठ पर, वह है ‘स्रग’। यह शब्‍द कविता के तुकांत के लिए नहीं लिखा है उन्‍होंने, शब्द अप्रचलित अवश्‍य है पर, कवि के लिए सामान्‍य है। ‘गजरे’ के अर्थ में दिया है यह शब्‍द लेखक ने कविता में, जो इस कविता में ही मात्र कुछ टंकण की त्रुटियों की तरह पाठक इसे टंकण त्रुटि समझें मगर यह शब्‍द लेखक की गहन समझ और गंभीरता के साथ-साथ उनके अनुभव को बताता है।
आज से 49 वर्ष पूर्व कदाचित् उन्‍होने हर वर्ष अपनी उम्र को ढलते हुए देखा और हिम्‍मत जुटाई 49 वर्ष अपने भोगे हुए यथार्थ के कड्वे सच को कविताओं के रूप में ढाल कर सुधीजनो के अंत:करण को झकरझोरने की। झूठ जीना तो आसान है, सच को कहना ही नहीं एक प्रामाणिक साहित्‍य के रूप में साहित्‍यजगत् को अर्पण करना। पिछले 49 वर्षों को 49 कविताओं में समेट कर उन्‍होंने नागफनी के फूलों की भेंट दी है साहित्‍य जगत को। इस सराहनीय रचनाधर्मिता के लिए सर्वहाराजी को साधुवाद।

सर्वहारा जी का यह संग्रह अन्‍य कवियों की कपोल कल्‍पनाओं से भरे दृश्‍यों को उकेरती पुस्‍तकों के मध्‍य मरु में बसाये नखलिस्‍तान (मरु उद्यान) की तरह हैं। अपने अस्तित्‍व को जैसे हथेली पर रख कर मरु की तपती रेत में चलने का हठाग्रह रखा है उन्‍होंने, लेकिन ऐसे निशान छोड़े हैं कि हो न हो शीघ्र ही जीवन का संदेश देती रचनाओं का और एक गुलदस्‍ता फि‍र पाठकों के समक्ष होगा।

बोधि प्रकाशन के सजाये सुंदर कलेवर के साथ यह पुस्‍तक स्‍वान्‍त: सुखाय रचना संसार के मुनि सर्वहाराजी को एक आत्‍मसंतोष प्रदान करेगी और पाठकों को पढ़ने का आग्रह करेगी कि कैसे कवि स्‍वयं के बारे निष्‍कपट, सत्‍य और केवल सत्‍य को उजागर कर सकता है....।

शुभेच्‍छु।

डा0 गोपाल कृष्‍ण भट्ट ‘आकुल’