22 नवंबर 2022

जो काया है

 गीतिका
छंद- कन्या (वार्णिक)
मापनी- 2 222 (गुरु मगण)
पदांत- है
समांत- आया।
जो काया है।
वो छाया है।1।
प्रारब्धों की,
ही माया है।2।
कर्मों ने तो,
दौड़ाया है।3।
कर्तव्यों ने,
दी छाया है।4।
दायित्वों ने,
पौढ़ाया है।5।
संस्कारों से,
ही आया है।6।
संसारी तू,
हो पाया है।7।

10 नवंबर 2022

हाथ क्‍यों फिर दर्द में धरते नहीं

गीतिका
छंद- पियूषवर्ष   
मापनी- 2122 2122 212 
पदांत- नहीं 
समांत- अरते 

 
हाथ क्‍यों फिर दर्द में धरते नहीं।    
दर्द से क्‍या तुम भी गुजरते नहीं।  
 
कल हवाओं में भरा विष था भले,  
बाग में क्‍या फूल अब झरते नहीं।
 
 
इक तमाचा था समय का आदमी,
क्‍यों समय से आज भी डरते नहीं।
 
कर्म हो निष्फल भरा हो स्‍वार्थ से,
कर्मनाशा में कभी तरते नहीं। 
 
आदमी ही आदमी का शत्रु था,
दंभ ना होता अगर मरते नहीं।
 
प्रेम बिन जीवन सँवर जाते अगर, 
नाम रिश्‍तों के कभी धरते नहीं।
 
पाल रिश्‍तों को, सुखनवर दूर तक,  
स्‍वप्‍न में भी हाथ से, सरते नहीं । 
 
अब समय की क्‍यों प्रतीक्षा मान्‍यवर, 
क्यों सृजन कोई नया करते नहीं।

9 नवंबर 2022

एक समय था

मुक्‍तक (छंद आल्‍ह)

एक समय था खेल रहा था समय अनोखा अपना खेल ।
गाँव शहर को भाग रहे थे, जैसे छूटी नाक-नकेल ।
परंपराएँ, शिक्षा बदलीं, दकियानूसी मिटी लकीर,
कंटकीर्ण राहों पर भी थी, उम्‍मीदों की रेलम-पेल ।1।
 
एक समय था बीत रहा था, बचपन सबका दिशाविहीन ।
खेल रहा था समय खेल कुछ, देख रहे थे मौन अधीन ।
आज समझ आया क्‍यों पिछड़े, भेड़ चाल में समय गवाँ,
कितना दौड़ें पकड़ न पाएँ, 'आकुल' समय बड़ा संगीन ।2।

8 नवंबर 2022

जंगल की सैर

जंगल में हम घूमे खूब ।

वहाँ नहीं थी कोमल दूब ।। 
 
रस्‍ते में बिखरे थे पत्‍ते।
पगडंडी से कुछ थे रस्‍ते ।।

पेड़ों की ना जात जमात ।

झूम रहे थे सब मिल साथ ।।

खुला कहीं मैदान नहीं था ।

पर जंगल सुनसान नहीं था ।।

कलरव करते पक्षी देखे ।

हिरण चौकड़ी भरते देखे ।।

कहीं शेर की सुनी दहाड़ ।

कहीं हाथियों की चिंघाड़ ।।

फल फूलों से पेड़ लदे थे।

खाने को तब मन ललचे थे।।

तरह तरह के बंदर देखे ।

पंछी सुंदर सुंदर देखे ।।

दरियाई घोड़ा भी देखा ।

खाकी कठफोड़ा भी देखा ।।

बब्‍बर शेर, तेंदुआ चीता ।

उन्‍हें ढूँढ़ते दिन भर बीता ।।

सैर करी जंगल की जबसे ।

सोच रहा हूँ जाने कब से ।।

कितने है स्‍वच्‍छंद यहाँ सब ।

चिड़ि‍याघर हो बंद सभी अब ।। 

चिड़ि‍याघर में कैद रहेंगे । 

यहाँ सभी स्‍वच्‍छंद फिरेंगे ।।   

इन्‍हें मिले आजादी ज्‍यादा ।

अभयारण्‍य बनाएँ ज्‍यादा ।।

 

7 नवंबर 2022

पुस्‍तक- कुंडलिया छंद संग्रह 'तन में जल की बावड़ी'

 सद्य प्रकाशित कुंडलिया छंद संग्रह पर प्रख्‍यात छंदकार श्री राकेश मिश्र को पुस्‍तक प्राप्‍त होने पर मुक्‍तक-लोक में प्रकाशित उसकी प्रतिक्रिया

लेखक का परिचय

पुस्‍तक- कुंडलिया छंद संग्रह
    मुक्तक लोक को तन मन लगन से समर्पित साहित्यकार एवं मार्गदर्शक डाॅ गोपाल कृष्ण भट्ट आकुल जी की सद्य प्रकाशित कृति " तन में जल की बावड़ी " पढ़ने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। उक्त काव्यसंग्रह दोहा, रोला, कुंडलिनी एवं कुंडलिया छंदों में निबद्ध है। 
    आरम्भ में तेईस प्रकार के दोहे (जो छंदशास्त्रों में वर्णित हैं) शिल्प विधान अंकित करते हुए प्रस्तुत किए गए हैं तदुपरांत उन सभी प्रकार के दोहों के आधार पर समाजोपयोगी, नीतिपरक एवं शिक्षाप्रद दोहावली रचित है।
    द्वितीय अनुभाग में रोला छंदों की मनोहारी छटा पाठक के ध्यानाकर्षण में सक्षम है। तीसरे अनुभाग में कुंडलिनी छंद एवं अंतिम भाग में कुंडलिया छंदों की अनूठी कहन वास्तव में पठनीय अनुकरणीय एवं अविस्मरणीय है। 
छंदकार श्री राकेश मिश्र
    डाॅ आकुल जी का उक्त कवितासंग्रह जीवन एवं प्रकृति के विभिन्न पहलुओं को स्वयं में समाहित किए हुए एक अमूल्य निधि है।
    इससे पूर्व भी आपकी कई पुस्तकें शताधिक हिन्दी छंदाधारित गीतिका संग्रह ,गीत संग्रह के रूप में प्रकाशित हो चुकी हैं। मुक्तक लोक के एडमिन,निरंतर क्रियाशील एवं सशक्त स्तम्भ, विचारक और यशस्वी लेखनी के धनी डाॅ आकुल जी को कोटि-कोटि बधाई नमन। उक्त कृति साहित्य- जगत तथा जनमानस में अपना स्थान बनाएगी ऐसा मेरा विश्वास है,साथ ही मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं कि निकट भविष्य में श्री आकुल जी की छवि छंदशास्त्री के रूप में खुलकर साहित्य-गगन को आलोकित करेगी।

मौसम देता दंड है

छप्‍पय छंद

1

विक्षोभों से आज, कहीं मौसम बदले हैं।

कहीं बर्फ की मार, समंदर भी मचले हैं।

वक्रदृष्टि को देख, न समझे मौसम मानव।

अहंकार में मस्‍त बना बैठा है दानव ।

मौसम कोई भी रहे, क्‍या गर्मी क्‍या ठंड है।

जो चलता विपरीत है, मौसम देता दंड है।

 2

होता इंद्रियनिष्‍ठ रखे जो मन को वश में।

होता वही बलिष्‍ठ रखे जो तन को वश में।

समझदार इनसान, रखे प्रजनन को वश में।

पंचतत्‍व व्‍यवहार, रखे जीवन को वश में।

होड़ प्रकृति से सर्वदा, जीवन में करना नहीं।

पंचतत्‍व का संतुलन, जोड-तोड़, सपना नहीं।

6 नवंबर 2022

नहीं नारी अगर बेपीर होगी

प्रदत्त मापनी- 1222 1222 122 
आधार छंद- सुमेरु 
पदांत- होगी 
समांत- ईर  

नहीं नारी अगर बेपीर होगी ।
नई पीढ़ी नहीं तब वीर होगी ।
 
जहाँ लूटें बगीचे बागबाँ ही,
वहाँ फूटी हुई तकदीर होगी ।
 
भले ही चाँद को चाहें हजारों,
मगर दिन चार ही जागीर होगी ।
 
जहाँ अपनों ने' उसको दर्द बाँटे,
कहीं लैला कहीं वह हीर होगी ।
 
कई किस्से सुने हैं शादमानी*,
महकमे हैं जहाँ वह मीर होगी ।
 
कहीं खोया कहीं पाया बहुत है,
सही में साफ अब तसवीर होगी ।
 
नहीं ‘आकुल’ भरोसा छोड़ना बस,
मुहब्ब्त में कभी तासीर होगी ।

*शादमानी- खुशी