12 अप्रैल 2017

पाँच कुंडलिया छंद



कुण्‍डलिया  छंद विधान-
प्रथम पंक्ति के दो चरण व द्वितीय पंक्ति के दो चरण दोहा- 13 (विषम)//11 (सम)
तृतीय, चतुर्थ, पंचम व छठा पंक्ति के दो-दो चरण रोला- 11 (विषम)//13 (सम)
मात्राओं का स्‍वरूप इस प्रकार हो-
दोहा- विषम // सम - 3, 3, 2, 3, 2 या 4, 4, 3, 2 //  4, 4, 3 या 3, 3, 2, 3 
रोला में विषम//सम -   4, 4, 3 या 3, 3, 2, 3  // 3, 2, 4, 4 या 3, 2, 3, 3, 2

1
मात-पिता-गुरु-राष्‍ट्र ही, जीवन का आधा.
पथ प्रशस्‍त करते यही, है इनसे संसार. 
है इनसे संसार, सफलता चरण चूमती. 
मिलता मान अप र, विजयश्रीसंग घूमती.  
इन्‍हें मान आदर्श, कार्य को जो करते शुरु ,
डिगते नहीं कदापि, धन्‍य वे मात पिता गुरु.
2 
कर्मनिष्‍ठ का कर्म से, होता है उत्‍थान.
अकर्मण्‍य के भाग्‍य में, सोता अभ्‍युत्‍थान.
सोता अभ्‍युत्‍थान, नहीं मंजिल को छूते.
भाग्‍य और दुर्भाग्‍य, कर्म के ही बलबूते.
होता है सम्‍मान, यथा घर में वरिष्‍ठ का.
दिलवाता सम्‍मान, कर्म ही कर्मनिष्‍ठ का. 
3 
धर्म-कर्म बिन जीव का, जीवन पतन समान.
जैसे गुरु बिन ज्ञान का, मोल मिले नहिं मान.
मोल मिले नहिं मान, चोर चाहे दे सोना.
चोरी का लो माल, चैन घर का है खोना.
आँचल बिन अब शीश, आँख भी आज शर्म बिन. 
शायद जीवन मूल्‍य, खो गये धर्म-कर्म बिन.
 4 
धर्म-कर्म बिन जी रहे, जीवन स्‍वर्ग समान.
अनपढ़ व नादान को, मिलता अब सम्‍मान.
मिलता अब सम्‍मान, चोर ला के दे सोना.
चोरी का लो माल, चैन से घर में सोना.
आँचल बिन अब शीश, नार भी आज शर्म बिन,  
बदले जीवन मूल्‍य, कदाचित् धर्म-कर्म बिन.
 5 
जीवन में भोजन मिले, रहने को हो ठौर,
फिर चिंता संसार की,  कोई भी हो दौर,
कोई भी हो दौर, राह कितनी कठोर हो.
जीवन में हो ध्‍येय, नहीं वह कामचोर हो.
कह आकुल कविराय, बने खलकर्मी क्‍यों जन. 
रहने को हो ठौर, मिले जीवन में भोजन.

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें