25 मार्च 2024

मने पर्व दे चलें बधाई

छेड़ छाड़ भी सबको भाई
लाख दुहाई दें चाहे वे
रँगना तो है सबको भाई।
रंग लगाएँँ मीठा खाएँ
मने पर्व दे चलें बधाई।   

मौसम ने ली है अँगड़ाई
तन मन में उमंग है छाई
सतरंगी रँग देना चाहे
सूखे रँग से हो रंगाई
पानी से जो खेलें बेरँग
होते वही निपट हरजाई।

रँग से जीवन में रंगीनी
खुशबू जिसमें भीनी भीनी
खुशियों का जिसमें है केसर
जैसे मधु में हो ना चीनी
मने मधूत्सव गाते रसिया
होली की मस्‍ती 
गोपी राधा गोप कन्हाई।

त्योहारों का मोह न छूटे
मनुहारों से कभी न रूठे
सबसे पहले उन्हें बचाओ
जबरन कोई भाग्य न फूटे
जो करते काला मुँह बचना
होली ने तो प्रीत बढ़ाई।

होली में अभिसार न हो बस
हमजोली हद पार न हो बस
जीवन में मधुमास खिलेगा
आभारी हो भार न हो बस
ये वो जिनने द्वेष द्रोह की
पहले होली नहीं जलाई।

प्रेम और सौहार्द न बातें
पर्वोत्सव तो हैं सौगातें
जिसने ढाई आखर सीख
करते कभी नहीं वे घातें
जीवन को रंगीन बनाने
मने पर्व दे चलें बधाई।

--00--



24 मार्च 2024

सजने लगा है, रंग का, बाजार भी

गीतिका
छंद- मधुवल्लरी (मापनीयुक्त मात्रिक)
मापनी- 2212 2212 2212
पदान्त- भी
समान्त- आर
सजने लगा है, रंग का, बाजार भी।
पिचकारियों की, आज है, भरमार भी।
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रंगोलियाँ, बनने लगीं, दर आँगने,
होने लगे हैं, प्रीत में, मनुहार भी।
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उपवन सभी, लादे हुए हैं, बोर अब
भँवरे कई, करने लगे, गुंजार भी।
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चलने लगे, होली-मिलन के, दौर अब,
हर ओर है, उल्लास, पारावार भी।
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होली नहीं है, बाल-गोपालों बिना,
बच्चों सहित आए सभी, परिवार भी
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अपनी पसंदी, रंग अरु पिचकारियाँ,
झूमें लिए, बच्चे करें, किलकार भी।
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ले के चले, गेहूँ-चने की, बालियाँ,
नमकीन के, सँग में, मिठाई चार भी।
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होली जलेगी, और होगी, जीत फिर,
सौहार्द के सँग सत्य की इस बार भी।
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आओ मनाएँ, रँग लगा, दें इक मिसाल,
त्योहार आते, संग लाते, प्यार भी।
-0- 

22 मार्च 2024

होली है होली है भाई यह ब्रज की होली है

 गीत

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होली है होली है भाई यह ब्रज की होली है।
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धूम मची है धूम मची है होली है होली है।
बरसाने में रार मची है होली है होली है।
सभी जगह होरी मनती पर बरसाने में होरा,
नंदगाँव बरसाने जैसी होली ही होली है।
होली है होली है भाई यह ब्रज की होली है।।1।।
***
लड्डू लूटो, लट्ठ मार होली में तुम भी जाओ,
नंदगाँव से बरसाने तक होली में रँग जाओ,
मथुरा वृन्दावन की होली के क्या कहने भाई,
बन्दर भी यहाँ होली खेलें, उनसे भी रँग जाओ।
पर उनके ना रंग डालना उनकी भी टोली है।
होली है होली है भाई यह ब्रज की होली है।।2।।
***
शहनाई ढफ झाँझ मंजीरे चिमटा ढोल मृदंगा ।
देखें दूर से लट्ठ मार होली में ना लें पंगा।
नंदगाँव के छोरे आएँ छोरी बरसाने की,
लट्ठ मार के कृत्रिम युद्ध को ही कहते हुड़दंगा।
इतना जोश गालियाँ दें फिर भी मीठी बोली है।
होली है होली है भाई यह ब्रज की होली है।।3।।
***
दिन भर होली खेलें होली साँझ ढले रुकते हैं।
राधे रानी के मंदिर जा सभी गले मिलते हैं।
तकरार रार भूल कर आपस में देते हैं लड्डू,
भाँग, ठँडाई, रबड़ी के कुल्हड भी कम पड़ते हैं।
तब निहारना निश्छल, हर गोपी कितनी भोली है।
होली है होली है भाई, यह ब्रज की होली है।।4।
-आकुल, कोटा (मुक्तक-लोक)

21 मार्च 2024

ऐ कविता तू अब खुश हो जा

(विश्‍व कविता दिवस पर)
गीतिका
छंद- चौपाई 
पदांत- 0
समांत- ओजा 

ऐ कविता तू अब खुश हो जा.
माँग न मन्‍नत  मत रख रोजा.

