'चलो प्रेम का दूर क्षितिज तक पहुँचाएँँ सन्‍देश' (गीतिका शतक) का समीक्षात्‍मक पुरोवाक्

 विश्‍ववाणी हिंदी ने संस्कृत और देशज भाषाओं से विरासत में मिली समृद्ध काव्य परंपरा की नींव पर शोधजनित नव परंपराओं की इमारत का निर्माण कर कंगूरों से सज्जित करने में देर नहीं की। आरम्भ में अँगरेजी, उर्दू, बांग्ला आदि  भाषाओँ में साहित्य विधाओं से प्रेरित होकर आरम्भ हुई विविध विधायी लेखन-यात्रा शीघ्र ही अपने रंग और संस्कार से जुड़कर स्वतंत्र पथ पर चल पड़ी। सामयिक सामाजिक परिस्थिति, देश-काल और परिवेश रचनाकारों से जनोपयोगी शब्दावली और दिशा-दर्शन की माँग कर रहा है। फलत: अन्य विधाओं के साथ काव्य-रचना में भी नवप्रयोग और विस्तार स्वाभाविक है। संस्कृत में द्विपदिक श्लोकों और लचीले अनुष्टुप् छंद को भारतीय देशज भारतीय भाषाओँ के साथ-साथ फारसी-अरबी ने भी ग्रहण किया, किंतु व्याकरणिक सीमाओं और उच्चारणजनित समस्याओं ने उन्हें भिन्न पथ पर आगे बढ़ाया। यवन आक्रमणों में विजेता सैनिकों और पराजित भारतीय श्रमिक-कृषकों को भाषिक भिन्नता के बावजूद पारस्परिक संपर्क करना पड़ा। क्रमश: वणिकों और साहित्यकारों के सम्मिलन ने लश्करी, रेख़्ता और उर्दू के विकास का पथ प्रशस्त किया, जो प्रशासन की भाषा होने के कारण हिन्‍दुस्‍तानियों को सीखनी ही पड़ीं। इसी के समान्तर साहित्य सृजन हुआ।

            जीवन्त भाषाएँ पारस्परिक आदान-प्रदान के बल पर ही समृद्ध होती हैं। संस्कृत-हिंदी-उर्दू के साथ भी यही सत्य है । हिंदी-उर्दू दोनों ने संस्कृत, पाली, प्राकृत, अपभ्रंश  तथा अन्य भारतीय-अभारतीय भाषाओँ  से बहुत कुछ प्राप्त किया और उन्हें दिया है । विविध विद्वान् उर्दू की उत्पत्ति व्यापारिक आदान-प्रदान (मीर अम्मन, १८०१), पाली (शौकत सब्जबारी), ब्रज (मौलाना मुहम्मद हुसैन 'आज़ाद'), पंजाबी (टी. ग्राह्म बेली), सिंधी, फारसी, दक्षिण की द्रविड़ भाषाओँ (सुहैल बुखारी), विविध भाषाओँ के मेल (सैयद इंशा अल्ला खान, १८०२, सर सैयद अहमद खां १८५६), तैमूरी बादशाहों और महलों (अरशद गोरगानी, नसीर हुसैन खान 'ख्याल') से मानते हैं। नवाब सदर यार जंग मौलाना हबीबुर्रहमान खान शेरवानी के अनुसार 'इब्तिदा से आखिर तक हमारी ज़बान का नाम हिंदी रहा, जब वली दकनी (११५० हिजरी) ने मजामीन फारसी की चाशनी हिंदी नज़्म में पैदा की तो ख़ास अदबी और शेरी ज़बान को 'रेख़्ता' कहने लगे। अंग्रेजों द्वारा हिन्दू-मुसलमानों को लड़ाने और विभाजित करने के लिए प्रचलित हो रही मिश्रित भाषा को 'उर्दू' नाम दिया गया। उर्दू की काव्य विधाओं में सर्वाधिक प्रिय शे'र भी संभवत: द्विपदिक संस्कृत श्लोकों से नि:सृत हुए ।

