22 मार्च 2018

पाँच मुक्‍तक

1. मुक्‍तक
उषा काल में संवत्‍सर के, सतरंगी रँग दहक उठे.
ऋतु बाहें फैलाती केसर, भी पलाश सँग महक उठे.
अब तुषार भी माँग अलविदा, चला दूसरे देश कहीं,
अँगड़ाई ले मधुबन की कलियों के अँग अँग चहक उठे.   

2. मुक्‍तक
कौन कहता है कि काँटों में फूल उगते नहीं हैं.
कौन कहता है कि देवों ने कष्‍ट भुगते नहीं हैं.
सच है सोते नहीं चींटी, सर्प, पर यह भी है सच
चकोर खाते न आग हंस मोती चुगते नहीं है.


3. मुक्‍तक
कैसी भी जीवनचर्या से हम अधुनातन हुए सभी.
जीवन शैली के विकसित साधन संसाधन हुए सभी.
बढ़े जागरण, बढ़ी आस्‍था, बढ़ी दोस्‍ती दुनिया में,
बढ़ा प्रेम ईश्‍वर से तब ही मन वृंदावन हुए सभी.

4. मुक्‍तक
घर का हर कर्तव्‍य निभाते, मिल जाती अकसर नारी.
क्‍या समाज क्‍या देश आजकल आगे रहती हर नारी.
किसी मोरचे पर नारी को, कभी न कम आँके मानव ,
अब तो दुनिया को मुट्ठी में करने को तत्पर नारी.


5. मुक्‍तक
रूप प्रकृति प्रदत्‍त है इसका, जो सदैव रखते हैं ध्‍यान.
जड़ी-बूटियों, अंगराग सबका भी जो रखते हैं  ज्ञान.
चमकेंगे ताउम्र सभी नैसर्गिक रूप और लावण्‍य,
तन को जो शोभे वह ही तो पहने जाते हैं परिधान

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