8. नवगीत - कुछ यक्ष प्रश्‍न और मेरे विचार

 

नवगीत पर विमर्श जारी है। कई शोधकर्ताओं ने इस विषय पर सैंकड़ों यक्ष प्रश्‍न खड़े किये हैं और विद्वान् अपनी राय से उस पर प्रकाश डाल रहे हैं। नवगीत की यात्रा का उद्देश्‍य यही है कि काव्‍यविधा का यह स्‍वरूप यथार्थ में क्‍या है, ताकि एक राय के साथ नवगीत का विधान बनाया जा सके और नवगीत का संसार स्‍थापित हो। ऐसे ही एक शोधकर्ता श्री संजय यादव जी के कुछ यक्ष प्रश्‍न अपने शोध विषय 21वीं सदी के प्रारंभिक दो दशकों के नवगीतों में युगबोध। पर मेरे विचार आमंत्रित किये गये थे। यहाँ उन्‍हीं को नवगीत के परिप्रेक्ष्‍य में यहाँ प्रकाशित करना मेरे स्‍वत्‍वाधिकार में भी है और पाठकों रचनाकारों के लिए भी लाभकारी हो, यहाँ प्रकाशित किया है, ताकि सनद रहे-  

 

प्रश्‍न- 1 अध्‍ययन, मनन और भी क्षेत्र थे, लेकिन उस तरफ न जाकर, साहित्‍य का पथ आपने चुना, ऐसा किसी सुझाव, विशेष कारण या किसी व्‍यक्तित्‍व से प्रेरित हो कर आपने इस ओर रुख किया ?

 

उत्तर-           परिवार ऋग्‍वेदीय परंपराओं के साथ साथ पुष्टिमार्गीय संस्‍कारों का अनुगामी रहा है। इसी मार्ग के एक आचार्य परिवार से मेरी भार्या है। परिवार दाक्षिणात्‍य वेल्‍लनाडु ब्राह्मण समुदाय से है, लेकिन वल्‍लभाचार्य के वंशजों के साथ दक्षिण से उत्‍तर आ कर विद्वत्‍ता के आधार पर तत्‍कालीन राजाओं के यहाँ राजाश्रय प्राप्‍त हुआ और हमारे पूर्वज उत्‍तर भारत व पश्चिमोत्‍तर भारत में आकर बस गये। इसलिए मेरे परिवार में संस्‍कृत, हिंदी और ब्रजभाषा की त्रिवेणी बहती है। दैनिक चर्या में त्रिकाल संध्‍या, सोलह संस्‍कारों में लगभग 12-13 संस्‍कारों का अभी तक तो अनुशीलन, अनुसरण, अनुकरण हो रहा है। आरंभ में तो परिवार में सभी वृद्ध संस्‍कृत में ही वार्तालाप करते थे और वर्षों तक पत्राचार भी संस्‍कृत में करते हुए देखा है। इसलिए मेरे और मेरे परिवार में संस्‍कारगत अध्‍ययन मनन और चिंतन आज भी सतत चलता रहता है।

जहाँ परिवारों में आरंभ से बच्‍चों को खेल-कूद आदि में स्‍वतंत्रता, स्‍वच्‍छंदता मिलती है, वहीं मेरे परिवार में संक्षेप में कहूँ तो दिनचर्या में सुबह जल्‍दी उठना, जल्दी सोना, समाचार पत्र पढ़ना, त्रिकाल संध्‍या, धरती पर बैठ कर खाना, पाठ्येतर गतिविधि के साथ-साथ श्रेष्‍ठ व्‍यक्तियों, संतों, आचार्यों के सान्निध्‍य व वर्ताओं एवं प्रवचनों में सम्मिलित अवश्‍य होना जरूरी था, किंतु स्‍वच्‍छंद पास-पड़ौस में खेलने-कूदने की मनाही थी। सायं वाचनालय में जाना। पुस्‍तकालय का सदस्‍य बना दिये जाने के कारण पाठशाला और सार्वजनिक पुस्‍तकालयों में जा कर पुस्‍तकें वहाँ अथवा घर पर लाकर पढ़ना आदि शामिल रहा। घर में यजुर्वेद, ऋग्‍वेद थे, रामायण, महाभारत थीं, घर के बड़े रोज किसी ने किसी से एक अध्‍याय सोने से पहले सुना करते थे, सवेरे समाचार पत्र सुनाना भी दिनचर्या में सम्मिलित था। परिवार में सभी वरिष्‍ठ अध्‍यापक, प्रिंसिपल, प्रोफेसर थे । उनके सान्निध्‍य में लालन-पालन से अध्‍ययन, चिंतन मनन से साहित्‍य को सर्वोपरि स्‍थान मिला। परिवार में सभी साहित्‍य की किसी न किसी विधा में लिखते थे, उनकी पुस्‍तकें भी प्रकाशित हुई हैं। मेरे एक अग्रज पं. गदाधर भट्ट, प्रिंसिपल से सेवानिवृत्‍त हुए, उन्‍हें राजस्‍थान साहित्‍य अकादमी से निबंध पर देवराज उपाध्‍यय सम्‍मान मिला, उन्‍होंने ढेरों पुस्‍तकें लिखीं, जिनमें से संस्‍कृत की पुस्‍तकें दसवी राजस्‍थान के पाठ्यक्रम में भी सम्मिलित रही हैं।  बड़े-बड़े दिग्‍गज साहित्‍यकारों का साहित्‍य पढ़ा तो साहित्‍य की ओर झुकाव बढ़ा।

 

प्रश्‍न– 2 साहित्‍य में अन्‍य विधाओं की अपेक्षा नवगीत ही आपकी प्रतिनिधि विधा क्‍यों है?

 

उत्तर- चूँकि अभी तक इसकी वैधानिक संरचना (शिल्‍प विधान) पर मोहर नहीं लगी है, इसलिए सभी काव्‍य रचनाकार कभी न कभी अपनी रचना को नवगीत का नाम दे देते हैं। वरिष्‍ठ रचनाकारों, कवियों, यहाँ तक कि वे रचनाकार जिनकी नवगीत पर एक या एक से अधिक पुस्‍तकें प्रकाशित हो गयी हैं, वे भी चर्चा करने में अगल-बगल झाँकते देखे हैं और अपनी ‘'अपनी ढफली अपना अपना राग’’ वाली बातें करते हैं। युवा रचनाकार जब नवगीत पर शोध ग्रंथ लिखते हैं, तो अच्‍छा लगता है कि आज नहीं तो आने वाली पीढ़ी को एक दिन इस विधा का आधारभूत विधि-विधान मिलेगा और वे सिर ऊँचा कर के कह सकेंगे कि वे नवगीतकार हैं। मैंने जैसा कि प्रश्‍न 1 में बताया है कि मुझे गद्य और पद्य दोनों का सान्निध्‍य और अनुशीलन करने का अवसर मिला था, मैंने गद्य पढ़ा है तो पद्य भी गहराई से पढ़ा है। महाभारत, रामायण, कालिदास, तुलसीदास सब ने जो भी रचा है संस्‍कृत/हिंदी छंद साहित्‍य की धरोहर हैं, इसलिए छंदों के प्रति भी मेरा सर्वाधिक रुझान रहा है। लगभग 100 छंदों पर मैं काम भी कर चुका हूँ, और चल रहा है। प्रकाशित 12 पुस्‍तकों में 3 पुस्‍तकें छंदाधारित काव्‍य ‘गीतिका’ पर बनी हैं। काव्‍य संग्रह, गीत, नवगीत पर एक एक पुस्‍तक प्रकाशित है, लघुकथा पर एक पुस्‍तक है, महाभारतीय पृष्‍ठभूमि पर एक नाटक भी प्रकाशित है। मुक्‍तक सतसई, एक गीत संग्रह, दूसरा नवगीत संग्रह  प्रकाशनाधीन है। 

ग़ज़ल को डॉ. गोपालदास नीरज द्वारा दिये नये नाम ‘’गीतिका’’ की भी कमोबेश नवगीत की तरह स्थिति है।  हाँ, नवगीत को यदि सर्वसम्‍मत विधि विधान मिले तो लोगों की यह प्रतिनिधि विधा बन सकती है, क्‍योंकि इसमें छंद मुक्‍तक कविताओं, गीतों और छंदबद्ध लयात्‍मक रचनाओं का बहुत प्रभाव है, जिसके कारण इसे लोग पसंद करेंगे। एक और भी कारण है कि नवगीत को युगबोध का आश्रय मिल सकता है, क्‍योंकि नवगीत तार्किक और समसामयिक विषयों पर ज्यादा लिखे जा रहे हैं। दूसरे शब्‍दों में कहें नवगीत सीधे-सीधे युगबोध से जुड़ रहा है।     

 

प्रश्‍न– 3     जब गीत स्‍वयं में एक विधा थी और नवगीतकार भी यह मानते हैं, गीत की जानकारी के बिना नवगीत नहीं  लिखा जा सकता, तो नवगीत नामकरण की क्‍या विवशता थी, इसे गीत रूप में ही रहने दिया जाता ?

 

उत्तर- मेरी दृष्टि में इसका कारण युगबोध ही है। जिस प्रकार ग़ज़ल अब, सुरा सुंदरी का वर्णन नहीं रहा है। सम सामयिक सभी विषयों पर ग़ज़लें लिखी जा रही है, जिन्‍हें भले ही ठेठ लीक पर चलने वाले नाक भौं सिकोड़ते हों, पर धड़ल्‍ले से बह्र-बेबह्र ग़ज़लें लिखी जा रही हैं। जिस प्रकार कविताओं में तुकांतता की आवश्‍यकता कम अनुभव होने लगी है और एक नई कविता ने जन्‍म ले लिया है, उर्दू से परहेज करने वालों ने हिंदी ग़ज़ल लिखने के बाद उसे वांछित सम्‍मान न मिलने से जब से ग़ज़ल का नाम ढूँढ़ने के अभियान चलाये अज़ल, सजल, अनुगीत, मुक्तिका, गीतिका नामकरण दे रखे हैं, उसी प्रकार गीतों में जब से सौम्‍यता, लचीलापन, गेयता और  अभिव्‍यंजनाओं के साथ-साथ लयात्‍मकता के अमान्‍य रूपों का समावेश हुआ है, हमें उसे एक नया नाम देने की आवश्‍यकता अनुभव हुई होगी, तभी गीत को नया रूप देने के प्रयास आरंभ हुए और गीतांगिनी से नवगीत की यात्रा का शुभारंभ कहा जा सकता है। 

मेरा तर्क यह है, आज जो भी नवगीत के नामकरण से गीत रचे जा रहे हैं, उनमें गेयता का अभाव है। मेरा मानना है, सभी गीत मेरा नवगीत हो सकते हैं, पर सभी नवगीत गीत नहीं हो सकते। दूसरे शब्‍दों में, कई नवगीतों को गाया नहीं जा सकता। बहुत ही व्‍यावसायिक दृष्टिकोण से रचे गये गीत फिल्‍मों, एलबमों आदि में अवश्‍य सुनने को मिल जाते हैं, जो पढ़ने में गेय नहीं लगते, किंतु गाये गये हैं या यह कहिए कहानी की माँग के अनुसार ठूँसे जाते हैं, जिसमें संगीतकार की मजबूरी हो जाती है, उसे गीत का रूप देने में। गुलज़ार के अधिकतर गीत मेरी दृष्टि में नवगीत की श्रेणी में आते हैं। गीतों में हिंदी का सर्वश्रेष्‍ठ प्रयोग क्लिष्‍ट भी लगे तो भी सुन-सुन कर वह गीत होठों पर बैठ ही जाता है, क्‍योंकि ऐसे गीतों पर अभिव्‍यंजनाओं, संवेदनाओं, प्रकृति का चित्रण, नौ रसों में कई रसों की प्रधानता का अनुपम रूप हमें दिखाई देता है। योगेश , संतोष आनंद, इंदीवर इन्‍होंने विशुद्ध हिंदी में ऐसे ऐसे फिल्‍मी गीत दिये हैं, जो सौ प्रतिशत गीत हैं किंतु, उन्‍हें मैं नवगीत की श्रेणी में भी मानने को तैयार हूँ, क्‍योंकि उनमें अभिव्‍यंजनायें, कुछ पंक्तियों में समेट कर एक विस्‍तृत आयाम के दर्शन कराती हैं। कवि का अकल्‍पनीय स्‍वरूप उसमें मुखर होता है। ‘आनंद’ का गीत ‘कहीं दूर जब दिन ढल जाये, साँझ की दुल्‍हन बदन चुराये, चुपके से आये.... ‘मौसम’ का गीत दिल ढूँढ़ता है फिर वो ही फुरसत के रात दिन...ये पूरा गीत भले ही दूसरे शायर की आरंभिक पंक्तियों को लिया है पर सारा गीत नवगीत की मिसाल है.. ‘घरोंदा’ का गीत ‘’एक अकेला इस शहर में, रात में या दोपहर में आबोदाना ढूँढ़ता है, आशियाना ढूँढ़ता है....’’  ऐसे कई बेमिसाल गीतों की शृंखला है जिन्‍हें नवगीत का नाम दिया जा सकता है। आरंभ में गुलज़ार नवगीत पर काम करना चाहते थे, किंतु उनकी इाहकु की तरह विकसित भारतीय विधा ‘त्रिवेणी’ पर लोगों ने कसीदे काढ़े तो वे खिन्‍न हो गये लेकिन उनके गीतों में नवगीत का रंग कभी कम नहीं हुआ। आँधी, किनारा आदि कई फिल्‍मों में नवगीत को समझाती उनके लिखे गीतों की पंक्तियों की भरमार है। 

