21 अप्रैल 2017

मेरी धरा तकदीर है

(गीतिका)
छंद- हरिगीतिका.
पदांत- है
समांत- ईर
मापनी- 2212 2212 2212 2212 


मेरा वतन मेरा चमन, मेरी धरा तकदीर है.
फहरा रहा है ध्‍वज तिरंगा सह रहा हर पीर है.

सागर झुलाये पालना, पंखा झले संदल पवन,
दिन रात सीमा पर त्रिबल, से शोभती प्राचीर है.

दायें खड़े मरुधर यहाँ, जिसने सहे ब्रह्मास्त्र भी,
गंगो-जमन-अंत:सलिल, संगम सुहाना तीर है.

है ग्रंथ गीता वेद की, भाषा यहाँ गौरव बनी,
शिक्षा यहाँ पहुँची शिखर, जो आज भी अकसीर है.

‘आकुल’ यहाँ पर भाग्य से, है जन्म मुझको जो मिला,
मैं धन्य हूँ, इस देश में, इक स्वर्ग सा कश्मीर है.

17 अप्रैल 2017

मत कर नारी का अपमान

(गीतिका)
छंद- आल्‍ह
मात्रा संयोजन- 16 // 15
[विधान-16 (चौपाई अर्धाली) + 15(चौपई). अर्धाली का अंत
गुरु/वाचिक से तथा चौपई का अंत गुरु-लघु (2-1) से]

नारी
*****
घर की यह आधारशिला है, नारी का मत कर अपमान.
इससे घर संसार मिला है, इसका हर-दम कर सम्मान.

ममता, धीरज, सेवा की है, यह मिसाल दुनिया में एक ,
नारी में माँ सर्वोपरि है, जो होती घर पर बलिदान.

जननी जन्मभूमि है अपनी, धरती नारी का प्रतिरूप,
लिए सृष्टि की भेंट अनूठी, सहती है वह हर तूफान

दुराचार, हिंसा उत्पीड़न, क्यों समाज है नहीं सचेत,
क्‍यों नर ने नारी के तन पर, दिये व्य‍था के अमिट निशान.

‘आकुल’ नारी ने न कभी भी, ललकारा नर का वर्चस्व,
जिस दिन अबला बला बनेगी, होगा नर भी लहूलुहान

14 अप्रैल 2017

छंद श्री सम्‍मान

फेसबुक साहित्‍य समूह 'मुक्‍तक लोक' का मुक्‍तक लोक तरंगिनी छंद समारोह 148 में ''छंद श्री'' सम्‍मान से सम्‍मानित किया गया. वह छंद (रोला छंद) जिस पर रचना को सम्‍मान मिला, ''रोला छंद गीतिका'' यहाँ प्रस्‍तुत है-


गीतिका
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प्रदत्‍त छंद- रोला (सम मात्रिक) ‘छंद श्री’ के लिए रचना

मुक्तक-लोक-तरंगिनी छंद समीक्षा समारोह<>10.04.2017
मापनी 11 // 13 चरणांत में गुरु/वाचिक
443 या 3323 // 32332 या 3244
पदांत- मौन रहेंगे
समांत- एँगे

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जीवन है विषकूट, पियेंगे मौन रहेंगे.
घात और प्रतिघात, सहेंगे मौन रहेंगे.

कलियुग के अवसाद, ग्रहण में इस जगती को,
और धधकता देख, जलेंगे मौन रहेंगे.

हम जनपथ की राह, बिलखते लोकतंत्र में,
जन-जन का बलिदान, करेंगे मौन रहेंगे.

लालच, मत्सर भूत, नाचता जिनके सिर पर
दुर्योधन हर बार, पलेंगे मौन रहेंगे.

काक-बया का बैर, छछूँदर-साँप विवशता,
शर शैया पर भीष्म, जिएँगे मौन रहेंगे.

छद्म, द्यूत, बल, घात, चाल हो शकुनी जैसी
अवसर पाते दाँव, चलेंगे मौन रहेंगे.

लोकतंत्र में भ्रष्ट, बिना कब चलता शासन,
भ्रष्टाचारी और, बढ़ेंगे मौन रहेंगे.

12 अप्रैल 2017

पाँच कुंडलिया छंद



कुण्‍डलिया  छंद विधान-
प्रथम पंक्ति के दो चरण व द्वितीय पंक्ति के दो चरण दोहा- 13 (विषम)//11 (सम)
तृतीय, चतुर्थ, पंचम व छठा पंक्ति के दो-दो चरण रोला- 11 (विषम)//13 (सम)
मात्राओं का स्‍वरूप इस प्रकार हो-
दोहा- विषम // सम - 3, 3, 2, 3, 2 या 4, 4, 3, 2 //  4, 4, 3 या 3, 3, 2, 3 
रोला में विषम//सम -   4, 4, 3 या 3, 3, 2, 3  // 3, 2, 4, 4 या 3, 2, 3, 3, 2

