9 जनवरी 2018

किसान लिखता नित एक कथा श्रमदान की (गीतिका)

छंद- माधवी मरहट्ठा
शिल्प विधान- 16, 13 (चौपाई+दोहे का विषम चरण). अंत 212 आवश्‍यक है, तभी दोहे का विषम चरण बनता है 

पदांत- की
समांत- आन


करता है सेवा नित अपने, खेत और खलिहान की.
चाहे तन पर कपड़े जर्जर, नहीं फिक्र परिधान की.

लहराती फसलों पर श्रम का, खूब लगाता दाँव है,
चाहत बस मिल जाए कीमत, घर भर के मुस्कान की.

मिट्टी ही सोना चाँदी है, मर्यादा घर बार है,
उछले पगड़ी कभी न जग में, चिंता रहती मान की.

हैं इतिहास लिखे वीरों ने, माटी पर बलिदान के,
वैसे ही किसान लिखता नित, एक कथा श्रमदान की.

धरा शोभती हरियाली से, रोती बाढ़ अकाल से,
कृषि भूमि पर हो न अतिक्रमण, रहे सदैव किसान की.

कितनी उपनिवेशिकाएँ हैं, बनी हुई कृषि भूमि पर
कुछ किसान भी हैं दोषी जो, बेचेंं पगड़ी आन की.

हर किसान की थाती धरती, झाँसे में न कभी फँसे,
धरतीपुत्र है' कभी न माँ पर, पड़े दृष्टि शैतान की.

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