कालांतर में समतुकांती द्विपदी और एक-एक पंक्ति छोड़कर तुक मिलाने की परंपरा का क्रमश: विकास उसी तरह हुआ जैसी वर्तमान में जापानी काव्य विधा हाइकु में समतुकान्त्तता लाने का प्रयास किया जा रहा है। इस प्रयास ने एक विशिष्ट विधा 'ग़ज़ल' को जन्म दिया। ग़ज़ल को अरबी में 'तशीब' या 'क़सीदे' (लघु प्रेमगीत), फ़ारसी में ग़ज़ाला चश्म (मृगनयनी) अर्थात् स्त्रियों से बातचीत मानते हुए 'नाज़ुक ख़याली' या प्रेम से सराबोर काव्य कहा गया। उर्दू उस्तादों के अनुसार यह विधा बचकानी, ग़ालिब के शब्दों में और  'तंग गली' है, जिसमें शायर 'कोल्हू का बैल' होकर तुकबंदी करता रह जाता है। सूफ़ी संतों ने ग़ज़ल के प्रेम को संसारी नहीं, आध्यात्मिक और पारलौकिक माना।

हिन्दी काव्य-विधा 'मुक्तक' में प्रथम दो तथा चौथी पंक्तियाँ समतुकांती, तीसरी भिन्न तुकान्ती किंतु सभी पंक्तियाँ समान पदभार की रचने की प्रथा थी, जबकि 'गीत' में मुखड़ा और अन्तरा दो भाग थे हर अंतरे के बाद मुखड़ा दुहराया जाता था। आरम्भ में मुखड़ा और अन्तरा समान छंद में होते थे। मुक्तक की अंतिम दो पंक्तियों के सदृश्य पंक्तियाँ जोड़ते हुए तथा गीत की तरह हर बार मुखड़े की दो पंक्तियों को दुहराते हुए की गयी रचनाओं  (गज़ालाचश्म से ग़ज़ल, मुक्तक से विकसित मुक्तिका, गीत से उद्भूत गीतिका, बदलाव या बग़ावत प्रधान तेवर लिए कथ्य होने पर तेवरी) के तीन भाग हुए जिन्हें क्रमश: मतला (आरम्भिका, उदयिका), दरमियानी हिस्सा (शे', द्विपदी) तथा मक्ता (अंतिका)  कहा गया। खुसरो और कबीर जैसी समर्थ क़लमों से परवरिश पाकर इस विधा ने हर देश-काल में खुद को बदलते हुए अपनी उपयोगिता और सामर्थ्य सिद्ध की है। 

नीरज, विराट, सागर मीरजापुरी, डॉ. रोहिताश्व अस्थाना आदि ने इस विधा से संबंधित शोध कार्य कर नव प्रयोगों की विवेचना की । हिंदी के छंदों पर आधृत लय-खण्डों से निर्मित छंदों दोहा, सोरठा, रोला, हाइकु, आल्हा, माहिया आदि का प्रयोग कर मैंने तथा कुछ अन्य कवियों ने इस विधा में नव प्रयोग १९९५ से २००० के मध्य किये। प्रोफेसर विश्वंभर शुक्ल तथा डॉ. ओम नीरव ने इस विधा को 'गीतिका' नाम देकर अंतरजाल पर व्यवस्थित रूप से आगे बढ़ाया और नई पीढ़ी को जोड़ा।

इस क्रम में डॉ. गोपाल कृष्ण भट्ट 'आकुल' की गीतिकाएँ नव शिल्प को आगे बढ़ाती हैं। 'चलो प्रेम का दूर क्षितिज तक पहुँचाएँ संदेश' शीर्षक से प्रस्तुत सौ गीतिकाओं के संकलन में आकुल जी ने विविध विषयों और प्रसंगों को लेकर अपनी बात स्पष्टतापूर्वक कहने में सफलता पाई है। यह सर्वमान्य है कि बात सरलता और सरसता सहित कह पाना सर्वाधिक कठिन होता है। आकुल जी 'कठिन' को 'सरल' कर  सके हैं। सहज सम्प्रेषणीयता के निकष पर ये रचनाएँ सौ टका खरी हैं। प्राकृतिक परिवेश, सामाजिक समरसता, मानवीय सहानुभूति, औदार्य और परिवर्तन के पञ्च तत्वों को आत्मार्पित करती ये रचनाएँ 'स्व' को 'सर्व' से संयुक्त कर सकी हैं। आनुप्रासिक आवृत्तियाँ इस विधा की माँग हैं। ज़रा सी चूक  कथ्य, भाव या रस प्रवाह में बाधक हो जाती है किंतु आकुल जी की सजग सचेष्टा ने भावप्रवणता, सम्प्रेषणीयता और सरसता की नर्मदा अबाध गति से प्रवाहित की है।