1
मात-पिता-गुरु-राष्‍ट्र ही, जीवन का आधा.
पथ प्रशस्‍त करते यही, है इनसे संसार. 
है इनसे संसार, सफलता चरण चूमती. 
मिलता मान अप र, विजयश्रीसंग घूमती.  
इन्‍हें मान आदर्श, कार्य को जो करते शुरु ,
डिगते नहीं कदापि, धन्‍य वे मात पिता गुरु.
2 
कर्मनिष्‍ठ का कर्म से, होता है उत्‍थान.
अकर्मण्‍य के भाग्‍य में, सोता अभ्‍युत्‍थान.
सोता अभ्‍युत्‍थान, नहीं मंजिल को छूते.
भाग्‍य और दुर्भाग्‍य, कर्म के ही बलबूते.
होता है सम्‍मान, यथा घर में वरिष्‍ठ का.
दिलवाता सम्‍मान, कर्म ही कर्मनिष्‍ठ का. 
3 
धर्म-कर्म बिन जीव का, जीवन पतन समान.
जैसे गुरु बिन ज्ञान का, मोल मिले नहिं मान.
मोल मिले नहिं मान, चोर चाहे दे सोना.
चोरी का लो माल, चैन घर का है खोना.
आँचल बिन अब शीश, आँख भी आज शर्म बिन. 
शायद जीवन मूल्‍य, खो गये धर्म-कर्म बिन.
 4 
धर्म-कर्म बिन जी रहे, जीवन स्‍वर्ग समान.
अनपढ़ व नादान को, मिलता अब सम्‍मान.
मिलता अब सम्‍मान, चोर ला के दे सोना.
चोरी का लो माल, चैन से घर में सोना.
आँचल बिन अब शीश, नार भी आज शर्म बिन,  
बदले जीवन मूल्‍य, कदाचित् धर्म-कर्म बिन.
 5 
जीवन में भोजन मिले, रहने को हो ठौर,
फिर चिंता संसार की,  कोई भी हो दौर,
कोई भी हो दौर, राह कितनी कठोर हो.
जीवन में हो ध्‍येय, नहीं वह कामचोर हो.
कह आकुल कविराय, बने खलकर्मी क्‍यों जन. 
रहने को हो ठौर, मिले जीवन में भोजन.

8 अप्रैल 2017

चार दोहा मुक्‍तक

( दोहा का स्‍वरूप  13 // 11 अंत में s। में आवश्‍यक और पदांत तुकान्‍त हो)
मापनी 4432या 33232 // 443 या 3323) 

1 
सोने को धरती मिले, यायावर हो ढंग,
इतना ही चाहूँ वसन, ढकने को बस अंग.
बनूँ कभी न अशक्‍त प्रभु, देना इतना अन्‍न,
तेरे गुण गाता रहूँ, देना बस सत्‍संग, 
2 
क्‍या ले जाना है प्रभू, आया खाली हाथ.
तेने भेजा है यहाँ, तू ही मेरा नाथ,
चाह नहीं धन धान्‍य की, रहूँ सदा नि:स्‍वार्थ,
काम सभी के आ सकूँ, देना मेरा साथ. 
3
अनाचार करता वही, जो रहता स्‍वच्‍छन्द.     
खुश रहता वह सर्वदा, जो रहता पाबन्‍द.
समय संग चलता नहीं, वो पिछड़ा दिन-रात,
धोखा खाता और भी, हो न चाक-चौबंद. 
4 
दलदल में पलता कमल, होता इक सदबर्ग   
अपना अपना गुण रखें, सबका अपना स्‍वर्ग
क्‍या पानीफल नारियल, क्‍या बदाम अखरोट,
चमत्कार ऐसे कई, रखे सहेज निसर्ग.

6 अप्रैल 2017

भोजन

दोहा छंद गीतिका
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पदांत- .......आद (याद, प्रसाद, विवाद आदि).
समांत- xxx
मापनी- 33232 // 443.

भोजन से पहले सदा, प्रभु को करिए याद.
जीवन में मिलता नहीं, इससे बड़ा प्रसाद.
दाल-भात दलिया मिले, चाहे छप्पन भोग,
ग्रहण प्रेम से कीजिए, देखें कभी न स्वाद.
साथ बैठ परिवार के, ग्रहण करें रख प्रीति,
नहीं निरर्थक कीजिए, भोजन बीच विवाद.
कण कण में भगवान हैं , कण कण करें न व्यर्थ,
कण कण भोजन के लिए, हों कृतज्ञ प्रभुपाद.
निर्धन की बस चाहना, भूखा कभी न सोय,
भोजन वसन निवास ही, ‘आकुल’ है जनवाद.

4 अप्रैल 2017

भारतवर्ष महान्

छंद - सरसी (सम मात्रिक )
शिल्प विधान-
(सरसी छंद चौपाई की अर्धाली +दोहे का सम चरण मिलकर बनता है ।)   

मात्रिक भार - 16 , 11 = 27 (16 पर यति और अंत में s। जरूरी.)



गीत

उन्‍नत भाल हिमालय सुरसिर, गंगा जिसकी आन.
चहूँ-दिशा पहुँची है मेरे, भारत की पहचान.

शांति-दूत है बना तिरंगा, देता है संज्ञान.
चक्र सुदर्शन सा लहराये, करता है गुणगान.

वेद पुराण उपनिषद् गीता, जन गण मन सा गान.
न्‍याय और आतिथ्‍य हमारे, भारत के परिधान.

शून्‍य, ध्‍यान, संगीत, योग इस, धरती के वरदान.
अवतारों ने जन्‍म लिया वे, कहलाये भगवान

अद्वितीय है, अजेय अनूठा भारतवर्ष महान्
ऐसे भारत को ‘आकुल’ का, शत-शत बार प्रणाम.