मनुष्य सामाजिक प्राणी है।
समाज में सहयोग, सहभागिता और व्यवहार से मनुष्य अपनी पहचान बनाता है। कुछ विशिष्ट
गुण उसमें जन्मजात होते हैं और कुछ संगति से विकसित होते हैं। इस प्रकार उन
विशिष्ट गुणों से वह समाज में अलग स्थान बनाता है। साहित्य संगीत और कला के गुणों से ही शिष्ट
(अनुशासित) मनुष्य युगों से विशिष्ट बनता आया है। कहा भी है-
साहित्यसंगीतकलाविहीन:
साक्षात्पशु:
पुच्छविषाणहीन: - भर्तृहरि
भावार्थ-
साहित्य, संगीत और कला विहीन मनुष्य बिना सींग और पूँछ वाले पशु की भाँति होता है।
साहित्य
मनुष्य को सजग रहने को प्रेरित करता है, संगीत मनुष्य को साधना और शान्ति का
मार्ग दिखाता है एवं कला मनुष्य को गुणवान् बनाती है। ये तीनों मनुष्य को श्रेष्ठता
की ओर अग्रसर करते हैं। ये तीनों मार्ग मनुष्य द्वारा मनुष्य के उत्थान के लिए
स्थापित हैं, जिनमें सर्वश्रेष्ठ है साहित्य, क्योंकि मनुष्य बिना सहयोग के
सजग नहीं रह पाता। उसे सम्बल प्रदान करता है, मनुष्य का साहचर्य। उत्थान के किसी
भी मार्ग पर वह प्रशस्त होता है और पीढ़ी दर पीढ़ी समाज में पथप्रदर्शन उसे
विशिष्ट से विशिष्टतम बनाने में सहयोग प्रदान करता है। इसीजिए साहित्य को समाज
का दर्पण कहते हैं।
साहित्य
तो युगों से पथप्रदर्शक रहा है। हमारे पुरातन ग्रंथ वेद, पुराण, उपनिषद्, गीता, महाभारत,
रामायण सदैव सचेतक रहे हैं और काल परिस्थितियों से लड़ने की क्षमता हमें इन
ग्रंथों से ही मिली है। साहित्य ने संगीत और कला को साहित्यिक सहयोग दिया, इसलिए
साहित्य, कला और संगीत में साहित्य को प्रथम स्थान प्राप्त है।
साहित्य
ने हमें सर्वप्रथम छन्द दिया जिसे गणों से निर्दिष्ट कर ग्रन्थों की रचना हुईं।
संगीत को साहित्य ने अभिव्यक्ति का स्वर प्रदान किया, जिससे थाटों का आधार तैयार
हुआ और राग रागनियों की उत्पत्ति हुई। योग, साधना और व्यायाम के शास्त्रीय
प्रवाधानों से विभिन्न कलाओं का उद्भव हुआ।
साहित्य
सम्पन्न व्यक्ति साहित्यकार कहलाता है। वर्तमान में किम्वदन्ती की तरह कहा
जाता है कि जिसकी कोई साहित्यिक कृति प्रकाशित नहीं, वह साहित्यकार नहीं माना
जाता। सतत रचनओं के पत्र-पत्रिकाओं, साझा संकलनों में प्रकाशन से धीरे-धीरे परिपक्वता
आती है, एक विशिष्ट पहचान बनती है और फिर साझा संकलनों के बाद रचनाकार आश्वस्त
हो कर एक दिन स्वतन्त्र अपनी कृति प्रकाशित करता है, जिसके माध्यम से वह अनेक
सोपानों को चढ़ता हुआ अपना व्यक्तित्व निखारता है।
आज
साहित्य प्रकाशकों की उदासीनता, उनकी व्यावसायिक विवशता के चलते हर रचनाकार, अर्थाभाव
के कारण साहित्यिक कृति को प्रकाशित करने का साहस नहीं कर पाता। यही कारण है कि
साहित्यकाश में सितारों की तरह चमकता तो है, लेकिन उसका प्रकाश दूर तक नहीं
फैलता। इसीलिए आज सहयोग आधारित काव्य विधाओं के साझा संकलनों में अपनी प्रतिभा
प्रकाशित करता है। साहित्यिक गोष्ठियों का अभाव, पुस्तकों पर चर्चा, विषय
प्रवर्तन आदि अब बहुत ही कम हो गए हैं।
सामाजिक समरसता, राष्ट्रीय अस्मिता, प्राकृतिक परिवेश और मानवीय सम्वेदना की सार्थक प्रस्तुतियों का संकलन है 'प्रेम पुष्प'
आज
अंतर्जाल पर साहित्यिक समूहों, सामाजिक समूहों, मित्रों के समूहों,
ई-पत्रिकाओं का जाल सा फैला हुआ है, लोग
ज्ञान भी प्राप्त कर रहे हैं, भ्रमित भी हो रहे हैं। फेसबुक साहित्य समूहों और
वाह्ट्सएप समूहों की भरमार है। अखिल भारतीय एक समूह ‘समरस’ का यह प्रथम साझा संकलन
‘प्रेम पुष्प‘ प्रकाशन से पूर्व मेरे हाथों में है। मैं उत्साहित हूँ, प्रयास
किया है कि संकलन की संक्षिप्त समीक्षा
से रचनाकारों का मनोबल भी बढ़े और प्रकाशन का मंतव्य, पूर्ण हो, मेहनत सफल हो।
राष्ट्रीय
हित चिन्तन, छन्दोबद्ध, छन्दमुक्त रचनाएँ, शृंगार रससिद्ध रचनाएँ, वीररस, गीत,
मुक्तक, कुण्डलिया, कविताओं से ओतप्रोत रचनाकारों का संसार अभिभूत कर देने वाला
है। छन्द के प्रति रचनाकारों की रुचि से हिन्दी छन्द साहित्य का भविष्य उज्ज्वल
दिखाई देता है। 62 कवियों और कवयत्रियों ने इसे बहुत ही खूबसूरत भावों से शृंगारित
किया है।
संयोग
ही कहेंगे इसे कि वर्णक्रम में संकलित रचनाकारों में प्रथम कवि ‘अक्षय बंसल’ की
‘बेटियॉं’ से आरम्भ हुआ संकलन इसकी पुष्टि करता है कि रचनाकारों में सृजन का
कितना ज़ुनून है, समाज और देश के प्रति उसके भीतर कितना प्रेम भरा हुआ है-
नियति
हो तुम
सकल विश्व की,तुम उद्गम का गर्व हो।
सागर मंथन का तुम अमृत,
बेटी..
**
बचपन की सुनहली यादों में खोया कवि बचपन को ढूँढ़ता है-
हाथों की थापें संग लोरी सुनाना
कदमों पर पग रख चलना सिखाना
गिरकर संभले या संभलकर चले !
बच्चे थे...
बड़े हो गये, देखते देखते...
**
रक्षाबन्धन (राखी) के लिए भाई-बहिन के अटूट बन्धन की कल्पना
करते हुए कवि ‘अनिल कुमार मिश्रा’ की रचना बहिन के प्रति नेह का सागर छलकाती है-
महज कलाई पर धागों का त्यौहार
नहीं
रिश्तों के संग संग बंधन है यह मन
का ।
गाँव के परिवेश से आया व्यक्ति शहर
की आपा-धापी से जब थका-हारा घर लौटता है तो गाँव की याद आती ही है, मिश्रा जी की
रचना-
‘कब से रहा पुकार कहो क्या गाँव
चलोगे’
बचपन की यादों से दुलराती सहलाती
रचना है।
‘अनुराग बाला पाराशर’ शॉर्ट फिल्म ‘दादू डॉट
कॉम’ में गीत लेखन और डॉक्यूमेंटरी फिल्म ‘रामद्वारा- द अनटोल्ड स्टोरी’ में
कान्सेप्ट की लेखिका रही हैं, की शृंगार रससिक्त रचना देश में फैली कुरूपता को
धता बताते हुए सिद्ध करती है कि ढाई आखर प्रेम से बढ़ कर कुछ नहीं, चातक मन तो
प्रेम में ही डूबा रहता है उसे दुनिया के झमेलों से क्या लेना देना-
जरा
पयोधि से पय मैं ले लूँ
फिर
बादल बनकर बरसूँगा।
कभी
मिला अवकाश प्रिये तो,
तुमसे
मन की बात करूँगा ।
प्रेम
में समर्पण को उद्यत रहने वाली नारी अवसर पड़ने पर अपने अदम्य साहस के साथ यह कहने
की भी हिम्मत रखती है, जिसे कवयित्री पाराशर ने इसे यूँ स्वर दिए हैं-
‘तुम
धृतराष्ट्र भले बन जाना, मैं गान्धारी नहीं बनूँगी’’
‘अलका माहेश्वरी’ का जीवन संदेश
नारी में अटूट विश्वास जगाता है। वे कहती हैं-
सागर जैसे विशाल बनो
और खो जाओ गहराइयों में
जीवन की तरंगों से जुड़ो
रँग जाओ प्रेम के गहरे रंग में।
कवि ‘नरसिंगाराम ‘जीनगर’ जी रिश्तों
की गिरते स्तर पर चिंतित हैं-
अपने पराये होने लगे। अर्थ
जो रिश्ते खोने लगे।
मानव मूल्य हैं बौने लगे। सद्गुण
निरर्थक कोने लगे।
आनन्द जैन ‘अकेला’ की ग़ज़ल जग
की सच्चाई को बयाँ करती है-
न समझा हक़ीक़त, जो इस ज़िन्दगी को,
ये रुकता न बहता, ज्यों पानी का रेला ।
रखा क्या है जग में, समझ कुछ ऐ बंदे,
मिलेगा तुझे स्वाद, केवल कसैला ।
इसके अतिरिक्त
शिखा
अग्रवाल की रचना ‘बोल भारत तूने क्या देखा...!, शेखर राम कृष्ण
तिवारी की ‘कुछ टूटे फूटे, कच्चे मकान, मेरे भी हैं’, श्रद्धा भाटे चौरे की कविता ‘तुम चेतनता हो जग की ,‘मैं स्वर ओज, क्षणिक पथ का’, विनीता निर्झर की ‘पायल की रुनझुन बिन घर का आँगन सूना लगता है’, विनीता अनिल शर्मा की ‘यह वक्त है गुजर जाएगा’
वासदेव किशनानी का देशभक्ति गीत ‘लड़ते-लड़ते, घायल
हो ग़र, रक्त मेरा, ये ले लेना, मातृ-भूमि के काम आऊँ, अहसास मुझे, ये दे देना’, वन्दना राज की कविता ‘क्या प्रतिनिधि मैं ईश्वर की हूँ’, आर.के.
जैन की ‘जीने के कुछ नियम सिखाये वर्द्धमान महावीर ने’, डॉ. मुकेश व्यास जी कालजयी रचना ‘हे भारत के भरतवंशी, तुम उठो बढ़ो इतिहास रचो’ संकलन का गौरव हैं।
इस किताब का
प्रतिभाशाली पक्ष है गणित व विज्ञान
में ओलम्पियाड विजेता एवं 2015 में
अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव, दिल्ली
में शार्ट फिल्म ‘दादू डॉट कॉम’ के लिए सर्वश्रेष्ठ बाल कलाकार का पुरस्कार
प्राप्त ‘आराध्य शर्मा’ की दो बाल रचनाएँ
‘पतंग’ और ‘दादी’, जो पाठकों का मन मोहेंगी।
संकलन में एक से बढ़ कर एक
प्रतिभावान् रचनाकारों की रचनाएँ हैं। अनेक कवि और कवयित्री उच्च शिक्षा प्राप्त
मेधावी, समाज सेवी, शिक्षक, बैंक कर्मी, रेल्वे के अधिकारी हैं, विेदेश में
सेवारत, लेखक, शोधार्थी हैं, सहायक पुस्तकालयाध्यक्ष आदि विभिन्न क्षेत्रों के
रचनाकार हैं। रचनाओं से कवि का व्यक्तित्व
भी मुखर होता है। कई रचनाओं के माध्यम से वे मनुष्य को सजग व खुश रहने का सन्देश
देतु हुए एक युग प्रवर्तक के रूप में भी दिखाई देते हैं। यह एक ऐसी कृति बन पड़ी
है जो समय का दस्तावेज कही जा सकती है। पुस्तक दीर्घकालिक प्रभाव छोड़ेगी। रचनाओं
में सामाजिक समरसता, राष्ट्रीय अस्मिता, प्राकृतिक परिवेश और मानवीय सम्वेदना की
सार्थक प्रस्तुतियाँ है ।
वर्तमान
में साहित्य संक्रमण काल से गुजर रहा है। इसलिए चिन्ता का नहीं चिन्तन का समय
है। साहित्य तो नदी की तरह सतत बहने वाला
प्रवाह है, जो अपने साथ निर्बाध कलुष को संग ले जाता है और साहित्य-सागर में जा
कर मिल जाता है।
महती
आवश्यकता है कि सारगर्भित, विशिष्ट विधाओं पर सशक्त साझा संकलन प्रकाशित होने
चाहिए । बाज उन्नत अंतर्जाल साहित्यकारों
को परस्पर बहुत समीप ला रहा है। दूसरे शब्दों में ‘वसुधैवकुटुम्बकम्’ की
अवधारणा को सिद्ध करने में साहित्य, संगीत और कला की त्रिवेणी सर्वश्रेष्ठ माध्यम
बन रही है।
62
रचनाकारों की लगभग सौ रचनाओं का संग्रह ‘प्रेम पुष्प’ के रूप में नहीं अपितु
‘पुष्पगुच्छ’ के रूप में आपको लम्बे समय तक सुरभित करता रहेगा। डॉ. मुकेश व्यास
इस श्रम साध्य यज्ञ को सम्पन्न करने में पूर्णत: सफल रहे हैं। राजकीय सार्वजनिक
मण्डल पुस्तकालय, कोटा की सहायक पुस्तकालयाध्यक्ष डॉ. शशि जैन जी ने परिवार में
अपनी जिम्मेदारियों के साथ-साथ इस दुरुह कार्य में समन्वय बनाये रख, इस यज्ञ को
शीघ्र सम्पन्न करवाने में जो परिश्रम
किया है, वह वरेण्य है। सभी रचनाकारों की प्रतिनिधि रचनाओं का यह संकलन हर साहित्य
प्रेमी के हाथें तक पहुँचे और ‘प्रेम पुष्प‘ की सुरभि सुदूर तक पहुँचे यही
शुभाकांक्षा।
एक
मुक्तक से लेखनी को विराम दूँगा-
केलेण्डर ने माह – रात - दिन, बदले अकसर दुनिया में।
मगर
उसी केलेण्डर को इक दिन ने बदला दुनिया में ।
मौक़े
कभी गँवाना मत ना, मिलते बार - बार ‘आकुल’,
रख
धीरज जीवन में आता, सबका इक दिन दुनिया में ।।
किमधिकम्
।
डॉ. गोपाल कृष्ण भट्ट ‘आकुल’,
24.10.2023 वरिष्ठ
साहित्यकार सम्पादक
विजय
दशमी
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