22 फ़रवरी 2022

जीवन इक सोता है, कर्मों को धोता है

गीतिका

छंद- विद्युल्‍लेखा (वाचिक) 

मापनी- 222 222

पदांत- है

समांत- ओता


जीवन इक, सोता है। 

कर्मों को, धोता है ।1।

जो लेता, है दिल पर, 

देखा ही, रोता है।2।

जो सेता, दु:खों को, 

पाता है, खोता है ।3।

तरसा है, फूलों को, 

काँटे जो, बोता है।4।

अकसर हर, निष्क्रिय ही,  

अवसर को, खोता है।5।

मन जैसा, हो हर-दम, 

ऐसा कब, होता है।6।

जीवन में, कर गुजरो, 

हर क्षण इक, न्योता है।7।

21 फ़रवरी 2022

पीछे न देखें वीर

 गीतिका

छंद- तोमर

मापनी- 2212 221

अपदांत, समांत- ईर

पीछे न देखें वीर ।

आपा न खोते धीर ।1।

कर्मठ जुझारू लोग,

बनते रहे हैं मीर ।2।

राजा बने हैं रंक,

लुटती रहीं जागीर ।3।

होता समय का फेर,

कहते कई तकदीर ।4।

अकसर सभी वाचाल

फैंकें हवा में तीर ।5।

औषधि जरूरी क्‍योंकि,

हरती रही  है पीर ।6।

करता नहीं जो अर्ज,

बनता न दावागीर ।7।

भरता नहीं जो कर्ज,

फटता उसी का चीर ।8।

‘आकुल’ कहे जो बात

 होती सदा अकसीर ।9।

18 फ़रवरी 2022

काक महिमा - 2 (दोहे)

1

कोयल का घर फोड़ कर, घर घर ढूँढ़े प्रीत । 

अब तक तो कोई नहीं, मिला काक को मीत ।।

2

बड़ बड़ बातें बोल कर, काक घटाते मान ।

चाहे चतुर सुजान हैं, नहीं मिले सम्‍मान ।।

3

दशाह घाट श्‍मशान या, श्राद्ध पक्ष में श्रेय ।।

मिले काकश्री को सदा, समझो उसे न हेय ।

4

काक चेष्‍टा भले ही, जग में हुई बखान ।

भूला जग अब तक नहीं, सीता का अपमान ।।

5

गो-ब्राह्मण बिन कनागत, दशा(ह) घाट बिन काक ।

सद्गति बिन उत्‍तर करम, जीवन ना बिन नाक ।।

6

कागा महिमा जान लो, पंडित काकभुशुंड ।

पर जयंत को भी मिला, एक आँख का दंड ।।

7

कागा की परिवार से, कभी न देखी प्रीति ।

औघड़ सा घूमे सदा, कौन सिखाए रीति ।।

8

कोयल बुलबुल कब लड़ें, करें न अतिक्रम, क्‍लेश ।

कागा का भी घर बसे, हो यदि चेष्‍टा लेश ।।    

9

मादा कागा दुखी है, कागा की मति देख,

नहीं चाह कर संग में, रहे भाग्‍य के लेख ।।

10

कहीं न क्‍यों पिक जा छिपे, लेता काक निकाल।

ऐयारी में काक की, कोई नहीं मिसाल ।

--00--

17 फ़रवरी 2022

करना मत मनमानी

गीतिका 
छंद- विद्युल्‍लेखा (वाचिक)
मापनी- 222 222 222 222 
पदांत- 0 
समांत- आनी
 
गतिरोधों, अवरोधों, की बातें बेमानी । 
सीमा पर तत्‍पर हर, दम रहते सेनानी । 

अनुशासन छूटेगा, आएँगी बाधाएँ,
झूठा ही हकलाता, सच का ना है सानी ।

पहरा हो, पग पग पर, खतरा भी, हो सर पर,
चोरों को, कब ताले, करते जो, है ठानी ।

क्‍या मिट्टी क्‍या सोना, क्‍या हीरा क्‍या पन्‍ना,
घर के भेदी से तो, लंका भी लुट जानी ।

इज्‍जत पाले सच्‍चा, खूँटी टाँगे झूठा,
होती है इस जग में, सबसे ही नादानी ।  

कण कण में बिखरे हैं, बलिदानों के किस्‍से, 

माँ पुजती है पन्‍ना, हाड़ी, लक्ष्‍मी रानी । 

‘आकुल’ अब कर गुजरो, चाहो यदि करना तो,
अवरोधों से डर कर,  करना मत मनमानी । 


16 फ़रवरी 2022

चाह यही सखि देखूँ पी की छवि दर्पन में

 गीत 

चाह नहीं है देखूँ अपनी छवि दर्पन में।
चाह यही सखि देखूँ पी की छवि दर्पन में।

बस जाए मेरे मन
मोहिनी सूरत उनकी

छाप तिलक सी छपे
सोहनी मूरत उनकी

सागर सी गहरी
आखों में डूब न जाऊँ

कैसे भी छा जाए उनकी छवि तन मन में।
चाह यही सखि देखूँ..........

आँख मिलाऊँ रोम रोम
पुलकित हो जाते

कहना चाहूँ कुछ का कुछ
ये लब कह जाते

रह रह कर स्पर्श शरारत
सा लगता है

देख रही हूँ चंचलता उनकी नैनन में।
चाह यही सखि देखूँ..........

लय बढ़ती जाती धड़कन की
ना जाने क्यों

गहराता स्पर्श न वश में
तन जाने क्यों

ये शृंगार चले यूँ ही
अब रैन न बीते,

हो ऐसा मढ़ जाए अब छवि अंतर्मन में ।
चाह यही सखि देखूँ..........

कर्मों के न्‍योते हैं

 गीतिका

छंद- विद्युल्‍लेखा (वार्णिक)

मापनी- 222 222 (मगण मगण)  

पदांत- हैं, समांत- ओते

कर्मों के न्‍योते हैं ।

पाते हैं खोते हैं ।

जो आए संसारी,

कर्मों को बोते हैं

कोताही के मारे,

बोझा ही ढोते हैं।

रूखी सूखी छोड़े,

भूखे ही सोते हैं

जो दु:खों को सेते,

देखे ही रोते हैं ।

पापी भ्रष्‍टाचारी,

खाते ही गोते हैं,

गंगा में जा सारे,

पापों को धोते हैं।

जीने दें, जीएँ भी,

न्यारे ही होते हैं ।

रेखाएँ भाग्‍यों की

हाथों में पोते हैं