तू ही मिली चले जिस पथ पर
जिसने तुझको जब भी खोजा.

तेरा तो अपना साहिल है
अन्‍य विधा का अपना मौजा

तूने उनको दिये उजाले
तू अब भी है  शमे-फरोज़ा

नारी रूप दिया निसर्ग ने
अब तू स्‍वर्ग सरीखी हो जा

मुक्तछंद में गाते तुझको
लोकगीत लेकर अलगोजा.

तुझसे मंच सभी ने लूटा,
और भरा है अपना गोजा.


20 मार्च 2024

जीत ले दिल कुछ समयसर कर्म कर के मित्र

गीतिका
छंद- रूपमाला
मापनी- 2122 2122 2122 21
पदान्‍त- कर के मित्र
समान्‍त- अर्म  

जीत ले दिल कुछ समयसर कर्म कर के मित्र।
कुछ कमा ले पुण्‍य खुलकर धर्म कर के मित्र।

कर्म ही है जो बनाएगा सदा भवितव्‍य,
धर्मपथ पर चल न डिगना शर्म कर के मित्र।

पथ निखारें और पहुँचाएँ शिखर पर शीघ्र,
काम कर निश्‍छल स्‍वयं को नर्म कर के मित्र।

रत्‍न से लोहा न कमतर दृढ़ रहे हर हाल,
रूप कैसा भी बना लो गर्म कर के मित्र।

भेदना हो गढ़ किसी का ढूँढना कुछ मर्म,
घाव को हैं काटते मृतचर्म कर के मित्र।
        

19 मार्च 2024

आँख खुली जो देखा उसको असल समझता बचपन

गीत
आँख खुली जो देखा उसको, असल समझता बचपन। 

मात पिता भाई बहिनों के,
जैसा सीखा रहना,
तन ढकने को उसके हिस्‍से
का जो ही था पहना,
काम सभी करना है जो भी
हो आदेश मिले तब, 
पहली सीढ़ी यही समझने
की सबका था कहना,
घर चाहे हो घास-फूस का, महल समझता बचपन।

रिश्‍ते नाते अपने और
परायों को भी जाना, 
ऊँच-नीच, निर्धन सेठों की
कद-काठी को जाना, 
अच्‍छे-बुरे  दोस्‍त–दुश्‍मन की
संगत से दुनिया को,
जब से देखा नहीं समझ में
आया वह पैमाना
माँ की ममता अपनापन ही, सकल समझता बचपन।

समझा आज कि क्‍यों संस्‍कारों
का महत्‍व होता है,
सीखा, गढ़ा, बनाया जाना
घर गुरुत्‍व होता है,
परिपाटी के छद्म छलावे
यूँ ही नहीं बने सब,
इनसे ही भविष्‍य तय होता 
जो प्रभुत्‍व होता है,
यही सत्‍य होगा जीवन का, अटल समझता बचपन।

बचपन को जिस साँचे ढाला
ढलता रहता था वह,
कहीं जुगाड़ से कहीं अभाव में
पलता रहता था वह,
घर की देहरी लाँघी जब जब
भटका था वह अकसर,
स्‍वप्‍न भव्‍य दुनिया के देखा
करता रहता था वह,
तब पहाड़ सा जीवन था पर, सहल समझता बचपन।  

18 मार्च 2024

जीते जी जो कर गुजर जाते वे अमर हैं

गीतिका
छंद-  मदन ललिता (वर्णिक छन्‍द)
विधान- प्रति चरण 16 वणी्य वर्णवृत्‍त
मापनी- 222 211 111 222 111 2 
गण विधान- मगण भगण नगण मगण नगण गुरु
पदान्‍त- वे अमर हैं
समान्‍त- आते

जीतेजी जो कर गुजर जाते वे अमर हैं
आतंकी पे जब कहर ढाते वे अमर हैं   

वीरों की जो हर इक कहानी देख पढ़ ही,
जाँबाजी में प्रखर बन पाते वे अमर हैं।

जो जीये जीवन भर गरीबों के बन सखा,
दीनों पे जो रहमत दिखाते वे अमर हैं।

वे सारे सिद्ध प्रवण मसीहा हैं कृतमुखी,
छूते ही ज्‍यों अमिय बरसाते हैं वे अमर हैं

जी ऐसे ‘आकुल’ सफल हो आना जगत् में
दे जाते जो परमसुख छाते वे अमर हैं।