गीत की पारं‍परिक रचनाधर्मिता पर जब उँगली उठने लगे, लोगों को गीत में कविता का पुट ज्‍यादा और गीत का कम दिखाई देने लगे, उसमें क्लिष्‍टता का आभास होने और आकर्षण खोने लगे और उदासीनता दिखने लगे, गेयता में लयात्‍मकता का अभाव सा प्रतीत होने लगे तो स्‍पष्‍ट है कि रचनाकार कोई आधार ढूँढ़ने के लिए विवश हो जाता है। ऐसा ही नवगीत के साथ होता रहा है। युगों की मेहनत आज तक रंग नहीं लाई तो नवगीत के सामने गीतों के होते हुए अपना स्‍थान बना पाना आसान नहीं होगा। हालाँकि नवगीतों को गीतों से भिन्‍न करने के लिए क्रांतिकारी कदम उठाना अभी शेष है। अभी नवगीत गीत से चिपटे हुए हैं, उन्‍हें अलग करना अभी तो मुमकिन नहीं, इसलिए विवश हो कर एक वर्ग तैयार हुआ है जो इस पर कार्य कर रहा है, लोग शोध कर रहे हैं। दूसरा कारण यह भी है कि लोकगीतों का भी तो अपना संसार है, लोकगीतों में भी नवगीत की संभावना तलाशी जा रही है। आचार्य संजीव सलिल (जबलपुर) तो अखिल भारतीय स्‍तर पर लोकगीतों में नवगीत और छंद तलाश रहे हैं।  तो क्‍या लोकगीतों को नवलोकगीत भी कहेंगे आप? गीत के मुलम्‍मे से हटा कर ही हम नवगीत की संकल्‍पना को मूर्त्त रूप देना होगा। चूँकि नवगीत गीत का ही नवरूप है इसलिए गीत तो जुड़ा ही रहेगा, किंतु शिल्‍प की कुछ आधारभूत संरचना बहुत जरूरी है जिससे नवगीत गीत से अलग दिखाई दे। पहली पंक्ति या कहिए गीत में आरंभ की पंक्तियाँ जो अंतरे के बाद दुहराई जाती हैं, अपना सर्वाधिक प्रभाव छोड़े। अमूमन नवगीतकार अंतरे को तुकांत में स्‍थाई की तरह खत्‍म करके इति कर लेते हैं और अगला अंतरा आरंभ हो जाता है, नवगीत का यह स्‍वरूप वर्तमान में प्रचलित है। इस संदर्भ में सशक्‍त साहित्यिक समालोचक आचार्य संजीव सलिल कहते हैं- “नवगीत अभिव्‍यक्ति को ‘‘जस का तस’’ प्रस्‍तुत करने की विधा है जबकि गीत अलंकारिक सुसज्जित प्रस्‍तुति है।”

 

प्रश्‍न– 4 क्‍या आपने जन्‍म से ले कर आज तक नवगीत में अपने शिल्प और कथ्‍य के संदर्भ में परिवर्तन आए हैं। यदि परिवर्तन आए हैं तो क्‍या हैं?

 

उत्‍तर- पुराने नवगीतकारों या गीतकारों की पुस्‍तकों की अनुपलब्‍धता ने अध्‍ययन पर व्‍यवधान डाला है। सही मायनों में तो इंटरनेट के आने के बाद नवगीत के प्रति जो खुलकर प्रतिक्रियायें, उन समीक्षाओं पर दृष्टि गयी है तो यह अवश्‍य लगा है कि नवगीत में विषय गत, कथ्‍य और शिल्‍प में परिवर्तन आये हैं। समसामयिक विषयों पर कलम ज्‍यादा चलने लगी है। दूसरे लोगों के नवगीतों के प्रति लोग संवेदनशील हुए हैं, युगबोध की संकल्‍पना फिर सिद्ध होने लगी है, रचनाकारों को नवगीत गीत की तरह सामान्‍य से अलग हट कर लगने लगे हैं। शिल्प में पैनापन आया है। दो या तीन अंतरों का नहीं अब नवगीत पाँच और छ: अंतरों तक जाने लगे हैं, यानि नवगीतकारों में भावाभिव्‍यक्ति की उत्‍कट या कहिए तीव्र उत्‍कंठा ने नवगीत को अधिक से अधिक अभिव्‍यंजनाओं से शृंगारित किया है। बिम्‍ब, प्रतीक, शैली में ‘पंकज परिमल’ को आज के श्रेष्‍ठ नवगीतकारों की श्रेणी में लिया जा सकता है।  अंतर्जाल के फैलाव से घर बैठे दुनिया के सभी नवगीतकारों के कथ्‍य शिल्‍प पर पैनी दृष्टि भी डाल सकते हैं। कई नवगीत के फेसबुक समूहों ने कथ्‍य शिल्‍प के अपने अपने दृष्टिकोण दिये हैं, जिससे स्‍वयं रचनाकार अपनी रचना को नवगीत के मापदंड पर तौल सकता है। नवगीत की पाठशाला, अनुभूति, नवगीत की चौपाल आदि  में नवगीत सीखे, पढ़े ,समझे और लिखे जा सकते हैं। नवगीतकारों का एक बड़ा समूह इंटरनेट के माध्‍यम से आज हर रचनाकार से रूबरू है। बस आवश्‍यकता है कि आप पहले की तरह अध्‍ययन को प्राथमिकता देते हुए सीखने का प्रयास करें। क्‍योंकि कम शब्‍दों में ज्‍यादा कहने की प्रवृति विकसित करना नवगीत के लिए अत्‍यावश्‍यक है। पहले के नवगीतों में बिखराव था, गेयता कम थी वे कविता के रूप में ज्‍यादा नज़र आती थीं, क्लिष्‍टता कम थी। आज वस्‍तुपरक और कलात्‍मक रेखांकन, प्राकृतिक चित्रण का स्‍वरूप आज के नवगीतों की प्रमुखता है। शिल्‍प में मात्रिक संयोजन देखने को मिलता है। कविता की तरह तुकांत भी देखने को मिलता है। छंदात्‍मक रचना ने उसे एक शास्‍त्रीय रूप भी प्रदान किया है। कुल मिला कर आज नवगीत को नई कविता, अतुकांत गीत, छंद आदि सभी से सहयोग मिल रहा है, जिससे उसे नवगीत के कलेवर में प्रस्‍तुत होने में झिझक महसूस नहीं हो रही। कुछ दिन पूर्व राजस्‍थान साहित्‍य अकादमी की मासिक पत्रिका ‘मधुमती’ के  एक अंक में नवगीत पर छपे लेख में लेखक ने यहाँ तक लिख दिया है कि नवगीत सशक्‍त कविता की ओर लौटती यात्रा है। यानि उनकी दृष्टि में नवगीत पुन: कविता की ओर लौट रहा है। यानि यहाँ इस बात को ठोस प्रमाण मिलता है कि सभी नवगीत नही गाये जा सकते यानि कविता की तरह पढ़े जा सकते हैं, पर गाये नहीं जा सकते।

 

प्रश्‍न– 4 आज लिखे जा रहे नवगीत की चुनौतियाँ क्‍या हैं? क्‍या वह अपनी समकालीन चिंताओं को सीधी तरह स्‍वर दे पा रहा है, जेसे हिन्‍दी के अन्‍य समकालीन काव्‍य रूप दे      रहे हैं ?

 

उत्‍तर- नवगीत की सबसे बड़ी चुनौती तो गीत से ही है। गीत को बदलना चाहते हैं हम, आधुनिकतावाद की ओर कदम बढ़ाना चाहते हैं हम। गीत हमें हिंदी में लिखने हैं, और हिंदी में अभिव्‍यंजनाओं, चित्रांकन के लिए प्रकृति से जुड़ाव अत्‍यधिक आवश्‍यक है, छंदात्‍मकता के लिए छंद का ज्ञान आवश्‍यक है, लयात्‍मकता में गेयता के लिए आपको संगीत का ज्ञान होना आवश्‍यक है। समृद्ध भाषा व प्रयोग के लिए शब्‍दकोश व व्‍याकरण का अच्‍छा ज्ञान होना आवश्‍यक है।  नवगीत के लिए इनमें प्रयुक्‍त होने वाले शब्‍द क्लिष्‍ट हैं, शायद संस्‍कृत से आगत शब्द (तत्‍सम)। जब हम हिंदी भाषा को ही वह उच्‍च स्‍थान ही नहीं दिला पा रहे, जिसकी वह अधिकारी है, फिर उत्‍तराधिकारी कैसे बनेगी। क्‍योंकि गीत तो सामान्‍य, सरल, युगबोध की प्रेरणा से थोड़ा दूर, स्‍वच्‍छंद, मनभावन, जन-जन को ग्राह्य होते हैं, उसे का बाना पहनाना आसान नहीं होगा।

नवगीत सामान्‍य वर्ग के लिए बन पायेंगे या नहीं, यह तो अभी दूर की बात है, पर अभिजात्‍य वर्ग में (केवल रचनाकारों, साहित्‍यकारों व हिंदी के विद्वानों के लिए तो ग्राह्य होंगे) पूर्ण रूप से स्‍वीकार्य होंगे यह कठिन लगता है, क्‍योंकि अभिजात्‍य वर्ग में तो हिंदी को अधिकांशतया हीन भावना से देखा जाता है। आप इसी से कल्पना कर लीजिए कि गीत या हिंदी भाषा में एलबम्‍स, फिल्‍में फिल्‍मकारों के लिए मजबूरी है, हिंदी से प्रेम नहीं, हिंदी में उनके प्रयोग के लिए दिग्‍गजों को, विशेषज्ञों को वे खरीद लेते हैं, क्‍योंकि वे व्‍यापारी है या कह लीजिए अवसरवादी हैं, उन्‍हें अपनी फिल्‍म से लाभ चाहिए और यह लाभ सामान्‍य व्‍यक्ति या आम जनता ही दे पाती है, अभिजात्‍य वर्ग तो अंग्रेजी फिल्‍में देखता है, अंग्रेजी बोलता है, अंग्रेजी बोलनेवालों की सोसायटी में उठता बैठता है। 21वीं सदी में धड़ल्‍ले से हिंदी फिल्‍मों में अंग्रेजी शब्‍दों का प्रयोग बढ़ा है। रैप गीतों ने तो हमारी काव्‍य धारा को मैला कर दिया है।  इसलिए अभिजात्‍य वर्ग भी नवगीत के लिए चुनौती हैं। हिंदी अच्‍छी भी हो तो अंग्रेजी साहित्य का अच्‍छा ज्ञान होने पर लेखक स्‍वयं को सीधे विश्‍व फलक पर देखना चाहता है। लेखकों ने बुकर पुरस्‍कार झोली में डाले हैं। नोबेल में हम अर्थशास्‍त्र के माध्‍यम से ही पहुँचे है काव्‍य में भी गीतांजलि के अंग्रेजी रूपांतर को ही स्‍थान मिला। शोध बिना अंग्रेजी साहित्‍य में दखल के बिना कम ही सफल हुआ है।   

नवगीत को हिंदी से भी चुनौती है। दूसरे शब्‍दों कह लीजिए कि भाषा से ही चुनौती है। हम विशुद्ध हिंदी में गीत की रचना करते हैं, तो कभी कभी वह नकली सी लगने लगती है, दस में से एक गीत या कविता या रचना विशुद्ध हिंदी में हमें संतोष प्रदान करती है। रचनाओं में हम उर्दू व अन्‍य विदेशी भाषाओं के शब्‍दों का प्रयोग तेजी से कर रहे हैं, क्‍योंकि ये सब हमारी जिह्वा पर चढ़े हुए हैं। यह तो तब है, जब हम सामान्‍य रचना कर रहे हैं। जब नवगीत की रचना होगी तो चुनौती अपने आप सामने आएगी। हिंदी बहुत समृद्ध भाषा है, किंतु जब हम उसे प्रयोग में लेते हैं, तब हमें उसकी उच्‍च गुणवत्‍ता के बारे में पता चलता है, जबकि हम रचना सामान्‍य भाषा में करने के आदी हैं। क्‍योंकि, सामान्‍य लोग इसे अधिक से अधिक पढ़ें, तो ही इसका लिखना सार्थक होता है। इसलिए हमें समृद्ध हिंदी या किसी भाषा का समृद्ध ज्ञान बहुत आवश्‍यक है। जुबान( जिह्वा), महसूस (अनुभव) असर (प्रभाव), जरूरत (आवश्‍यकता), स्‍कूल (पाठशाला) आदि शब्द उच्‍च गुणवत्‍ता वाले शब्‍दों में प्रथम सोपान (सीढ़ी, पायदान) पर सम्मिलित हैं, इनके बिना समान्‍य भाषा बोलना आसान नहीं है। रचना में आकर्षण भी ऐसे शब्‍दों से होता है। वाक्‍य सुशोभित से लगते हैं। तुकांत में आसानी होती है। लय में भी सरलता (आसानी) दृष्टिगोचर होती है। काव्‍य की किसी भी विधा में उर्दू व अन्‍य भाषाओं के लगभग 15 प्रतिशत शब्‍दों का समावेश होता है। हर स्‍थान पर ‘जीवन’ शब्‍द नकली लगता है पर ‘जिंदगी’ मीठा और अपना सा लगता है। विशुद्ध हिंदी बोलने पर सामान्‍य लोग तक बीच-बीच में हँस देते हैं, व्‍यंग्‍य करते हैं।  मिश्रित भाषा में ऐसा नहीं होता, क्‍योंकि हम आदी हो गये हैं।

नवगीत की प्रकाशन या प्रकाशकों से भी चुनौती है। हमारे देश में पढ़ने का व्‍यसन (आदत) अन्‍य देशों की तुलना में आधा भी नहीं है। और जब से अंतर्जाल और मोबाइल का संसार वायरस की तरह हमारे वातावरण पर छाया है, हम अध्‍ययन में चौथाई से भी नीचे आ गये हैं। बिना अंग्रेजी का ज्ञान हम अंतर्जाल में गहरे से पैठ नहीं बना पा सकते। हालाँकि अब हिंदी में विकल्प उपलब्‍ध हैं। गोष्ठियों की संख्‍या कम हो रही हैं, वातावरण में दिनों दिनों भाषाई संक्रमण गति पकड़ रहा है। युवा पीढ़ी साहित्‍य के नाम से बिदकती है। प्रकाशक तो चलताऊ साहित्‍य बेचने में ज्‍यादा विश्‍वास करता है। प्रकाशन का उनका परम्‍परागत व्‍यवसाय है, कोई उच्‍च शिक्षा ले कर प्रकाशक नहीं बनता। यदि उच्‍च संस्‍थानों ने पुस्‍तकों को स्‍वीकार किया है, तो प्रकाशक थोड़ा ध्‍यान देते हैं, फिर भी लेखक से तो वह पूरा मूल्‍य ले कर ही पुस्‍तकें छापते हैं। अगर मैं यह कहूँ कि मैं केवल पाँच पुस्‍तकें लूँगा, आपको स्‍वत्‍वाधिकार भी दूँगा, तो भी वह किताब नहीं छापेगा। कितने प्रकाशक हैं जो साहस करते हैं। वे केवल जो बिकाऊ है उसे बेचते हैं। शोध ग्रंथ, पाठ्यक्रम की पुस्‍तकें, उच्‍च शिक्षा की अंग्रेजी या किसी भी भाषा की पुस्‍तक  जिन पर उन्हें मोटा कमीशन भी देना पड़े तो भी वे उसे दे कर छापते हैं। लेखक को जब सामान्‍य काव्यविधा के लिए प्रकाशक नहीं मिलते तो नवगीत जैसे विषय पर कौन साहस करेगा। और प्रकाशक गुणवत्‍ता देखता है, कि लेखक कितना प्रख्‍यात है। उनके लिए ‘बेस्‍ट सैलर‘ की सूचियाँ हैं, जो सामान्‍य लेखक को पुट्ठे पर हाथ भी नहीं रखने देती। (कृपया इसे नवगीत के संदर्भ में लीजिएगा, विस्‍तार से इसलिए लिख रहा हूँ कि आप इसे अपने स्‍तर पर जो आवश्‍यक है उसे ही ग्रहण कर लें)

राजनैतिक दखल से कमोबेश ये चिंताए घटी नहीं हैं बढ़ी हैं। हमारे यहाँ समसामयिक विषयों पर आलेख, लेख चर्चाएँ, वार्ताएँ, प्रतियोगितायें तो होती हैं, पर समाधान के नाम पर उसे लंबित करने की परम्‍परा बहुत है। यही कारण है कि हिंदी स्‍वतंत्रता काल से ही सौतेले व्‍यवहार से ग्रसित रही। शताधिक काल से उर्दू और अंगेजी के कारण हिंदी को उचित स्‍थान नहीं मिल पाया है। । परिणाम सामने हैं, 74 साल से हम हिंदी को राष्‍ट्रीय स्‍तर पर उचित स्‍थान के लिए संघर्ष करने से भी अब घबराने लगे हैं। हिंदी दिवस पर संचित ऊर्जा व्‍यय कर मनसूबे गढ़ते हैं और दूसरे दिन उसे लंबित कर देते है। जब हमारे देश मे स्‍वतंत्रता के समय  80 प्रतिशत जनता ग्रामीण परिवेश की थी, हिंदी जन की भाषा है तो, स्‍वतंत्रता के बाद गणतंत्र दिवस पर हिंदी राष्‍ट्र पर थोप दी जानी चाहिए थी। जैसे राजभाषा थोपी, बाद में 10+2 की शिक्षा पद्धति थोपी गई/ आरक्षण थोपा/ ऐच्छिक रूप से उच्‍च शिक्षा में ही अंग्रेजी को महत्‍व दिया जाना चाहिए था। क्‍या अपनी भाषा के आधार पर अन्‍य राष्‍ट्र संपन्‍न नहीं हैं? चीन, रूस इसके ज्‍वलंत उदाहरण हैं।  

जनसंख्या विस्‍फोट के कारण समस्‍याएँ, चिंताएँ चहुँ दिशाओं में बढ़ती ही जा रही हैं। काव्‍य की नई विधा के लिए प्रकांड विद्वानों ने समय-समय पर बस शग़ूफ़े (विलक्षण बात, शाब्दिक अर्थ- खिला फूल) छोड़े हैं। आग भड़का कर आगे निकल गये और हम और आप अपनी ऊर्जा खपा रहे हैं। अन्‍य देशों में व्‍यवस्‍था के लिए समय हैं, पैसा है, शिक्षा के मापदण्‍ड हैं, सुविधाएँ हैं, कम जनसंख्‍या है, जिसकी हमारे देश में कमी है। विषय विशेष के लिए संघर्ष में ऊर्जा खपाना भी आपकी आर्थिक जड़ों को हिला देता है। लोकतंत्र में उच्‍च स्‍तर पर बैठे लोगों में साहित्‍य के प्रति एक प्रतिशत भी गंभीरता नहीं दिखाई देती। जहाँ उच्‍च शिक्षा के संस्‍थान राजनैतिक दबाव में जीते हों, अकादमियाँ राजनैतिक नियुक्तियों के हवाले हों तो साहित्य का स्‍तर ऊँचा कैसे उठेगा?  ये सभी चिंताएँ भी नवगीत के विकास में बाधक हैं।

 

प्रश्‍न-6 युगबोध के विविध आयाम क्‍या हैं? क्‍या युगबोध की संकल्‍पना को संपूर्णता से लाने में सक्षम है यह विधा ?

 

उत्‍तर-         समसामयिक परिस्थितियों में किसी काल की राजनितिक, आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक और आर्थिक स्थितियाँ शामिल मानी जाती हैं। युगबोध का सृजन प्रक्रिया से सीधा संबंध माना गया है, क्‍योंकि यह भूत, वर्तमान और भविष्‍य तीनों काल में विचरण करता है। कलात्मक और साहित्यिक रचनाएँ युगबोध से निर्मित होती हैं तथा उसका प्रकटन भी करती हैं। लोक में विद्यमान सभी तत्‍वों का समावेश इसकी महती आवश्‍यकता है। भारतीय मिथकों की युगानुरुप लोक समविष्‍ट व्‍याख्‍या और समय सापेक्ष सृजन की ताजगी के लिए रचनाकार द्वारा स्‍वच्‍छंद लिखी पंक्तियों से निर्मित गीत नवगीत युगबोध की संकल्‍पना को संपूर्णता देते हैं।

 

प्रश्‍न-7 आपकी दृष्टि में युगबोध में किस प्रकार की संभावनायें निहित हैं?

 

उत्‍तर- युगीन परिवर्तन युगबोध का प्रमुख हथियार है। नवगीत युगबोध को उभारने वाला काव्‍य है। इसकी संरचना में रूढ़ि‍वादिता, जनतंत्र की फैली अव्‍यवस्‍था, भ्रष्‍टाचार, शिक्षा, संवादहीनता, राजनैतिक घटनाक्रम, आर्थिक विषमतायें, बाजार व्‍यवस्‍था आदि का सृजन नवगीत में पैनापन युगबोध के परिवर्तन को प्रदर्शित करता है। पूर्व और वर्तमान शाश्‍वत सृजन में आये परिवर्तन से भी युगबोध की संकल्‍पना को बल मिलता है। वैश्विकता, वैज्ञानिकता और आम जन की साहित्‍य के प्रति बढ़ती रुचि से भी युगबोध को दिशा मिलती है और समकालीन साहित्‍य में आमूल चूल परिवर्तन की भी संभावना बनती है।

 

प्रश्‍न-8  वर्तमान में 21 वी सदी के नवगीतों को आप 20वीं सदी के नवगीतों से किन आयामों पर भिन्‍न पाते है?

 

उत्‍तर- हालाँकि मैंने 20वीं सदी के बहुत कम गीत संग्रह पढ़े हैं। गीत और कविताओं का मिश्रण था 20 वीं सदी के नवगीतों में, जबकि आज नवगीत प्रयोगधर्मी अभिव्‍यक्ति दे रहे हैं। आज नवगीत, गीत से अलग स्‍वच्‍छंद अपनी बात कहने में सक्षम हैं, पहले गीत बेड़ि‍यों में बँधा था, कई मायनों में आज भी है, पर नवगीत आज बिंबों, प्रतीकों, आम आदमी के मानसिक उद्वेगों, सफलताओं, उल्‍लास और उड़ान को संबोधित करता है। आज के नवगीतों में चेतना है, समाधान है, परिस्थितियों का केवल रेखांकन या चित्रांकन ही नहीं है। नवगीत आज युगबोध की संकल्‍पना को सिद्ध कर रहा है इसलिए वह नई कविता की तरह भी लगता है।

 

प्रश्‍न-9  हिंदी कविता की मुख्‍यधारा में नवगीत की उपस्थिति के मायने क्‍या हैं?

 

उत्‍तर- कविता की मुख्‍यधारा है बेलाग अभिव्‍यक्ति पर कलम चलाना, अपनी बात कैसे भी लिख देना, और खालीपन और अधूरेपन को भरते रहने की कोशिश करते रहना। इन्‍हीं विषयों में नवगीत बिंबों, प्रतीकों और लोकायन में छिपे मनुष्‍य के अवचेतन से जुड़ाव का काव्‍य है। काव्‍य में जहाँ छांदसिक, लयात्‍मक, सीमाओं में रह कर छटपटाहट दृष्टिपात होती हैं, वहाँ नवगीत उसमें मरहम का काम करता है। हालाँकि इस छटपटाहट को नयी कविता के कलेवर में ले कर नवगीत के साथ दुर्व्‍यवहार हुए हैं, उसे पटरी से उतारा गया है। किंतु युगबोध ने हिंदी कविता की मुख्‍यधारा में गीत के रूप में ‘नव’ विशेषण के साथ नवचेतना पैदा की है। इसलिए उसे कविता के बहुत समीप माना जाता है। मैंने कहा भी है कि सभी नवगीत गीत नहीं हो सकते, क्‍योंकि नवगीत में ठहराव नहीं है। वह उद्दंड है, तर्क करता है, सच्‍चाई सामने उजागर करता है, वह क्‍यों, कब, कैसे की परिभाषा में बात करे न करे वह परिस्थितियों के चित्रांकन रेखांकन से अंदर तक चोट करता है। आधुनिकता की ओर जाने की ललक है उसमें, कुछ अलग करने की चाह है। जनवाद की तरह प्रखर है, जैसे वह किसी समर में कूद चुके सैनिक की तरह आचरण करता है। इसलिए नवगीत कविता की मुख्‍यधारा का बटोही दिखता है।

 

प्रश्‍न-10  नवगीत का लोकधर्मी अथवा जनसंवादी रूप हमारे सामने क्‍यूँ नहीं आ रहा है और वर्तमान नवगीत जनता से सीधा संवाद क्‍यों नही कर पा रहे हैं ?

 

उत्‍तर- पूरी तरह से यह सत्‍य नहीं है। जनता अब धीरे-धीरे समझदार हो रही है। वह शहरी वातावरण में रचने बसने लगी है। गाँव अब गाँव नही रह गए। लोगों के विचारों में बदलाव आया है। वे शिक्षित होने लगे हैं। आम जनता के बीच उठ-बैठ के रूप में नवगीत नुक्‍कड़ नाटकों की तरह है, जहाँ थोड़े में बहुत कुछ कह देने और समस्‍या को उजागर कर उसके समाधान के लिए प्रेरित करने जैसा है। एकजुट होने के लिए प्रोत्साहित करने जैसा है। नुक्‍कड़ नाटकों में काव्‍य स्‍वरूप को बताने की आवश्‍यकता नहीं होती, उन्‍हें यह कहने की आवश्‍यकता नहीं कि यह गीत है, नवगीत है या कविता। वह तो स्‍व-स्फूर्त अभिव्‍यक्ति है। जनता से सीधे संवाद करने के लिए जिन माध्‍यमों की आवश्‍यकता होती है वे माध्‍यम विकसित करने के लिए पहल जरूरी है। जनसंवादी स्‍वरूप को जनवाद के रूप में ज्‍यादा प्रचार प्रसार मिला है। जनवाद लोकतंत्र में भयावह है। वह अभिजात्‍य वर्ग या कहिए उच्‍च वर्ग के लिए खतरे की घंटी है। यही कारण है देश में जनवाद को मार्क्‍सवाद से जोड़ कर जनसंवाद को कमजोर करने के षड्यंत्र युगों से चले आ रहे हैं। प. बंगाल आज तक इस आग में झुलस रहा है। जबकि जनसंवाद की चेतना इस राज्‍य में सर्वाधिक है। वहाँ लोगों को आज भी घर से ज्‍यादा पुस्‍तकें प्रिय हैं। वे सजग और सचेत हैं। पढ़ना और भ्रमण उनका व्‍यसन है। लोकतंत्र में वह एक पैबंद की तरह लगा हुआ है। इसलिए बदलाव की संभावनाएँ तो बनती हैं। नवगीत का लोकधर्मी रूप हमारे सामने इसलिए भी आ रहा है कि लोक सीधे सीधे विमर्श करना पसंद करता है, प्रतीकों बिंबों का लागलपेट उसे पसंद है। नवगीत इस आदत को बदल नहीं सकता। जैसे जनवाद आक्रामकता नहीं छोड़ सकता। लोक में उग्रता बहुत देखने को मिलती है जैसे नवगीत में। नवगीत सत्‍य को उजागर कर देता है, गीत उसे मीठा बोल कर मोहता है, कविता अपनी बात कह कर चल देती है, ठहराव किसी में भी नहीं। लोकधर्मी तो हैं, लेकिन कहने या लिखने से कुछ नहीं होता, उसे धरातल पर सत्‍य के मार्ग पर चलने के लिए अग्निपथ चुनना होगा। जो लोकतंत्र में कम संभव है।       

  

प्रश्‍न-11  क्‍या नवगीत एक सीमित, बौद्धिक समाज तक ही सिमट कर रह गया है ?

 

उत्‍तर- जैसा कि मैंने प्रश्‍न 4 के उत्‍तर में लिखा है ‘'अभिव्‍यंजनाओं, चित्रांकन के लिए प्रकृति से जुड़ाव अत्‍यधिक आवश्‍यक है, छंदात्‍मकता के लिए छंद का ज्ञान आवश्‍यक है, लयात्‍मकता में गेयता के लिए आपको संगीत का ज्ञान होना आवश्‍यक है। समृद्ध भाषा व प्रयोग के लिए शब्‍दकोश व व्‍याकरण का अच्‍छा ज्ञान होना आवश्‍यक है।  नवगीत के लिए इनमें प्रयुक्‍त होने वाले शब्‍द क्लिष्‍ट हैं, शायद संस्‍कृत से आगत शब्द (तत्‍सम)।‘’

स्‍पष्‍ट है कि नवगीत बौद्धिक समाज का प्रतिनिधित्‍व करता है। जब यथार्थ को ‘जस का तस’ प्रस्‍तुत करना है तो आपको उसके मूल को खोजना होगा। अन्‍वेषण बौद्धिक समाज का प्रतिनिधि तत्‍व है। लोक में उठ-बैठ के साथ साथ अधिक से अधिक अध्‍ययन आपको निखारता है, जो सामान्‍य रचनाकार के लिए लो‍हे के चने चबाने जैसा है, क्‍योंकि आज रचनातमक अध्‍ययन कम हो गया है, लोग सीधे कलम उठा कर किसी भी विधा में घुस जाते हैं। खत्‍म होने के कगार पर गुरुकुल परम्‍पराओं की तरह सब क्षीण होता जा रहा है। नवगीत के लिए तो गहन अध्‍ययन करना बहुत जरूरी है। बौद्धिक, साहित्यिक संगठन द्वारा ही संभव है, किंतु विडम्‍बना है कि विद्वान् कभी एक जुट नहीं होते। कहा भी है- ‘’सिंह के लहँड़े नहीं, हंसो की नहीं पांत । लालों की नहिं बोरियाँ, साधु न चले जमात ।। (कबीर)।  समृद्ध लोग जो लोक समस्‍याओं से ग्रसित नहीं होते, अपितु उसके समाधान को प्रवृत्‍त होते हैं। 

 

प्रश्‍न-12  हिंदी, कविता की मुख्‍य धारा की आलोचना, नवगीत का मूल्‍यांकन करने से क्‍यों बचती रही ?

 

उत्‍तर- काव्‍य का मूल ही कविता है। युगों से चली आ रही काव्‍य धारा से निकली अनेकों काव्‍य विधाओं की पोषक रही है कविता। हिंदी सब भाषाओं की पुरोधा है, उसी तरह कविता सभी काव्‍य विधाओं की जननी है। दोनों ही मौन हो कर सभी विधाओं के उत्‍थान और पतन की मूक साक्षी रही हैं। उन्‍होंने कभी उन्‍हें लौटने के लिए विवश नहीं किया। उग्र युवावर्ग के कारण ही वैदिक युग में चार आश्रमों को स्‍थान दिया गया। वृद्धत्‍व अपनी अस्मिता बचाये रखने के लिए कभी युवाओं को सीख (नसीहत) नहीं देता। यही कारण है कि कविता से  पल्‍लवित हुई नई विधाओं पर हिंदी या कविता ने कभी उँगली नहीं उठाई। इन विधाओं ने भी पीछे मुड़ कर कविता या हिंदी को अपने पतन का दोषी भी नहीं ठहराया। कविता को तो सभी विधाओं में अपनी प्रतिकृति दिखती रही और वह संतुष्‍ट अपनी मंथर गति से बढ़ती रही। उसने अपने रीतिका‍लीन स्‍वरूप में भिन्‍न हो कर छंदमुक्त स्‍वरूप पर भी उँगली नहीं उठाई। कवियों ने भी कभी कविता से उन विधाओं की तुलना नहीं की। आरंभिक भाषा में भी कई परिवर्तन हुए, छंदशास्‍त्र पूरी तरह छंदों पर आधारित था, जन भाषा के लिए देवनागरी का चोला पहना और हिंदी जन-जन की भाषा बनी। बापू ने कहा है कि हिंदी जन की भाषा है, इसलिए उससे जुड़ने के लिए हिंदी का पल्‍लवित होना अत्यंत आवश्‍यक है। स्‍वतंत्रता के जन आंदोलन में हिंदी की भूमिका अहम रही है। तत्‍कालीन परिस्थितियों में वहाँ युगबोध ने हिंदी और लोकभाषाओं के साथ मिल कर सभी विधाओं पर अपना प्रभाव छोड़ा। इसलिए हिंदी ने कविता की मुख्‍यधारा पर कभी आक्षेप नहीं लगाये। 

       हिंदी की मुख्‍य धारा में 20वीं सदी तक बहुत ही उच्‍चस्‍तरीय हिंदी कविता के कवि हुए है जिन्‍होंने स्‍वातंत्र्य काल में अपनी भूमिका निभाई। वे क्रांति के पोषक रहे इसलिए उनमें आक्रोश रहा और एक समय जब हिंदी कविता में कुछ नया करने के लिए पुराने कलेवर से निकलने की छटपटाहट पैदा हुई तो कवि खेमे में बँटते चले गये। सशक्‍त कवि जनवाद के प्रश्रयी बने ओर उनकी आलोचना समालोचना करने के झंझट में न पड़ने के लिए वे नई कविता को उभारने में लगे और नवगीत के उपसंहार का उन्हें शायद आभास होने लगा था इसलिए वे मूल्‍यांकन से कोई विवाद खड़ा नहीं करना चाहते थे इसीलिए साधारण कलेवर व नये कलेवर वाली कविता नवगीत जैसे गंभीर विषय पर कलम चलाने से बचने लगी दूसरे शब्‍दों में कहें बचती रही, इसका एक और भी कारण था की यह बात फैला दी गयी कि यह तो कविता ही है, सशक्‍त कविता चाहे उसे तथाकथित लोगों ने ‘नव’ विशेषण जोड़ कर गीत का सरल और सौम्‍य रूप बिगाड़ दिया है।    

       नवगीत के मूल्‍यांकन का जहाँ तक प्रश्‍न है नवगीत को अनेक कवियों ने कविता की और लौटती गीत की यात्रा कहा है। नवगीत तो कविता का सशक्‍त रूप ही है। जो कमियाँ तत्‍कालीन साहित्‍य में उजागर हुई उसको आगे की विधाओं ने तराश कर सुसज्जित और स्‍थापित किया। ऐसा नहीं है कि वह उस समय सशक्‍त नहीं थी। वरन् तो महाभारत रामायण विश्‍वस्‍तरीय ग्रंथ कैसे बनते। समय परिवर्तनशील है युगबोध ने समसामयिक परिस्थितियों के अनुरूप ढलने में सहायता की और विकास को गति मिली। जब कोई अपने घर लौट रहा हो तो कैसे आप उसका स्‍वागत नहीं करोगे या समालोचना और मूल्‍यांकन से क्‍या उसे हतोत्‍साहित करोगे?

 

प्रश्‍न-13  समकालीन कविता और नवगीत के बीच इतनी विभेदक रेखाएँ क्‍यों खींची गई हैं ? क्‍यों उसे आलोचना जगत् ने बहिष्‍कृत किया ?

 

उत्‍तर- समकालीन कविता में परिवर्तन की संभावनायें तलाशी गईं और एक वर्ग उसे नई कविता के रूप में स्‍थापित करने का दबाव डालता रहा और नवगीत के लिए षड्यंत्र रचे जाने लगे। उसे गीत से भी अलग-थलग करने के प्रयास हुए। नयी कविता ने छंदमुक्‍त का विषाणु सम्‍पूर्ण काव्‍यविधा पर जैसे थोप दिया और मंच लूटने लगी छंदमुक्‍त कविता, जो आज तक गतिशील है। आज भी मंच की वैशाली निर्भीक होकर नृत्‍य कर रही है। वह गा कर भी जन को मुग्‍ध और आकर्षित कर रही है।  गीत, नवगीत का तो वहाँ कोई स्‍थान ही नहीं है। निराला से आरंभ हुई नई कविता की इस धारा से बचने के लिए कई दिग्‍गज उन्‍हें नवगीत का जनक मानने लगे। मैं तो इसलिए इस संदर्भ में कुछ नहीं कहना चाहता क्‍योंकि मैंने निराला को नहीं पढ़ा। मैंने पढ़ा है सुभद्राकुमारी चौहान, दिनकर, पंत, माखनलाल चतुर्वेदी, रवींद्र भ्रमर, राजेंद्रप्रसाद सिंह (गीतांगिनी के सम्‍पादक), अज्ञेय, डॉ. शंभूनाथ सिंह, सोहनलाल द्विवेदी, नागार्जुन, नीरज, आदि को। कविता और नवगीत के मध्‍य विभेदक रेखायें खींचने का प्रमुख सूत्रधार मंचीय कवि थे, वे चाहे बहुत वरिष्‍ठ थे या नये। आगे कई वरिष्‍ठ कवियों ने नवगीत को आगे ले जाने के लिए उसे अपने कंधे पर उठाया, पर ज्‍यादा दूर नहीं चल पाये और कड़वाहट लिये कई पदच्‍युत हो गये या कहने में नहीं हिचकिचाऊँगा वे जनवादी खेमे में घुस गये। शेष ने मौन रह कर नवगीत की दुर्दशा पर कोई मंतव्‍य नहीं दिया। नवगीत की दुर्दशा से आहत कई गीतकारों ने उसे कविता की ओर लौटती यात्रा तक कह डाला। समकालीन कई नवगीत संग्रह आये। पर आपात्‍काल और नई कविता से आहत हुए तथाकथित गीत/नवगीतकारों ने कछुए की तरह अपने आपको समेट कर तमाशा देखने तक अपनी भूमिका निभाई। परिणाम स्‍वरूप 1962 से 1980 तक कोई नवगीत संग्रह नहीं छपा। 1973 बीसवीं सदी में नवगीत की यात्रा थम सी गयी। 1975 में आपात्‍काल ने आग में घी का काम किया और जनवादी विचारधारा के सशक्त गीत/नवगीत कारों ने जैसे हथियार डाल दिए और आलोचकों ने तो नवगीत की अकाल मृत्‍यु तक घोषित कर दी। युगबोध ने साहित्‍य सृजन को उद्वेलित तो किया रचनाकारों को किंतु नवगीत पर काम करने को कोई तैयार नहीं हुआ। 21 वीं सदी के आरंभ में फिर नवगीत पर नये सिरे से काम आरंभ हुआ है, जिसमें सम्मिलित हुईं हैं कई सशक्त महिला नवगीतकार। मुझे लगता है नारी विमर्श ने युगबोध को फिर एक नई दिशा दी है और कई मायनों में विभेदक रेखाओं को पाटने का कार्य आरंभ हो गया है।

 

प्रश्‍न-14  हिंदी साहित्‍य के विकास एवं प्रचार-प्रसार में पत्र पत्रिकाओं का महत्‍वपूर्ण योगदान रहा है, परन्‍तु नवगीत पर केंद्रित पत्रिकाओं का अभाव क्‍यों है?

 

उत्‍तर- डॉ. बनवारी प्रसाद शर्मा के  ‘नवगीत के उपसंहार’ निबंध से उद्वेलित प्रख्‍यात नवगीत के प्रवर्तक और पुरोधा गीतांगिनी (1958) के सम्‍पादक रहे श्री राजेंद्रप्रसाद सिंह ने 1996 में उन्‍हें एक पत्र लिखा जो सार्वजनिक हुआ और 21वीं सदी को नवगीत की क्रांति के रूप में नवोदय माना जाता है।

मेरा नवगीत के क्षेत्र में पदार्पण 2015 है। 2016 में मेरे गीत व कविता से अलग हट कर कुछ रचनाओं के संग्रह के लिए भूमिका की आवश्‍यकता अनुभव हुई तो मुझे आचार्य संजीव सलिल (जबलपुर) से संवाद करने का मौका मिला । उन्‍होंने कहा कि रचनायें ई-मेल कर दो। मैंने रचनाएँ ई मेल कर दीं और शीघ्र ही उन्‍होंने बिना संवाद किये मेरी रचनाओं पर नवगीत की मोहर लगा दी और बहुत ही सशक्‍त भूमिका लिख कर उन्होंने मुझे भिजवा दी। पुस्‍तक थी ‘’जब से मन की नाव चली’’। यह समीक्षा ‘’नवगीत की पाठशाला’’ में उपलब्‍ध है ‘’ मुझे लगा कि मेरी नवगीत की यात्रा आरंभ हो गई। उस समय तक अंतर्जाल ने पूरी दुनिया पर अपना जाल फैला लिया था। चूँकि अनेक काव्‍य विधाओं पर मैं कार्य भी कर रहा था, एक त्रैमासिक पत्रिका का संपादक भी था। तब मैंने अनुभव किया कि रचनाएँ तो बहुत मिल रही हैं, किंतु नवगीत कोई नहीं मिल रहा।

तब कहीं जा कर मैंने अंतर्जाल पर खोज की तो मुझे लगा कि नवगीत के प्रति लोगों की रुचि तो है, ‘’नवगीत की पाठशाला’ ब्‍लॉग पर नवगीत पर बहुत अच्‍छा कार्य हो रहा है। मैं उससे जुड़ा हुआ हूँ। यह वह समय था जब धर्मयुग, हिंदुस्‍तान, सारिका, कादम्बिनी, नवनीत जैसी मासिक पत्रिकाएँ दम तोड़ चुकी थीं। गुटबाजी तो हमेशा से रही है। आज समाचार पत्रों तक में अपने ही गुट के साहित्‍यकारों के आलेख विमर्श ही प्रकाशित होते हैं। यह नवगीत के साथ नहीं, काव्‍य की लगभग सभी विधाओं में यह हावी रही है। इसी कारण कितने ही रचनाकार वक्‍त से पहले ही पीछे हट गए और अन्‍य विधाओं से आकर्षित हो गये, जिसमें ग़ज़ल और छंदमुक्‍त कविताओं का स्‍थान सर्वोपरि रहा।

       किसी सशक्‍त नवगीतकार ने नवगीत केंद्रित पत्रिका आरंभ करने की पहल ही नहीं की। हाँ नवगीत पर यदा-कदा संकलन अवश्‍य प्रकाशित होते रहे हें या सहयोग आधारित काव्‍य संग्रहों में नवगीत भी छपते रहे हैं।   वास्‍तविकता यह है जब से अंतर्जाल ने पैर फैलायें हैं, ब्‍लॉग, ई-पत्रिकायें अवश्‍य आरंभ हुई हैं, लेकिन नवगीत की स्थिति स्‍वास्‍थ्‍यवर्धक नहीं है।  एक छोटे से अंतराल में नवगीत का सशक्‍त ब्‍लॉग ‘नवगीत की पाठशाला’  निष्क्रिय पड़ा हुआ है। उसका स्‍थान फेसबुक समूह ने ले लिया है। सबने अपने-अपने ब्‍लॉग, फेसबुक समूह खोल लिए हैं लेकिन, उस पर भी लोग नि:शुल्‍क होते हुए भी कम ही अपनी उपस्थिति देते हैं।  एक कारण यह भी है रचनाकार आलोचना या समालोचना से डरते हैं। ब्‍लॉग या फेसबुक समूह सभी में निरर्थक वाह...वाह... की बाढ़ सी आती रहती है और भ्रामक रचनाकार मरीचिका में भटकता रहता है। आज यदि इस दिशा में सर्वाधिक प्रशंसनीय कार्य कर रहा है तो वे हैं नवगीत की पाठशाला की संस्‍थापक और वर्तमान में मासिक वेब पत्रिका ‘अनुभूति’(पद्य) और ‘अभिव्‍यक्ति’ (गद्य)  की संपादक सुश्री पूर्णिमा वर्मन। इन दोनों पत्रिकाओं से मैं लंबे समय से जुड़ा हुआ हूँ, इसमें कई गीत नवगीत मेरे प्रकाशित हुए हैं। हालाँकि ‘अभिव्‍यक्ति’ में मैं ‘हिंदी वर्ग पहेली’ स्‍तम्‍भ से जुड़ा हुआ हूँ, क्‍योंकि वर्गपहेली सृजन का मुझे 25 वर्ष का अनुभव है।  समय-समय पर विषय विशेष पर भी लोगों ने काफी रुचि दिखाई है। हालाँकि वर्तमान में इसकी गति मंथर हुई है। इनकी ‘नवगीत की पाठशाला’ में नवगीत से सम्‍बंधित लेख, आलेख, गीत, नवगीत, प्रकाशित नवगीत संग्रह, नवगीतकार, नवगीत की पुस्‍तकों पर समीक्षाएँ, नवगीत की चौपाल में नवगीत पर विमर्श, नवगीत पर साक्षात्‍कार, युगबोध और नवगीत से जुड़े हुई कई विषयों पर प्रकाशित पुस्‍तकें आदि प्रचुर मात्रा में उपलब्‍ध है। पर दुर्भाग्‍य, ब्‍लॅग मौजूद तो है अंतर्जाल पर, किंतु निष्क्रिय है। सक्रिय अब केवल अनुभूति एवं अभिव्‍यक्ति ई-पत्रिकायें हैं और नवगीत की पाठशाला अब ब्‍लॉग से ज्‍यादा फेसबुक समूह के रूप में सक्रिय है। पत्रिकायें जो त्रैमासिक/मासिक हैं पर नियत समय पर प्रकाशित नहीं हो पा रहीं। ऐसे में जब ‘’हींग लगे न फिटकरी रंग चोखा’’ आ सकता हो तो पत्र पत्रिकायें चलें कैसे? अंतर्कलह भी एक कारण मुझे दिखाई देता है। अकेला चना कब तक भाड़ फोड़ सकता है? सबको अपने आत्‍मसम्‍मान की पड़ी है, तो फिर पहल कौन करेगा ? जिसने आरंभ किया है, उसे तो मर-खप कर चलाना ही है। वेब पत्रिकायें चलाना कठिन है आपको तकनीकी पक्ष मजबूत करना होता है, जो अर्थसाध्‍य होता है।  जब ई–पत्रिकाओं का यह हाल है तो कागजी पत्रिकायें तो टिक ही नहीं पायेंगी। लंबे समय से चली आ रही साहित्यिक पत्रिकायें, धीरे-धीरे बंद हो रही हैं। नवगीत केंद्रित पत्रिकाएँ तो 21वीं सदी में शायद एक भी आरंभ ही नहीं हुई हैं। ऐसे समय में जब डाक व्‍यवस्‍थायें पूरी तरह से चरमरा गई हैं, विभिन्‍न प्रकाशन व्‍यवसायी होते हुए भी चल नहीं पा रहे, स्‍वयं की रचनाओं के संग्रह निकालने में ही जब पसीने आ रहे हों, तो कौन अपना घर फूँक कर तमाशा देखेगा।

अकादमियाँ मासिक पत्रिकायें निकाल रही हैं और साहित्यिक संस्‍थायें सम्‍मान के लिए सहयोग राशियाँ एकत्रित कर वर्ष में एक बार सहित्यिक पत्रिकाएँ  अवश्‍य निकाल रही हैं (केवल सदस्‍यों की), किंतु सम्‍पूर्ण रूप से नवगीत पर केंद्रित पत्रिकायें तभी निकाली जा सकती हैं, जो उदारवादी नीति रख कर सबसे पहले एक अंक निकालने का साहस करे। सहयोग राशि से सदस्‍यता में वृद्धि करे और कुछ समय टीका टिप्‍पणी किये बगैर नवगीत पर कम से कम एक वर्ष तक नवगीत के अंक निकाल कर उसे स्‍थापित करे। अपनी पूरी आयोजना को, अपनी संकल्‍पना को धीरे-धीरे अभियान की तरह प्रतिपादित कर, लोगों को एक जुट कर, क्रांति का आह्वान कर, नवगीत की श्रेष्‍ठता सिद्ध करे। इसमें अंतर्जाल बहुत बड़ी भूमिका निभा सकता है। नवगीत के अभियान को विश्‍व पटल पर स्‍थापित कर सकता है।

 

प्रश्‍न 15- नवगीत की आलोचना को समृद्ध करने के लिए और क्‍या किया जाना चाहिए ?

 

उत्‍तर- आलोचना का अर्थ होता है गुण-दोष का निरूपण एवं विवेचना। मेरी दृष्टि में नवगीत पर आलोचना नहीं होनी चाहिए। सशक्‍त गुणों की विवेचना होनी चाहिए, आलोचना नहीं। आलोचना भविष्‍य के लिए सुरक्षित रखी जाये। पत्रिकाएँ प्रकाशित होनी चाहिए। उनमें सुधार करने के स्‍थान पर हूबहू प्रकाशित कर उस पर वांछित विवेचना प्राकशित करना चाहिए। समीक्षायें हों, विमर्ष हों, ताकि नवगीत को उड़ान के लिए एक आकाश मिले। आलोचनाएँ फिर उसे धराशायी कर सकती हैं। हम बीसवीं सदी के अंत में इसका हश्र देख चुके हैं।

 

प्रश्‍न 16- नवगीत परम्‍परा को प्रतिष्‍ठा दिलाने का श्रेय आप किसे देते हैं?

 

 उत्‍तर- गीतांगिनी के सम्‍पादक रहे नवगीत के प्रवर्तक और पुरोधा डॉ. राजेंद्र प्रसाद सिंह को। पढ़ा है मैंने कि गीतांगिनी से ही ‘नवगीत’ नामकरण आरंभ हुआ।

 

प्रश्‍न 17- अपनी छ: दशकीय यात्रा में नवगीत को महिला साहित्‍यकारों का साथ क्‍यों नहीं मिल पाया ?

 

उत्‍तर- 1958 में गीतांगिनी से यदि नवगीत की यात्रा का शुभारंभ मानें तो 40 वर्ष बीसवीं सदी और 20 वर्ष इक्‍कीसवीं सदी के बीत गए हैं। बहुत उतार-चढ़ाव देखने पर नवगीत के कविता की ओर लौटने, कविता का ही रूप बताने, नवगीत का उपसंहार, नवगीत की अकाल मृत्‍यु जैसे वक्‍तव्‍यों ने उसे बहुत जल्‍दी धराशायी कर दिया।

       ‘'नवगीत की यात्रा’’ में महिला साहित्‍यकारों का सहयोग इसलिए नहीं मिल पाया कि युगबोध के सशक्‍त विषय ‘नारी विमर्श’  पर काम ही नहीं हुआ। कविताओं, गीतों, ग़ज़लों व अन्‍य विधाओं में नारी विमर्श पर बहुत काम हुआ है। गद्य में भी महिला साहित्‍यकारों ने अपनी पहचान दी है। पर नवगीत में कदाचित् अंतर्कलह ने इस विषय को गौण बना दिया। नारी को तो वैसे ही महत्‍व नहीं दिया जाता है। नारी पर अत्‍याचार का तो इतिहास भरा पड़ा है। 21वीं सदी मे तो नारी के अत्‍याचारों ने नारी को सबल बनने के लिए स्‍वयं जो संघर्ष करने पड़े हैं वह सब के समक्ष है। आज बिना नारी विमर्श के नवगीत लिखा जाना नाटकीय लगेगा। अब नारी को नारीशक्ति कहने भर से काम नहीं चलेगा। नारी ने तो हर युग में नारीशक्ति का बाना पहना है। हिंदू धर्म में युगों से वर्ष में दो बार सृष्टि को सम्‍हालने के लिए नवरात्र पर 9 दिन तक नारीशक्ति का आह्वान किया जाता है। इसलिए नारी विषय तो सदा से ही सृष्टि के सृजन से ले कर प्रलय तक काव्‍य का प्रमुख आधार रहा है। इस पर विमर्श नहीं हुए हैं। हर युग में पुरुष के अहं या दम्‍भ ने नारी को ऊपर उठने नहीं दिया। पुरुषत्‍व का तत्‍व हमेशा उस पर भारी रहा। उसे अवसर नहीं दिये गए। क्रांतिकारी विचारों की नारी ने हथियार उठाए पर कलम उठाने का साहस कभी वह नहीं कर पाई, जिसने साहस किया उसका दमन किया गया।

पर अब ऐसा नहीं हैं। नवगीत की यात्रा में बहुत नाम नारीवादी, राष्‍ट्रवादी, प्रगतिशील महिला रचनाकार के रूप में, आदिवासी, दलित क्षेत्र में भी अनेक महिला रचनाकारों ने अपनी उपस्थिति दर्ज करायी है। जैसे, महादेवी वर्मा, सुभ्रद्राकुमारी चौहान, झुम्‍पा लाहिड़ी, अमृता प्रीतम, कृष्‍णा अग्निहोत्री, इंदिरा दांगी, इस्‍मत चुगताई, ममांग दई, डॉ. राधा कुमार, नंदिनी साहू, शौकत आज़मी। ये वे रचनाकार हैं जो बहु आयामी प्रतिभा की धनी थीं, ये कवियित्री के साथ-साथ लेखिका भी रही हैं या यह कह लीजिए इन्‍होंने कभी न कभी नारी विमर्श पर काव्‍य रचा है। उन्‍होंने भले ही नवगीत, गीतों पर मोहर नहीं लगाई अपनी रचनाधर्मिता निभाई है। इक्‍कीसवीं सदी में तो तेजी से नारी विमर्श पर पुरुषों के साथ नारी ने भी कलम चलाई है। कुछ नाम जो आज पटल पर हैं, जो नवगीत अच्‍छा लिख रही हैं, इनमें सर्वोपरि हैं पूर्णिमा वर्मन। अन्‍य हैं- संध्‍या सिंह, कल्‍पना रामानी, शशि पाधा, शशि पुरपार, सुशीला टाकभौरे, अल्‍का सिन्‍हा, गीताश्री, प्रभा शर्मा । इनके साथ-साथ महिला नवगीतकारों में और भी प्रमुख नाम हैं- इंदिरा मोहन, निर्मला जोशी, शैल रस्‍तौगी,  राजकुमारी रश्मि, अंजना वर्मा, अरुणा दुबे, डॉ. मीना शुक्‍ला, सीमा अग्रवाल,  मालिनी गौतम, गीता पंडित, शीला पाण्‍डेय, डॉ.प्रभा दीक्षित, यशोधरा राठौड़, सुभद्रा खुराना, डाँ. प्रेमलता नीलम, मानोशा चटर्जी। कुछ हैं जो शीघ्र उभर कर आ रही हैं- डॉ.शान्ति सुमन, इंदिरा मोहन, मधु प्रधान, डॉ. यशोधरा राठौर, अंजना वर्मा, महाश्वेता चतुर्वेदी, डॉ.कीर्ति काले, ममता बाजपेयी, इन्दिरा गौड़ डॉ.मीना शुक्ला, सीमा अग्रवाल, रमा सिंह, मधु शुक्ला, रजनी मोरवाल, डॉ .प्रभा दीक्षित, उर्मिला उर्मि’, शीला पांडे, सुशीला जोशी, मधु प्रसाद, मधु चतुर्वेदी, प्राची सिंह, चेतना पांडे, रंजना गुप्ता, गीता पंडित, निशा कोठारी, सुनीता मैत्रेयी, आशा देशमुख, शशि शुक्ला, मंजू श्रीवास्तव, रश्मि कुलश्रेष्ट, कल्पना बाजपेयी,शीतल बाजपेयी, अनिता सिंह, गरिमा सक्सेना आदि।

नवगीत में महिला रचनाकारों के योगदान पर पूर्णिमा वर्मन की ई पत्रिका’ अभिव्‍यक्ति‍’ में भावना तिवारी का यह आलेख एक सशक्‍त रचना है जिसका लिंक  है-  http://www.abhivyakti-hindi.org/rachanaprasang /2018/ mahilanavgeetkar .htm

 

प्रश्‍न 18-  21 वीं सदी के नवगीतों में युगबोध किस प्रकार व्‍यक्‍त हो रहा है?

 

उत्‍तर- नवगीत में महाप्राण निराला जी के समय से ही उनकी रचनाओं में छायावाद से इतर गीतों के स्‍वर मुखर होते थे। वर्तमान जन और समाज की विकासोन्‍मुखी गति आज दिखाई देती है जो, 20 सदी के अंत तक चरमराती गई और आपात्काल के बाद उसके पुन: नवजागरण काल 21वी सदी के आरंभ में देखने को मिला। नवगीत का जन्‍म ही नवगति के लिए हुआ था, जिसे बाद में नवगीत प्रचारित कर दिया गया। अब नवगीत त्रिकालदर्शी हो गये हैं। भूत, वर्तमान और भविष्‍य के कल्‍पनाजगत से निकल कर जन की उपादेयता को रेखांकित करती हुई रचनायें आज युगबोध का अभियान है। आज सर्वोपरि तो नारी विमर्श पर ध्‍यान केंद्रित है। महिलाओं की स्थिति सशक्‍त बनी है, आज लीक पर चलना अच्‍छा नहीं माना जाता। आज प्रयोगवाद और विकासवाद की स्थिति है चारों ओर। विज्ञान और तकनीक की जड़े मजबूत हुई हैं, इसलिए आज के नवगीतों में भूतकाल के प्रतीक और बिंबों से बेहतर प्रतीकों को सम्मिलित किया जा रहा है। व्‍याकरण और समृद्ध शब्‍दकोश का उसमें दर्शन होता है। देशज, तत्‍सम एवं तद्भव शब्‍दों की बहुतायत व समृद्ध प्रतीकों बिंबों, मुहावरों, लोकोक्तियों का दर्शन द्रष्‍टव्‍य है। भाषा की सम्‍प्रेषण शक्ति, अलंकारों का प्रयोग, अनूठी कहन, ग्रहणीय कथ्‍य का समावेश आज के नवगीतों में युगबोध की नई परिभाषा गढ़ रहा है। समाज में व्‍याप्‍त विसंगति, विडम्‍बना, अतिरेक की पीड़ा, वैमनस्‍य, टकराव, प्रतिस्‍पर्द्धा, ध्वंस आदि के समाधान महिला व पुरुष रचनाकारों द्वारा सम्मिलित हो कर खोजे जा रहे है। उन पर खूब लिखा जा रहा है। पत्र पत्रिकाओं, ब्‍लॉग्‍स, फेसबुक समूह, गोष्टियों, समीक्षाओं के माध्‍यम से एक वातावरण बनाया जाना जरूरी है। अधिकतर नवगीतों में आज विमर्श और समस्‍याओं के समाधान देती हुई पंक्तियों का सृजन व्‍यक्त हो रहा है।

 

प्रश्‍न 19-  आधुनिक युगबोध में सम्मिलित तत्‍व यथा वैश्‍वीकरण, उत्‍तर आधुनिकतावाद, बाजारवाद, महामारी, राष्‍ट्रवाद आदि को नवगीत किस प्रकार व्‍यक्‍त कर रहे हैं?