छंद वैविध्य

            गीतिका का वैशिष्ट्य उसका छंदानुशासन है। आकुल जी नवगीत विधा के सफल हस्ताक्षर है। स्वाभाविक है कि छंद पर उनका अधिकार है। गीतिका के साथ छंद का नामोल्लेख कर उन्होंने नव गीतिकाकारों के लिए छंद पहचनाना और उसकी विशिष्टता को हृदयंगम कर रचना कर सकना आसान किया है। आकुल जी ने प्रचलित, अल्प प्रचलित तथा अप्रचलित तीनों तरह के छंद लिए हैं। छंद वैविध्य आकुल जी की विशेषता है। अरुण, आनंदवर्धक, आल्ह, सार, समानिका, ककुभ, गीतिका, सुमेरु, चामर, चौपई, चौपाई, ताटंक, तोटक, द्वियशोदा, दोहा, पदपादाकुलक, प्रमाणिकाबालाभुजंगप्रयात, मधुमालती, मनोरम, रारायगा, राधिका, रूपमाला, रोला, गंगोदक, लावणी, वाचिक भुजंगप्रयात, विजात, माधुरी, मालिनी, विमोहा, विष्णुपद, शक्ति, सरसी, सुमेरु, सोरठा, माधव-मालती, स्रग्विणी, हरिगीतिका, मंगलवत्‍थु, रूपमाला, कुंडल, पीयूष निर्झर, पीयूष वर्ष, छंदों का प्रयोग उनकी सामर्थ्य का परिचय देता है। कुछ उदाहरण देखें- 

समझता जानवर भी है, जगत् में प्‍यार की भाषा.
उसे लेना न देना है, कि क्‍या संसार की भाषा.  -विधाता छंद
 *
क्या ले कर आया तू जग में, ले जाएगा क्या, 
अपने और पराये सब का, वर्धमान्य बनना.  -विष्णुपद छंद 

भाषा शैली- 

शिक्षा के प्रचार-प्रसार के साथ रचनाकारों का शब्द-भण्डार बढ़ना स्वाभाविक है। आकुल जी जैसे विद्वान् रचनाकार का संस्कृत, हिंदी, उर्दू, अँगरेजी और राजस्थानी के शब्दों से सुपरिचित होना और इन शब्दों को सहजता से प्रयोग करने में समर्थ होना स्वाभाविक है। उनकी रचनाओं में शब्द-वैविध्य देखें-

अ. संस्कृत शब्द: मलयानिल, वांग्मय, ग्राह्य, व्यतिपात, जिगीषा, वर्धमान्य, सैन्यकों, युद्धकों, अस्त्रादि, रंजकों, शमन, दलन, छद्म, द्यूत, श्रीहीन, अकर्मण्य, उच्छिष्ट, हृदयस्थ, जिह्वा, वाक्पटुता, वागीश्वरी, प्रसंज्ञान, शतावधान, संसथापनार्थाय आदि। 

आ. उर्दू शब्द- हमसफ़र, मुश्किलें, बागबाँ, रिश्तों, क़तरा, ख़ुशियाँ, फ़रिश्ते, ग़र्दिशों, ज़ि‍न्‍दगी, मजलिस, क़ातिल, ग़ाफ़ि‍ल, जाहिल, ख़ातिर, बदौलत, आज़मानाआदि। (अरबी, फारसी आदि का विभाजन आवश्यक नहीं।)

इ. देशज या ग्रामीण शब्द: चँदनिया, न्हाना, गार, लंघन, गुलूबंद, बंदर टोपा, दुलाई, सिहाया, ज्योनार, हिरदय, सौं, खिवैया आदि। 

ई. अंग्रेजी शब्द: डाइन-फ्लू (डाइन = भोजन करना), बुफे, मोबाइल आदि। 

इससे एक ख़तरा निजी शैली का विकास न हो पाना है। पुराने रचनाकारों को उनकी भाषा शैली से पहचाना जा सकता है। सूर, खुसरो, कबीर, मीरा, जायसी, रैदास आदि की शैली में समानता और अंतर देख सकना सहज है, किंतु इस काल के रचनाकार शैली की दृष्टि से भिन्नता खो रहे हैं। आकुल जी ने जाने-अनजाने अपनी शैली का वैशिष्ट्य शब्द युग्मों का प्रचुरता से प्रयोग कर स्थापित किया है। शब्द युग्मों के प्रचुर प्रयोग के माध्यम से आकुल जी ने रचनाओं के कथ्य को सरस और सहज ग्राह्य बनने में सफलता पाई है। शब्द युग्मों के अनेक प्रकार उनकी इन रचनाओं में है-  

अ. एक ही शब्द की पुनरावृत्ति: जब-जब, फुला-फुला, डग-डग, डब-डब, धक-धक, युगों-युगों, आदमी-आदमीदिखा-दिखा, रिझा-रिझा, जरा-जरा आदि। 

आ. मानवीय संबंधों से जुड़े शब्द युग्म: मात-पिताऋषियों-मुनियों, तेरा-मेरा, हाथ-पैर, आदि। 

इ. जीव-जंतुओं से बने शब्द युग्म: काक-बया, छछूंदर-साँप, कीट-पतंगे आदि। 

ई. सांस्कृतिक शब्द युग्म: धर्म-संस्कृति, ईद-दीवाली आदि। 

उ. सामाजिक क्रिया-कलापों से बने शब्द युग्म: रीति-रिवाज़, घात-प्रतिघात, हार-जीत, कहना-सुनना, रोते-हँसते, लिखते-पढ़ते, रंग-ढंग, गिरूँ-पडूँ, राग-द्वेषछल-प्रपंच, अमन-चैन, चैन-अमन, चलते-फिरते, आपा-धापी, घटते-बढ़ते, सुख-दुख, दर-दर, तंत्र-मन्त्र, छम-छम, स्वच्छ-निर्मल आदि। 

ऊ. प्रकृति से जुड़े शब्द युग्म: गंगा-यमुना, सावन-भादों, कण-कण, रंग-बिरंगे, छिन्न-भिन्न आदि।  

ए.  अप्रचलित या नवोंवेषित शब्द युग्म: ईन-मीन, कुल-किरीट आदि। 

ऐ. तीन शब्दों से बने शब्द-युग्म: तन-मन-धन, नभ-जल-थल, कोयल-मैना-बुलबुल, वेद-पुराणों-उपनिषदों, चूल्हा-चौका-बर्तन आदि। 

प्रासंगिक सारगर्भित कथ्य:

इस संग्रह की सभी रचनाएँ समसामयिक विषयों पर केन्द्रित हैं। पाठक कथ्य की सहजता और समीपता को आत्मसात करते हुए स्वयमेव उसका हिस्सा बन पाता है।  

अ. राष्ट्रीयता की भावधारा:

बहाओ पसीना वतन के लिए तुम.
सजाओ बग़ीचा चमन के लिए तुम.

सभी हों सुखी एक ऐसा प्रगति-पथ,
बनाओ ख़ुशी का, अमन के लिए तुम.
*
मेरा वतन मेरा चमन, मेरी धरा तक़दीर है.
फहरा रहा है ध्वज तिरंगा, सह रहा हर पीर है.
जोश अब बढ़ने लगा है, सैन्यकों में आज.
रोष भी बढ़ने लगा है युद्धकों में आज.
रणबाँकों के बलिदानों की धरती है भारत माता.
आज़ादी के दीवानों की धरती है भारत माता.
*
गंगा-यमुना के संस्कृति से पोषित है भारत माता.
ऋषि-मुनियों की संतानों की धरती है भारत माता.
आ. भाषा 

हिन्‍दी को घर-घर पहुँचाएँ.
नगर-गाँव-ढाणी पहुँचाएँ.
राष्‍ट्र भाषा बने राष्‍ट्र का मान हो.
गर्व से सिर तने, विश्व का ध्यान हो.  

इ. जनापेक्षा: 

भ्रष्टता के आचरण का अंत हो / 
अभ्युदय की वांछना अत्यंत हो.
** 
घटा कभी, बढ़ा कभी।  
गिरा कभी चढ़ा कभी।। 
**
यहाँ वहाँ कहीं नहीं,  
सुना कभी पढ़ा कभी.
**
मैं बना आदमी. 
तू बना आदमी. 
* 
कौन सी गार से,  
है बना आदमी.
** 
ख़त्म जंगलराज हो अब, चैन-सुख से सब रहें,
राम-राज्य  आए फिर से, राम से गहिए सदा.

ई. नीति:

सूरज से तपने का ले गुण, चंदा से शीतलता लेले.
पेड़ों से तू ले विनम्रता, फूल से कोमलता लेले.
** 
धर्म-कर्म की अलख जगाकर, सर्वमान्य बनना.
तप कर सोना सा बन जा तू, धन्य-धान्य बनना.
**
यश, सुख, मान, नाम, धन, बल से, असामान्य बनना.
** 
लाभ-हानि, जीत-हार, ईतियाँ न पालिए.
काम, क्रोध, लोभ, मोह, भीतियाँ न पालिए.

उ. नव प्रयोग:
नंद घर आ, नंद छाया, जय श्री’ कृष्णा. 
नंदनंदन, चंद आया, जय श्री’ कृष्णा.


ऊ. बालमन चित्रण

बच्चों को वर्षा क्या सारे, मौसम भाते हैं.
इसलिए कि उनको न कभी सुख, दुख तरसाते हैं.


