मापनी-
221 2122 221 2122
पदांत-
रही है
समांत-
आ
परियों
के’ देश से क्या धरती पे’ आ रही है
इतना
बता ए’ तितली हमको तू’ भा रही है
तेरे
हैं’ पंख इतने सुंदर व रँग बिरंगे,
इठलाती’
नाचती तू क्या गीत गा रही है.
हर
फूल से लगा क्यों रिश्ता ते’रा पुराना,
फूलों
से’ अंग लग कर गुलशन से’ जा रही है.
है
कौन वो चितेरा, जिसने तुझे सजाया ,
उसकी
कला गजब तेरे तन पे’ ढा रही है;
जब
सुन चुकी पलट के बोली वो’ मुस्कुरा कर,
सौग़ात
ये प्रकृति की धरती से पा रही है.
संदेश
मैं प्रकृति का आई यहाँ बताने,
मानव की’ बेरुखी ही धरती को’ खा रही है.
खो
जाउँगी न भू पर यदि स्वच्छता रहेगी,
इस डर
से तितलियों में मायूसी’ छा रही है.