 

उत्‍तर- वैश्‍वीकरण- वसुधैवकुटुम्‍बकम  की अवधारणा को साहित्‍य ही सबसे अधिक सुदृढ़ कर सकता है। जब से मास मीडिया, अंतर्जाल ने पूरे विश्‍व में अपना जाल फैलाया है, हमारा विश्‍व साहित्‍य समाज परस्‍पर पहले से अधिक समीप आया है। विदेशों में हिंदी अब विचित्र नहीं अनूठी भाषा हो गयी है। पहले लोग हिंदी को फिल्‍मों के माध्‍यम से जानते थे, किंतु अब फिल्‍मों के अतिरिक्‍त अंतर्जाल के माध्‍यम से हमें अथाह अवसर प्राप्‍त हुए हैं। दूसरे शब्‍दों में प्रवासी साहित्‍यकारों ने हमारे साहित्य के लिए वैश्‍वीकरण के मार्ग खोले हैं। अंतर्जाल इसमें सेतु का कार्य कर रहा है। अंतर्जाल पर ईमेल, फेसबुक समूह, ब्‍लॉग्‍स, वेब पत्रिकाओं, ट्विटर, इंस्‍टाग्राम, वीडियो कांफ्रेंसिंग, वर्चुअल समारोह, व्‍हाट्सऐप आदि ने हमें सीखने-सिखाने और प्रचार-प्रसार के अनेक रास्‍ते खोल दिए हैं। प्रवासी साहित्‍यकार हिंदी या भारतीय भाषा ही नहीं वहाँ की भाषा में भी निपुण होने के कारण, उनका द्विभाषी होना भी हमारे साहित्‍य, हमारी भाषा को वहाँ एक सम्‍माननीय स्‍थान दिलाने का कार्य करता है। दूसरी तरफ वहाँ के साहित्‍य का फैलाव भी करने में प्रवासी भारतीय साहित्‍य के विभिन्‍न आयामों के लिए सेतु का कार्य करते हैं। आधुनिक तकनीक ने हमें कम्‍प्‍यूटर पर हिंदी लिखना आसान किया है ताकि सम्‍प्रेषण आसान हो सके। अब रोमन अंग्रेजी में हिंदी को कोई पसंद नहीं कर रहा है।    

उत्‍तर आधुनिकतावाद- यह तकनीकी प्रोन्‍नति का परिणाम है, बीसवीं सदी का उत्‍तरार्द्ध इसका जनक है। विश्‍वस्‍तर पर साम्राज्‍यवादी ताकतों के बढ़ने का भी एक कारण है। सभी क्षेत्र जब इसकी चपेट में आये, तो साहित्‍य कैसे अछूता रहता। इसका पहला प्रभाव संस्‍कृतियों पर पड़ा। पश्चिम संस्‍कृति हावी हुई। और सबसे ज्यादा प्रभावित हुआ आम जीवन। हालाँकि उत्‍तर आधुनिकतावाद ज्ञान को नहीं उपभोग को महत्‍व देता है, जिससे साहित्‍य को खतरा भी है। इसके लिए युगबोध इससे बचने के लिए संस्‍कृति के पलायन को रोकता है, साहित्‍य की मूल धारणा, सर्वेभवंतु सुखिन: का मूल सिद्धांत पकड़े, आज महती आवश्‍यकता है, उत्‍तर आधुनिकतावाद आधुनिकता से आगे की सीढ़ी है, जिसमें पिछड़े, निचले, आम जन को कोई स्‍थान नहीं। यह रचना को विज्ञापन और समीक्षा को प्रायोजन बना देता है। यह अतीत में जाने की छूट देता है, किंतु उसकी भव्‍यता को स्‍वीकार नहीं करता। मतैक्‍य के बदले मतभेद देता है सत्‍य का, ज्ञान का मूल स्‍वरूप बताता है। युगबोध इसे आगाह कर उस पर नये परिणाम तय कर नवगीतों में दिशा निदेशन करता है, क्‍योंकि अतिआधुनिकतावादी अदमनकारी परिस्थितियों को स्‍वीकार करता है, ताकि आधुनिकता बची रहे। उत्‍तर आधुनिकता ने भारतीय होने का भाव जगा दिया है। भारत की मूल संस्‍कृति को जीवंत रखने के लिए उत्‍तर आधुनिकतावाद हमें संस्‍कृति के खोजने के भय से आगाह करता है क्‍योंकि उसमें शांति है। सर्वेभवंतु सुखिन: का मूल भाव लिये हुए इसमें नारी विमर्श और दलित साहित्‍य को प्राथमिकता दी जाती है, इस पर यथार्थ को नवगीत में समेटा जा सकता है। उच्‍चस्‍तरीय साहित्‍य को प्राथमिकता देता है जौर नवगीत उस श्रेणी का काव्‍य है, पर लाभ का विनिमय हो सके ऐसे साहित्‍य का सृजन उत्‍तर आधुनिकतावाद का प्रमुख पैमाना है।

बाजारवाद-  लाभ का व्‍यवसाय करने वाला साहित्‍य इसकी प्रमुखता है। इसलिए ज्ञान के चरम का उपयोग इसमें होता है। शोभा डे, अरुंधति राय, शशि थरूर, क्राइम उपन्‍यासकार, ओशो, खुशवंत सिंह ऐसे कई नाम हैं जिनके नाम से साहित्‍य बिकता है। बाजारवाद आधुनिकतावाद में साहित्‍य को आमजन से दूर करता है, इसलिए युगबोध नवगीत को इस श्रेणी में लाने का प्रयास करने वालों को आगाह करता है।  आधुनिकतावाद युगबोध में यह दृष्टि देता है कि इसमें कलाकार/साहित्‍यकार के लुटने का खतरा सदैव बना रहता है। जैसे प्रख्‍यात साहित्‍यकार या कलाकार के बोले गये एक-एक शब्‍द का मूल्‍य होता है, उसके एक वाक्‍य से बाजार में उथल-पुथल हो सकती है। उसे बहुत ही सोच समझ कर बोलने की आवश्‍यकता होती है। आधुनिकतावाद एक मीठा जहर है। जिससे बचने का आगाह करता है युगबोध । आधुनिकतावाद से जो नहीं बच पाया उसका उत्‍तर आधुनिकतावाद में साम दाम दण्‍ड भेद की नीति के बिना टिकना मुश्किल हो जाता है, जो एक जूआ भी है।

महामारी- आपात्‍काल, महामारियाँ साहित्‍य के लिए सृजन और आम जन से जुड़े रहने के लिए अनेक अवसर देती हैं। 1975 में आया आपात्‍काल नवगीत के लिए एक महामारी से कम नहीं था। सभी अपने अपने दड़बे में घुसे हुए थे। साहित्‍य सृजन में नवगीत की फुसफुसाहट तक नहीं थी। सभी प्रगतिवाद की राह पर अपने अपने सृजन में व्‍यस्‍त थे। जैसे कोई जनवाद से मुक्‍त हो कर अपने आपको धन्‍य मानता हो। जनवादी खेमे में भी ऐसे मौके आये थे, लोग जनवादी का मुल्‍लमा छोड़ कर प्रगतिवादी बन गये थे, बाजारवाद की बलि चढ़ गये थे। महामारी एक ऐसा समय ले आता है जब व्‍यक्ति एकाकी हो जाता है। ऐसे समय साहित्‍य की किसी भी धारा को रोक देती है। सेतु, माध्‍यम यदि विकसित हैं तो प्रवाह मुड़ जाता है। हाल ही में कोरोना महामारियों ने लंबे समय तक साहित्‍यकारों को सोचने का मौका दिया। युगबोध प्रेरित करता है कि हम इस महामारी का सामना कैसे करें। महामारियों में सबसे ज्‍यादा क्षति आम जन की होती है। वैसे तो यह बाढ़ सभी को बहा ले जाती है। तब शायद आधुनिकतावादी के खेमों में हलचल होती है। महामारी में वैश्‍वीकरण होने से संबल बनता है। और वैचारिक सक्रियता बढ़ जाती है। युगबोध नवगीत में नये नये प्रयोग करने के लिए अवसर प्रदान करता है।  

नवगीत का एक पक्ष साहित्‍य में  महामारी की एक बानगी देखिए-

1 कवि हरिओम पँवार

न आंखों की दो बूंदों से सातों सागर हारे हैं।

जब मेंहदी वाले हाथों ने मंगल सूत्र उतारे हैं।।

2 आकुल

रूठ कर चला गया, शहर मिला नहीं मुझे।

सुलग रहे हैं श्मसान

जल रहा हर स्वप्‍न है

मेरे शहर की हर गली में

एक लाश दफ़्न है.

जानवर सी हो गई गत

मौत पर इंसान की

अंत्‍यकर्म हैं कि जैसे

लाश है शैतान की।

कितनों ने जन्म लिया, युगंधर मिला नहीं मुझे।
रूठ कर चला गया, शहर......

राष्‍ट्रवाद- राष्ट्रीयता की भावना विकसित करने में आधुनिक साहित्य का बहुत बड़ा योगदान है। राष्ट्रवाद से सामुदायिक भावना का विकास होता है और लोकतांत्रिक भावना भी राष्ट्रवाद से समृद्ध होती है। देश की रक्षा, हित, संगठन, एक समाज के जातीय स्वरूप के विकास की आकांक्षा, कोशिश राष्ट्रीय चेतना का अविभाज्य अंग है। प्रगति, विकास, संस्कृति, इतिहास-भूगोल आदि की जड़ भाषा होती है और भाषा को साहित्य समृद्ध करता है और साहित्य प्रत्येक वर्तमान को कलात्मक एवं यथार्थ रूप में समाज के सम्मुख प्रस्तुत करता है। मनुष्य चाहे जितनी प्रगति कर ले, विकास की डींगें हाँक ले, सभ्यता का दंभ भरे, पर जब तक वह भीतर से सभ्य नहीं होता, तब तक मनुष्य की सही मायने में प्रगति नहीं हो सकती। बाहरी सभ्यता भौतिक प्रगति को दर्शाती है, तो भीतरी सभ्यता मानवता को, मानवीय मूल्यों के आदर्शों को परिलक्षित करती है। साहित्य मनुष्य को बाहर और भीतर से सभ्य बनने में मदद करता है। वास्तव में वह तन और मन की सभ्यता प्रदान करता है। जो साहित्य तन और मन की सभ्यता प्रदान करता है, वह शाश्वत साहित्य होता है। वर्तमान साहित्य प्रकृति एवं राष्ट्रीयता का मानवीकरण नहीं करता बल्कि प्रकृति, समाज एवं राष्ट्र को उसके ठोस सामाजिक संदर्भ के साथ रेखांकित करता है। नवगीत में राष्‍ट्रवाद को राष्‍ट्रीय चेतना के सभी तत्‍वों को समेट कर समग्र साहित्‍य पर छाप छोड़ने का आग्रह करता है युगबोध। सही मायनों में राष्‍ट्रवाद हमें वैश्‍वीकरण के लिए आग्रह करता है, हमारी धर्म और संस्‍कृति के अक्षुण्‍ण रहने की दिशा देता है, सर्वधर्म समभाव और लोकतंत्र की जड़ें मजबूत करने के लिए जन से जुड़ने का भी आग्रह करता है। राष्‍ट्र ही श्रेष्‍ठ है, राष्‍ट्र ही सर्वोपरि है, बिना राष्‍ट्रीय विचारधारा, उसके विकास के हम वैश्‍वीकरण की धुरी पर नहीं टिक सकते।  

 

प्रश्‍न 20-  दलित स्‍त्री, आदिवासी विमर्शों में नवगीत का स्‍थान क्‍या है ? क्‍या यह वर्तमान विमर्शों को व्‍यक्‍त कर पा रहा है। 

