1-
रुद्र क्रुद्ध विकराल सा, प्रबल घनन संपात।।
प्रबल घनन संपात, हुई विचलित तब गंगा।
छोड़ दया अनुराग, बिखर कर बनी त्रिभंगा।।
कह ‘आकुल’ कविराय, मौन था अलख निरंजन।
देख रहा था शांत, प्रकृति का प्रलय प्रभंजन।।
2-
वर्षा ने ढाया कहर, अब तो सँभलें लोग।
कर निसर्ग की दुर्दशा, कष्ट रहे हैं भोग।।
कष्ट रहे हैं भोग, बने दिग्मूढ़ अचल सब।
कैसा यह दुर्भाग्य, अचानक गया बदल सब।।
कह ‘आकुल’ कविराय, मदद से जनजन हर्षा।
दे गई यक्ष प्रश्न, कहर बरपाती वर्षा।।
दे गई यक्ष प्रश्न, कहर बरपाती वर्षा।।
केदारनाथ धाम पर हुई विभीषिका पर समर्पित कुंडलिया छंद
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