ए. वैश्विकता


न आदमी आदमी लड़ें अब.

न दुश्मनी की पलें जड़ें अब.


ऐ. युगीन विसंगतियाँ


जिंदगी में कुछ कमी है आज क्यों?

आँख में भी कुछ नमी है आज क्यों?

**

क्यों लगे हैं टूटने घर-आँगने?  

बर्फ रिश्तों पे जमी है आज क्यों?


ओ. पर्यावरण


जल, पावक, भूमि हवा नभ का,

बस ध्यान रखे जगजीत सखे.

**

सभी मार्ग, फूलों, वनों से सजे हों,

कभी मत किसी बागबाँ को छलो तुम.

**

'आकुल' यदि मानव जीवन में प्रकृति प्रदूषण को रोके ,

कब होते घर के बँटवारे, मानव के सहयोगी हैं.


औ. सामयिक समस्याएँ:


खून से निर्भया / के सना आदमी.

*

लहसुन आज कभी थी प्याज, अपनी जान लुटाते लोग.

आए फिर पटरी पर गाँव, आरक्षण मनवाते लोग.


अं. प्रकृति चित्रण 

डाल-डाल पर फूल खिले ली, अँगड़ाई कलियों ने,

हर अरण्‍य, वृन्‍दावन नंदन, कानन हुआ वसंती.

**

धरा पर आज पावस ने, हरित चादर बिछाई है.

मुदित कण-कण हवा भी, सर्द हो कर मुसकुराई है.

शब्द प्रयोग: 

आकुल जी ने कहीं-कहीं असामान्य शब्द-प्रयोग कर कथ्य को धार देने का प्रयास किया है- बेखटक, बेसबक़, कंटकाकीर्ण, गण्यमान्य (गणमान्य), सैन्यकों, युद्धकों, गार आदि को पर शुद्धतावादी नाक-भौं सिकोड़ सकते हैं, किंतु रचनाकार और पाठक ऐसे प्रयोगों के लिए प्रोत्साहित होंगे।  

व्याकरण: 

आकुल जी हिंदी के व्याकरण को अपनाने के प्रति सजग हैं। संज्ञा, सर्वनाम, क्रिया, क्रिया विशेषण, वचन और लिंग के प्रयोगों में गलतियां नहीं हैं।  मस्तकों, रंजकों, बैरकों, खंदकों जैसे संस्कृत-उर्दू शब्दों के बहुवचन बनाते समय वे उन भाषाओँ के व्याकरणिक नियम नहीं अपनाते, हिंदी व्याकरण के नियम का पालन करते हैं।  

अलंकार वैभव:

इन रचनाओं में अलंकारों का प्रचुरता से और सटीक प्रयोग किया गया है। इससे भाषिक और कथ्यगत सौंदर्य निखरा है। अन्त्यानुप्रास का बाहुल्य तो इस विधा की शिल्पगत माँग है।

इसके अतिरिक्त कुछ उदाहरण देखें- 

अनुप्रास- 
बचते और बचाते लोग।
अपनी बीन बजाते लोग.  
**
श्लेष-
जितना बैठो उतनी अच्छी लगती धूप रजाई में.   

मुहावरेबाजी:  मुहावरे भाषा को प्राणवंत बनाते हैं। यह तथ्य आकुल जी भली-भाँति जानते हैं। एक उदाहरण देखें: 

आए फिर पटरी पर गाँव.  

कहन:

काव्य विधा में कवि की 'कहन' बहुत महत्त्व रखती है। जटिल को सहज, गूढ़ को सरल, कटु को सरस बनाकर प्रस्तुत करने की दुर्लभ कला आकुल जी की कलम में है। 'कहीं कलियों ने फूलों से अदा हँसने की पाई है, कहीं मानव की हठधर्मी, कहीं सूरज की सरगर्मी, मुझको मृगमरीचिका में भी, ‘आकुल’ इक नँदगाँव मिले, जैसी अभिव्यक्तियाँ कवि की सामर्थ्य की जयकार करती हैं।   

सारत: आकुल जी की यह कृति पढ़ी और सराही जाने के साथ नवोदितों द्वारा छन्द सीखने हेतु भी प्रयोग में लाई जा सकती है। यह इस सारस्वत अनुष्ठान की सार्थकता है। कवि साधुवाद का पात्र है। 

-संजीव वर्मा ‘सलिल’

२०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन

जबलपुर-४८२००१, चलभाष: ९४२५१८३२४४  

salil.sanjiv@gmail.com,

 

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