 

उत्‍तर- बहुत कम लिखे गये हैं नवगीत। 20वीं सदी तक साहित्‍य में नवगीत विधा में दलित साहित्‍य पर बहुत कम लिखा गया है। हाँ, आरक्षण के गलत उपयोग से इस वर्ग में जो कड़वाहट पैदा की उसे मानवाधिकार तक नहीं न्‍याय दिला पाया इसे साहित्‍यकारों ने कविताओं उपन्‍यासों, कहानियों में अवश्‍य उकेरा है। दलित वर्ग की प्रतिनिधि महिला साहित्‍यकारों ने अवश्‍य इस पर लिखा है जैसे ममांग दई आदि कुछ नाम हैं।

आज दलित, आदिवासी समाज, नारी आदि के उत्‍थान के लिए अनेक अवसर राष्‍ट्रीय स्‍तर पर दिये जा रहे हैं। उनके लिए योजनाएँ हैं। आरक्षण जैसी योजनाओं ने निचले वर्ग के लोगों को ऊॅचा उठने के अवसर प्रदान किये हैं। युगबोध इसे सापेक्ष देख रहा है और नवगीत ही नही इन विषयों पर साहित्‍य की हर विधा में दोनों पक्षों को सम्मिलित किया जा रहा है। दलित समाज आज शहर की ओर बढ़ रहा है। वह अब ‘जन’ में घुल मिल रहा है। जनसंवाद से उसमें जीवन के प्रति मोह पैदा हुआ है। दकियानूसी परम्‍पराओं की बेड़ी तोड़ वह स्‍वच्छंद विचरण करने लगा है। !! मानवाधिकार इस पर दृष्टि बनाये हुए है।   

नागार्जुन की ‘हरिजन गाथा’, डॉ. दयानंद बटोही की कविता- ‘द्रोणाचार्य सुनें उनकी परम्‍परायें सुनें’ दलित व आदिवासी साहित्‍य की धरोहर हैं, जिनमें गीत व कवितायें नवगीत का प्रभाव पैदा करती हैं। दिल्‍ली कॉलेज के प्रोफेसर रहे प्रख्‍यात कवि सुब्‍बीर सिंह दलित साहित्‍य पैरोकार रहे हैं, उनके दो काव्‍य संग्रह   ‘सूर्यांश’, ‘बयान बाहर’ में नवगीत की छाया देखी जा सकती है।

 

प्रश्‍न 21-   वर्तमान नवगीतकारों के नवगीतों को दृष्टिगत रखते हुए, आपको नवगीत विधा का भविष्‍य कैसा प्रतीत होता है-

उत्‍त्‍र- (अ) मैं इस प्रश्‍न के उत्‍तर में पहले कुछ नवगीतकारों ने मुझे झकझोरा है उनकी नवगीतों के कुछ अंश, कुछ मेरे नवगीतों के अंश प्रस्‍तुत कर रहा हूँ-

1. पंकज परिमल-

कौआ खुद ही अबकी बार विदेस गया है

उसको फुर्सत नहीं मुँडेरों पर गाने की।।

शकुन कौन बाँचेगा,इसकी करो व्यवस्था

कोशिश करो मान्यता के बाहर जाने की

कौन दूसरों के सपनों पर जान खपाए

अपने सपने देखें, सब आँखों को है हक

कोई चोंच मढाएगा सोने से अपनी

आश्वासन तो आश्वासन है, इसमें क्या शक

अपनी कर्कशताएँ भी किससे कमतर हैं

कोयल से क्यों मुद्रा सीखे इतराने की।।

2. मधु प्रधान

रूठ कर मत जा रे बदरा

दरकता है हिय धरा का

अधूरी है चिर पिपासा

मलिन मुख अवसाद घेरे

आज तो ठहरो जरा सा

सब्र का न बांध टूटे

बिखर न जाये रे कजरा

3. कृष्‍ण भारतीय

यों फिसल रहे हैं दिन अपने -

रेत मुट्ठी से ज्यों फिसलती है ।

कौन पत्थर की बात सुनता है -

कह रहा खून के उफानों को ;

हमको शामिल करो लड़ाई में -

तोड़ कर काँच के मकानों को ;

सिर्फ हम हैं कि भीड़ साज़िश की -

जिसके हमलों से रोज डरती है ।

4. जगदीश पंकज

हम से उठीं

उठेंगी हम से

घुटती चीखों की हुंकारें!

झोंपड़ि‍याँ

कर रहीं सभाएँ

खेत-कारखानों के श्रम की

साझे सम्मेलन

करते हैं

चर्चा, वंचित जन के दम की

बाँटा है

जन-जन को जिनसे

टूट रहीं अब वे दीवारें !

5. आकुल

(1)

अब तो आव हवा पतझड़ सी

मौसम भी दो चार बहें

जुगनू सी खुशियाँ रातों में

मधुबन के सपने बुनती

नियति दिनों दिन उल्‍लासों की

अनमन से अपने चुनती

चिथड़े-चिथड़े हुई चुनरिया

किस्‍से कितनी बार कहें

दावानल सी हुई जिंदगी

जठरान सी आशाएँ

बड़वानल सी द्ववंद्व पिपासा

कहीं कहर ना बरपाएँ

रीति-रिवाज प्रथाएँ सबकी

बिखरी-बिखरी आज तहें  

(2)

सरहदें ही नहीं सुलग रहीं

लगी है आग अंदर भी।

सरहदें सदा बररूद के ही

बीज हैं बोती आईं

बारिश यहाँ गगन से

आतिशी ही होती आईं

बिना चलाये हल यहाँ

उगते हैं शोले गुले अनार

फस्‍लें सदा ही खू़न-ख़राबे की

यहाँ होती आईं

सरहदे ही नहीं दहल रहीं

हिला वतन है अंदर भी

 

(आ) नवगीत का भविष्‍य उत्तरोत्‍तर प्रगति पर है। नवगीतकारों की जो नवगीत को जानते हों या न जानते हों उनमें होड़ सी मची है,प्रकाशित होने की। हर वर्ष नवगीत संग्रहों की संख्‍या में बढ़ोतरी होती जा रही है। शोध हो रहे हैं। समीक्षाओं का दौर जारी हैा डॉ. रामसनेही लाल शर्मा यायावर ने वर्तमान के काल को नवगीत का सुफलन काल कहा है। हाल ही में उनके प्रकाशित नवगीत कोश (640 पृष्‍ठीय समीक्षा ग्रंथ) जो एमेरीट्स फेलोशिप की परियोजना में पूर्ण शोध कार्य है उसमें लगभग 250 नवगीत कारों के परिचय और ढेरों साक्षात्‍कार हैं।  चाहें तो आप निखिल पब्लिशर्स एवं डिस्‍ट्रीब्‍यूटर्स , आगरा (मोबाइल नं. 9458009531-38) से आप मँगा सकते हैं। ऐसे कई शोध हो रहे हैं। वैश्‍वीकरण के दौर में लगता है वह समय दूर नहीं जब नवगीत अपने चरम पर होगा, उसका अपना कलेवर होगा अपना कथ्‍य शिल्‍प होगा, विधान होगा अपने नियम निनियम होंगे।

 

प्रश्‍न 22-  अनेक महाविद्यालयों / विश्‍वविद्यालयों में नवगीत पर शेध/ हो रहे शोध कार्य , को आप नवगीत के विकास में कितना अहम् मानते हैं ?

 

उत्‍तर-  नवगीत का विकास केवल विमर्श के एक दो पन्‍नों या एक दो रचनाओं को देख कर तो अनुभव नहीं किया जा सकता है। इसक लिए एक अभियान, एक विस्‍तृत व्‍याख्‍या और जहाँ-जहाँ भी नवगीत लिखे पढ़े और संग्रहीत किये जा रहे हैं उन पर विहंगम दृष्टि डालनी होगी। तभी हम विकास और उसे धरातल से ऊपर उठा देख पायेंगे। आज जहाँ भी शोध हो रहे हैं, स्‍पष्‍ट है कि उनके पास बृहद् सामग्री संग्रहीत होगी, अंतर्जाल पर नवगीत से सम्‍बंधित हजारों लेख, आलेख, रिपोर्ताज, नवगीत, समीक्षाएँ, संग्रह, पुस्‍तकें, विषय वस्‍तु सभी होंगी, जिसका लाभ शोधकर्ताओं को मिलेगा। समृद्ध भाषा के धनी होंगे, जो शोध कर रहे होंगे, तो मुझे लगता कि  आने वाला कल नवगीत को अवश्‍य स्‍थापित करेगा। मैं स्‍वयं समय की धारा में आए उफानों, झंझावातों को लेखनी से उकेर कर उसे नवगीत का रूप देने की कोशिश में लगा रहता हूँ, ऐसा नवगीतकार ही नहीं हर संवेदनशील साहित्‍यकार अपनी विधा में उसे लिख रहा है। हमें नवगीत से इतर साहित्‍य में भी नवगीत की संभावनायें तलाशनी होंगी और उन्हें बताना होगा कि यह ही तो नवगीत विधा है। अभी नवगीत साहित्‍य बिखरा-बिखरा है, अवश्‍य ही इसे हम एकता के सूत्र में बाँध पाएँगे। गंगा-जमुनी तहज़ीब को समर्पित हमारा नवगीत साहित्‍य पल्‍लवित हो, ऐसी मेरी शुभाकांक्षा है।

 

प्रश्‍न 23-  नवगीत पर कार्य कर रहे शोधार्थियों को आप क्‍या संदेश देना चाहेंगे ?

 

उत्‍तर- नवगीत पर शोध कर रहे शोधाथियों के लिए तीन बातों पर ध्‍यान आकर्षित करना चाहूँगा-

(1)  नवगीत लिखें और नवगीत पटलों पर प्रकाशित करें। वैश्‍वीकरण के दौर में प्रवासी भारतीय नवगीतकारों को ढूँढ़ें, उनके द्वारा चलाये गये समूहों में भी अपने नवगीतों को प्रकाशित करें और समीक्षा के लिए आग्रह करें। जगदीश व्‍योम, अवनीश चौहान, पंकज परिमल, पूर्णिमा वर्मन, सहयोगी, यायावर जैसे इस क्षेत्र में कार्य कर रहे लोंगों को चिह्नित करें और उनसे संप्रेषण बनाये रखें। जब तक आप स्‍वयं नवगीत नहीं लिखेंगे शोध करना कहीं बेमानी न हो जाये।

(2)  कम से कम एक नवगीत संग्रह तो आपका प्रकाशित होना ही चाहिए, ताकि अन्‍य समूहों, शोधकर्ताओं, समीक्षकों को उस पर समीक्षा करने का अवसर मिले। अपने संग्रह पर भूमिका एक प्रकार से समीक्षा और समालोचना ही होती है। इससे आपका धरातल पता चलता है।    

(3)   मेरी निम्‍न रचना को प्रश्‍नोत्‍तरी का उपसंहार समझ कर ग्रहण करें- 

 

हे नवगीतकार !!

युगबोध की  संकल्‍पना को धार दो

विमर्श को फिर एक नई हुंकार दो

हे नवगीतकार !!

वैश्‍वीकरण से द्वार नये खुले हैं

प्रभाव प्रोन्‍नति के मिले जुले हैं

बाजारवाद हावी हो रहा है कवि

आधुनिक तुला में जा रहे तुले हैं

जन से हो सहभागिता स्‍वर चार दो

हे नवगीतकार !!

आज जरूरी नारी विमर्श हो

दलित आदिवासियों को हर्ष हो

ऐसा करो बने अब उन्‍नत समाज

रेखायें विभेदक अब अदर्श हो

सर्वधर्म समभाव कर साकार दो

हे नवगीतकार !!

जन का हो निनाद पर आह्लाद हो

चुनौतियाँ हों न कोई प्रह्लाद हो

दौड़ना पड़े नंगे पैरों ही भले

जाल फैलाये न खड़ा सैयाद हो

क्रांति का बिगुल नहीं पुकार दो

हे नवगीतकार !!

 

-आकुल

05.07.2021

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें