इस संग्रह में कुंडलिया छंद के सृजन को सरल बनाने हेतु इसमें सम्मिलित, दोहा, रोला ओर कुंडलिनी तीनों छंदों को विस्तार से बताते हुए उन पर लिखी रचनाओं को सम्मिलित कर कुंडलिया छंद को सिद्ध किया गया है। नवांकुरों को कुंडलिया छंद सृजन करने से पहले दोहा, रोला और कुंडलिनी छंद का अभ्यास करना अत्यावश्यक है ताकि कुंडलिया छंद त्रुटिहीन बन सके। इसी को दृष्टिगत रखते हुए इस संग्रह में चारों छंदों की रचनाओं को सम्मिलित किया गया है ।
दोहा, रोला, सोरठा आदि कई छंदों पर ब्रजभाषा का प्रभाव अधिक है, क्योंकि सर्वाधिक लोकोपयोगी, लोकरंजन ग्रंथ ‘’रामचरित मानस’’ ब्रजभाषा में रचित है। बिहारी, रैदास, कबीर, तुलसीदास, अष्टछाप कवियों ने ब्रजभाषा में ही सर्वाधिक रचनाएँ रची हैं। इसलिए कुंडलिया छंद में सम्मिलित उपर्युक्त तीनों छंदों में खड़ी बोली हिंदी की अपेक्षा ब्रजभाषा में रचित रचनाओं में माधुर्य अधिक मिलता है। इसलिए इस संग्रह में कई स्थानों पर ब्रजभाषा का प्रभाव दिखाई दे सकता है। साथ ही कुंडलिनी छंद में रचित ‘’सखा बत्तीसी’’ तो ब्रजभाषा में ही रची गई है। इसके माधुर्य को इस कुंडलिनी छंद में देखा जा सकता है-
हाथन करके ही लड़ैं, बंदर और गँवार ।
शरम करैं भूखे मरैं, रंगी और
कुम्हार ।। (दोहा)
रंगी और कुम्हार, बिना
रँग-गार सरै ना ।
सखा नहीं हो संग, कभी रँगदार लड़ै ना (अर्द्ध रोला) ।।7।।
यही माधुर्य दोहा में भी दृष्टव्य है-
भृति, पूँजी, साहस, भवन, ये ही अर्थ प्रदाय ।।84।।
अत: इस संग्रह में सम्मिलित चारों छंदों के बारे में संक्षेप
में जानते हैं-
दोहा-
यह अर्द्ध सम मात्रिक छंद है। इसके विषम और सम चरण के दो दो
पदों को समान मात्रा में अर्थात् विषम चरण 13 मात्रा और सम चरण 11 मात्रा में
बाँटा गया है। इस प्रकार 13, 11 पर यति धारित 24 मात्रा वाले छंद को दोहा कहा जाता है। उपर्युक्त उदाहरण
(उद्यम ही सत्कर्म है...) से यह स्पष्ट है। उद्यम ही सत्कर्म है (13 मात्रा)
भृति, पूँजी, साहस, भवन (13 मात्रा) उपर्युक्त दोहे में विषम चरण हैं एवं बिना
कर्म सब जाय (11 मात्रा) ये ही अर्थ प्रदाय (11 मात्रा) दोनों सम चरण हैं।
इस प्रकार शास्त्रों में दोहे के बारे में विधान है- दोहा (अर्द्ध सम मात्रिक छंद है जिसमें मात्रा भार- 24 होता है। 13,11 पर यति वाले इस छंद का विषमांत लघु गुरु माना गया है किंतु विद्वानों ने विषम चरणांत गुरु लघु गुरु (रगण) को लय की दृष्टि से श्रेष्ठ माना है । इसी प्रकार सम चरणांत गुरु-लघु अनिवार्य माना गया है।
वैसे
दोहे के अनेक भेद हैं, जो दोहे में प्रयुक्त लघु और गुरु वर्णों के प्रयोग पर
निर्दिष्ट हैं, किंत सामान्यतया दोहे का सृजन 13, 11 की यति के साथ विषमांत
लघु-गुरु (12) अथवा गुरु-लघु-गुरु (212-रगण) और सम चरणांत गुरु-लघु (21) को ही
दृष्टिगत रखते हुए सर्वाधिक चलन में है। इस प्रकार सुविधा की दृष्टि से दोहा सृजन
में इसके निम्न चलन को ध्यान में रख कर रचना की जाए तो दोहा सृजन सरल हो जाता
है। दोहा का निम्न चलन सर्वाधिक प्रयोग में लाया जाता है-
विषम
चरण 3,3,2,3,2 या 4,4,3,2 अंत लघु-गुरु (1,2) आवश्यक है, अर्थात इस चलन में दोनों
विषम चरण में अंत 3,2 है जिसे 2,1,2 (रगण) बनाने पर अंत स्वत: 1,2 आ जाता है।) । रगण
(212) को विषम चरण के अंत में श्रेष्ठ माना गया है। इसी प्रकार सम चरण 4,4,3 या 3,3,2,3 व अंत गुरु
लघु (21) होना चाहिए। इस चलन में अंत 3 का अर्थ (गुरु-लघु 21) समझना चाहिए। लय की
दृष्टि से दोहा ही नहीं किसी भी छंद में त्रिकल (तीन वर्ण के शब्द) के बाद त्रिकल को
आवश्यक माना गया है. इसका भी ध्यान रखा जाना चाहिए।
उपर्युक्त
दोहों में मात्राओं की गणना उक्त चलन में दृष्टव्य है-
(1)
उद्यम ही सत्कर्म है (4,4,3,2 या 3,3,2,3,2) के रूप में विषम चरण को जाँचा जा
सकता है। इसी प्रकार सम चरण को (4,4,3 या 3,3,2,3) के रूप में जाँचा जा सकता है।
(2)
उपर्युक्त कुंडलिनी छंद का आरंभ दोहे से हुआ है, और अंत अर्द्ध रोला से। जिसमें इसके चलन को इस
प्रकार देखा जा सकता है- हाथन करके ही
लड़ें (4,4,2,3), बंदर और गँवार (4,4,3)। शरम करैं भूखे मरैं (3,3,2,3,2),रंगी और
कुम्हार (4,4,3) ।
यह भी दोहे की भाँति 24 मात्रा भार का लेकिन 11,13 की यति वाला रोला देखें-
अर्द्ध सम मात्रिक छंद
है। रोला वस्तुत: चार चरणों एवं चार पंक्तियों का एक सम मात्रिक पारंपरिक छंद
है। रोला में सम चरणांत तुकांत और अंत दो गुरु अथवा वाचिक गुरु से होना चाहिए
। एक उदाहरण कुंडलिया छंद में
बंदर और गँवार, लड़ैं हाथन करकै ही ।। (रोला)
विषम
चरण 4,4,3 या 3,3,2,3 अंत गुरु लघु (21) आवश्यक। इसी प्रकार
सम चरण 3,2,4,4 या 3,2,3,3,2 से श्रेष्ठ
माना गया है. त्रिकल के बाद त्रिकल आवश्यक.
उपर्युक्त
कुंडलिनी में रोला में मात्राओं की गणना उक्त चलन में दृष्टव्य है-
रंगी
और कुम्हार (4,4,3
) बिना रँग-गार सरै ना (3,2,3,3,2) सखा नहीं हो संग (3,3,2,3) कभी
रँगदार लड़ै ना (3,2,3,3,2)।
इस
संग्रह में प्रकाशित रोलों, कुंडलिनियों और कुंडलिया छंदों में रोलों को जाँच कर रोला
छंद का अभ्यास किया जा सकता है।
कुंडलिनी-
कुछ
समय से कुंडलिनी छंद पर चर्चाएँ गरम हैं। कारण है कि यह एक नवीन छंद है जिस पर
रचनाकारों में भारी उत्साह भी है। प्रयोगधर्मी विद्वान् श्री ओम नीरव द्वारा इस
छंद को बस कलेवर (विधान) नाम देने की चर्चा विवादित है। लोग दो खेमे में बॅट गए
हैं। एक कहते हैं नये छंद का स्वागत होना चाहिए । दूसरे इसे छंद साहित्य में
छेड़-छाड़ कह कर बहिष्कृत करते हैं। इसके बावजूद इस छंद पर 70 से अधिक रचनाकारों
का एक संकलन ओम नीरव जी के सम्पादन में ‘कुंडलिनी लोक’ के नाम से प्रकाशित
भी हुआ है।
किंतु,
हम इसे छांदसिक दृष्टि से कुंडलिया छंद में इसकी स्थिति के मूल स्वरूप को देख कर
अभ्यास हेतु इसका वर्णन कर रहे हैं, क्योंकि यह कुंडलिया छंद का तो हिस्सा है ही
जिसमें कोई परिवर्तन या छेड़-छाड़ नहीं की गई है। कुंडलिया छंद को छोटा कर दिया
गया है। यूँ कह सकते हैं कि आरंभ कुंडलिया छंद की तरह ही है, बस पूँछ काट दी गई
है। छंदों पर ऐसे प्रयोग प्राचीनकाल से दोहा परिवार में विशेष रूप से होते रहे हैं
और आज भी हो रहे हैं। दोहे को पहले वार्णिक छंद माना जाता रहा, अब यह मात्रिक छंद
है। इसी संग्रह में देखें (छंद और दोहा परिवार पर आलेख )
सखा बत्तीसी से- (ब्रजभाषा में)
कागा गाय मुँडेर पै, सारे
देयँ उड़ाय ।
छिपौ पेड़ में गाय पिक, सबकौ
हिय हरसाय ।।
सबकौ हिय हरसाय, काक घर-घर
में झाँके ।
सखा संग मनसखा, सदा ही घर की
ढाँके ।।23।।
बकवादी
करते रहें, व्यर्थ बात दिन रात ।
तिल का
ताड़ बने कभी, बढ़े रार बिन बात ।।
बढ़े रार बिन
बात, गाँठ पड़ जाती मन में ।
जनश्रुतियाँ
दिन-रात, फैल जातीं जन-जन में ।।34।।
कुंडलिया छंद-
वैसे तो हर छंद पर विस्तार
से लिखा जा सकता है। नवांकुर इस छंद को आद्योपांत विस्तार से समझें इसलिए इसका उल्लेख
विस्तार से दोहा, रोला और कुंडलिनी को समझाते हुए अंत में किया है । छंद के इस
अप्रतिम स्वरूप को शिव के गले में कुंडलिया डाले सर्प की भाँति नामकरण को सिद्ध
करते हुए इसके विस्तार को समझें। शिव की ही कृपा रही होगी जो इस छंद का आविष्कार
हुआ। इसीलिए आलेख के अंत में मैंने शिववंदना कर आलेख का समापन किया है।
यह
छंद दो छंदों को मिला कर बनाया गया विषम मात्रिक छंद है। कुण्डलिया
छंद में कुल छः चरण होते हैं , क्रमागत
दो-दो चरण तुकांत होते हैं यानि एक पद
अर्थात् चार चरण जिसमें दो दो चरणों में अलग-अलग समान मात्राओं के दो-दो चरण हैं।
दूसरे शब्दों में,
दो विषम चरण समान मात्रा के, दो सम चरण समान मात्रा के।
सर्वप्रथम कुंडलिया छंद का एक उदाहरण लें-
मौसम कोई भी रहे, क्या गरमी क्या ठंड ।
जो
चलता विपरीत है,
मौसम देता दंड ।। (मर्कट दोहा)
मौसम
देता दंड, बदन की शामत आती ।
बेमौसम
बरसात,
सदा ही आफ़त ढाती ।।
भोजन
अरु व्यवहार,
निभाएँ जितना हो दम ।
चलें
प्रकृति अनुसार,
बचाएँ उतना मौसम ।।- रोला
दोहा-
कुल
24
मात्रा का छंद,13, 11 पर यति, चार चरण ,दो तुकान्त । विषम
चरणों में 13 मात्रा, आरम्भ
में 121 स्वतंत्र शब्द वर्जित, चरणान्त
में 12 /111 अनिवार्य । सम चरण 11 मात्रा, सम चरण के अंत में 21 (गुरु
लघु अनिवार्य । यहाँ यह दृष्टव्य है कि कुण्डलिया
के अंत में वाचिक भार 22 आता है ,
इसलिए दोहा का आरंभ भी वाचिक भार 22
से ही होना चाहिए अन्यथा पुनरागमन
दुरूह या असंभव हो जायेगा l यदि
त्रिकल से करेंगे तो आरंभिक शब्द के स्थान पर शब्द युग्म का सहारा लेना होगा
जिसका अंत 22 हो, इसलिए कुंडलिया छंद बनाते समय दोहे का आरंभ त्रिकल से करने से
बचना चाहिए।
(अ) चार चरण दो तुकांत –
चार
चरण-
विषम चरण (2)
–
1. मौसम कोई भी रहे (13 मात्रा) 2.
जो चलता विपरीत है (13 मात्रा). सम चरण (2)- 3. क्या गरमी क्या ठंड (11 मात्रा). 4. मौसम देता दंड (11 मात्रा).
(आ) दो तुकांत- दूसरे शब्दों में
दोहा में सम चरण तुकांत होता है. प्रस्तुत उदाहरण में देखें
(1) क्या गरमी क्या ठंड.
(2) मौसम देता दंड.
(3) दोहा के आरंभ में 121 (जगण) वाले स्वतंत्र शब्द वर्जित- जैसे सुधार, कपाल, अधीर, मनीष आदि। उदाहरण में देखें
आरंभ में सभी द्विकल या चौकल वाले शब्द हैं, मौसम,
जो, इससे लय बनती है, जगण (121) वाले शब्द के आरंभ से लय खटकती है.
(इ) चरणांत में 12/111 अनिवार्य- अर्थात विषम चरण में लघु गुरु या लघु लघु-लघु अनिवार्य. दृष्टव्य है कि
लघु-लघु-लघु सदा लघु गुरु (12) होता है। दोहा में विद्वानों में लय की प्रधानता को
ध्यान रखते हुए विषम चरणांत 212 (रगण) को प्राथमिकता दी है श्रेष्ठ माना है. यानि, विषम
चरणांत ‘गुरु लघु गुरु (212) या (11,
1, 11 या 3, 2) इस प्रकार विषम चरणांत में 111
/ 12 सिद्ध होता है।
(1) विषम चरण – 4, 4, 3, 2 या 3, 3, 2, 3, 2
(2) सम चरण – 4, 4, 3 या 3, 3, 2, 3
मौसम कोई भी रहे, क्या गरमी क्या ठंड ।
मौसम/कोई/भी/रहे (4,4,3,2) ‘क्या गर/मी क्या/ ठंड (4,4,3)’।
जो चलता विपरीत है, मौसम देता दंड ।।
जो चल/ ता विप/रीत/ है (4,4,3,2) मौसम/ देता/ दंड (4,4,3)।।
इसी प्रकार रोला के संदर्भ में विधान बताया था-
(इ) मौसम
देता दंड,
बदन की शामत आती।
बेमौसम बरसात, सदा ही आफत ढाती।।
भोजन अरु व्यवहार, निभायें जितना हो दम।
चले प्रकृति अनुसार, बचाये उतना मौसम।। (रोला)
(3) विषम चरण – 4, 4, 3 या 3, 3, 2, 3
(4) सम चरण – 3,2,4,4, या 3,2,3,3,2
(उ) उदाहरण से इसे सिद्ध करते हैं-
‘मौसम/देता/दंड’ (4,4,3),
बदन/की/शामत/आती
(3,2,4,4)
।
बेमौ/सम बर/सात (4,4,3),
सदा/ ही/
आफत/ ढाती/ (3,2,4,4)।।
भोजन/अरु व्यव/हार (4,4,3),
निभा/यें/
जितना/ हो दम (3,2,4,4)।
चले/ प्रकृति/ अनु/सार (3,3,2,3),
बचा/यें/
उतना/ मौसम (3,2,4,4)।।
2. दोहे का चौथा चरण (सम) अगले रोला का हूबहू प्रथम विषम चरण बनेगा । आगे, रोला में शेष चरण कथ्य के अनुसार तुकांत बनें।
‘’प्यारे
// हारे , निरादर // चादर’’ –(आ)
मौसम कोई भी रहे, क्या गरमी क्या ठंड।
जो
चलता विपरीत है,
मौसम देता दंड।। (दोहा)
मौसम
देता दंड, बदन की शामत आती।
बेमौसम
बरसात,
सदा ही आफत ढाती।।
भोजन
अरु व्यवहार,
निभायें जितना हो दम।
चलें
प्रकृति अनुसार,
बचायें उतना मौसम।। (रोला)
कुंडलिया छंद को सिद्ध कर देखें- (1) मौसम से आरंभ और मौसम से ही कुंडलिया का अंत है. (2) दोहे का चौथा चरण मौसम देता दंड, से पहला रोला आरंभ हो रहा है. (3) ठंड, दंड – आती, ढाती – हो दम –मौसम. तीनों तुकांत हैं. (4) दोनों रोला छंद के तुकांत अलग-अलग हैं.
अंत में- ध्यानाकर्षण –
(1)
कुंडलिया के अंत में दोहे के प्रथम सम चरण के आरंभ के शब्द या शब्द
समूह से तात्पर्य है कि यहाँ ‘’मौसम’’, ‘’मौसम कोई’’, ‘’मौसम कोई भी’’, ‘’मौसम कोई भी रहे’’. शब्द या शब्द समूह को लिया
जा सकता है. ‘’कोई’’, ‘’कोई
भी’’, ‘’मौसम भी’’, ‘’मौसम रहे’’,
‘’कोई भी रहे’’ नहीं प्रयुक्त किया जा
सकता। उसी के अनुरूप दूसरे रोले का तुकांत तय किया जाता है.
(आ)
छंद में तखल्लुस / उपनाम लेते हुए एक कुंडलिया छंद देखें-
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