कुंडलिया छन्‍द विधान


     जैसा कि पिछले आलेख में बताया गया है कि कुंडलिया छंद, दोहा परिवार का प्रख्‍यात छंद है। कुंडलिया छंद ही एक ऐसा छंद है जिसमें तीन छंदों का समावेश है, वे हैं दोहा, रोला और कुंडलिनी, लेकिन दोहा और रोला के योग से ही कुंडलिया छंद का निर्माण होता है। कुंडलिनी छंद अर्द्ध रोले से निर्मित दोहा और उसकी निरंतरता में कुंडलिया छंद की भाँति ही दोहे के अंतिम चरण अर्थात् दूसरे सम चरण को रोले के आरंभ में हूबहू ले कर विषम चरण बना कर  पूरा किया जाता है ।    

    इस संग्रह में कुंडलिया छंद के सृजन को सरल बनाने हेतु इसमें सम्मिलित, दोहा, रोला ओर कुंडलिनी तीनों छंदों को विस्‍तार से बताते हुए उन पर लिखी रचनाओं को सम्मिलित कर कुंडलिया छंद को सिद्ध किया गया है। नवांकुरों को कुंडलिया छंद सृजन करने से पहले दोहा, रोला और कुंडलिनी छंद का अभ्‍यास करना अत्‍यावश्‍यक है ताकि कुंडलिया छंद त्रुटिहीन बन सके। इसी को दृष्टिगत रखते हुए इस संग्रह में चारों छंदों की रचनाओं को सम्मिलित किया गया है ।    

    दोहा, रोला, सोरठा आदि कई छंदों पर ब्रजभाषा का प्रभाव अधिक है, क्‍योंकि सर्वाधिक लोकोपयोगी, लोकरंजन ग्रंथ ‘’रामचरित मानस’’ ब्रजभाषा में रचित है। बिहारी, रैदास, कबीर, तुलसीदास, अष्‍टछाप कवियों ने ब्रजभाषा में ही सर्वाधिक रचनाएँ रची हैं। इसलिए कुंडलिया छंद में सम्मिलित उपर्युक्‍त तीनों छंदों में खड़ी बोली हिंदी की अपेक्षा ब्रजभाषा में रचित रचनाओं में माधुर्य अधिक मिलता है। इसलिए इस संग्रह में कई स्‍थानों पर ब्रजभाषा का प्रभाव दिखाई दे सकता है। साथ ही कुंडलिनी छंद में रचित ‘’सखा बत्‍तीसी’’ तो ब्रजभाषा में ही रची गई है। इसके माधुर्य को इस कुंडलिनी छंद में देखा जा सकता है-

हाथन करके ही लड़ैं, बंदर और गँवार ।

शरम करैं भूखे मरैं, रंगी और कुम्‍हार ।। (दोहा)

रंगी और कुम्‍हार, बिना रँग-गार सरै ना ।

सखा नहीं हो संग, कभी रँगदार लड़ै ना (अर्द्ध रोला) ।।7।।

यही माधुर्य दोहा में भी दृष्‍टव्‍य है-

 उद्यम ही सत्कर्म है, बिना कर्म असहाय ।

भृति, पूँजी, साहस, भवन, ये ही अर्थ प्रदाय ।।84।।   

अत: इस संग्रह में सम्मिलित चारों छंदों के बारे में संक्षेप में जानते हैं- 

दोहा-

यह अर्द्ध सम मात्रिक छंद है। इसके विषम और सम चरण के दो दो पदों को समान मात्रा में अर्थात् विषम चरण 13 मात्रा और सम चरण 11 मात्रा में बाँटा गया है। इस प्रकार 13, 11 पर यति धारित 24 मात्रा वाले  छंद को दोहा कहा जाता है। उपर्युक्त उदाहरण (उद्यम ही सत्‍कर्म है...) से यह स्‍पष्‍ट है। उद्यम ही सत्‍कर्म है (13 मात्रा) भृति, पूँजी, साहस, भवन (13 मात्रा) उपर्युक्‍त दोहे में विषम चरण हैं एवं बिना कर्म सब जाय (11 मात्रा) ये ही अर्थ प्रदाय (11 मात्रा) दोनों सम चरण हैं।

इस प्रकार शास्‍त्रों में दोहे के बारे में विधान है- दोहा (अर्द्ध सम मात्रिक छंद है जिसमें मात्रा भार- 24 होता है। 13,11 पर यति वाले इस छंद का विषमांत लघु गुरु माना गया है किंतु विद्वानों ने विषम चरणांत  गुरु लघु गुरु (रगण) को लय की दृष्टि से श्रेष्‍ठ माना है । इसी प्रकार सम चरणांत गुरु-लघु अनिवार्य माना गया है।

 

वैसे दोहे के अनेक भेद हैं, जो दोहे में प्रयुक्‍त लघु और गुरु वर्णों के प्रयोग पर निर्दिष्‍ट हैं, किंत सामान्‍यतया दोहे का सृजन 13, 11 की यति के साथ विषमांत लघु-गुरु (12) अथवा गुरु-लघु-गुरु (212-रगण) और सम चरणांत गुरु-लघु (21) को ही दृष्टिगत रखते हुए सर्वाधिक चलन में है। इस प्रकार सुविधा की दृष्टि से दोहा सृजन में इसके निम्‍न चलन को ध्‍यान में रख कर रचना की जाए तो दोहा सृजन सरल हो जाता है। दोहा का निम्‍न चलन सर्वाधिक प्रयोग में लाया जाता है-

 

विषम चरण 3,3,2,3,2 या 4,4,3,2 अंत लघु-गुरु (1,2) आवश्‍यक है, अर्थात इस चलन में दोनों विषम चरण में अंत 3,2 है जिसे 2,1,2 (रगण) बनाने पर अंत स्‍वत: 1,2 आ जाता है।) । रगण (212) को विषम चरण के अंत में श्रेष्‍ठ माना गया है।  इसी प्रकार सम चरण 4,4,3 या 3,3,2,3 व अंत गुरु लघु (21) होना चाहिए। इस चलन में अंत 3 का अर्थ (गुरु-लघु 21) समझना चाहिए। लय की दृष्टि से दोहा ही नहीं किसी भी छंद में  त्रिकल (तीन वर्ण के शब्‍द) के बाद त्रिकल को आवश्‍यक माना गया है. इसका भी ध्‍यान रखा जाना चाहिए।

 

उपर्युक्‍त दोहों में मात्राओं की गणना उक्‍त चलन में दृष्‍टव्‍य है-

 

(1) उद्यम ही सत्‍कर्म है (4,4,3,2 या 3,3,2,3,2) के रूप में विषम चरण को जाँचा जा सकता है। इसी प्रकार सम चरण को (4,4,3 या 3,3,2,3) के रूप में जाँचा जा सकता है। 

 

(2) उपर्युक्‍त कुंडलिनी छंद का आरंभ दोहे से हुआ है,  और अंत अर्द्ध रोला से। जिसमें इसके चलन को इस प्रकार देखा जा सकता है-  हाथन करके ही लड़ें (4,4,2,3), बंदर और गँवार (4,4,3)। शरम करैं भूखे मरैं (3,3,2,3,2),रंगी और कुम्‍हार (4,4,3) ।     

 रोला-

यह भी दोहे की भाँति 24 मात्रा भार का लेकिन 11,13 की यति वाला ाथ ‍ा य त बहू अर्द्ध सम मात्रिक छंद है। रोला वस्‍तुत: चार चरणों एवं चार पंक्तियों का एक सम मात्रिक पारंपरिक छंद है। रोला में सम चरणांत तुकांत और अंत दो गुरु अथवा वाचिक गुरु से होना चाहिए । एक उदाहरण कुंडलिया छंद में  रोला देखें-

वन बीहड़, संथाल, सभी वृक्षाच्‍छादित हों ।
झूमे प्रकृति सदैव, प्राणि सब  आह्लादित हों ।।
पढ़ ‘आकुल’ के छंद, मनाओ प्रथम गजानन ।
और करो आरंभ, बनाओ नंदनकानन ।।58।।

 रोला छंद दोहे का उल्‍टा जैसा लगता है पर है नहीं, क्‍योंकि रोला में लय का प्रकार भिन्‍न है। दोहा का बिल्‍कुल / हूबहू उल्‍टा सोरठा छंद है, जो 11,13 की यति वाला 24 मात्रा वाला छंद ही है।  ऊपर वर्णित दो दोहों को हूबहू उल्‍टा करके सोरठा देखें-

बंदर और गँवार,  हाथन करकै ही लड़ैं ।
रंगी और कुम्‍हार, शरम करें भूखे मरैं ।। (सोरठा)
बिना कर्म असहाय, उद्यम ही सत्‍कर्म है।
ये ही अर्थ प्रदाय, भृति, पूँजी, साहस, भवन ।। (सोरठा)

 पहली पंक्ति को उल्‍टा करके रोला इस तरह बनाया जाता है, इससे सोरठा और रोला में अंतर देखा जा सकता है-

                                    बंदर और गँवार, लड़ैं हाथन करकै ही ।। (रोला)

 रोला में विषम चरणांत गुरु लघु और सम चरण तुकांत व दो गुरु से होना अनिवार्य है, जबकि सोरठा में विषम चरण ही तुकांत होता है। सम चरण नहीं । वैसे सोरठा में कई विद्वान् सम चरण को भी तुकांत के रूप में महत्‍व देते हैं पर यह अनिवार्य नहीं। चूँकि सोरठा दोहे का बिल्‍कुल विपरीत है, इसलिए सम चरणांत लघु-गुरु होना अनिवार्य है या यह कह सकते हैं वह स्‍वत: ही आ जाता है। सम चरणांत दो गुरु नहीं बनने के कारण उपर्युक्‍त सोरठा की दूसरी पंक्ति को रोला में निबद्ध नहीं किया जा सकता ।

 रोला का निम्‍न चलन प्रयोग में लिया जाना चाहिए-

विषम चरण 4,4,3 या 3,3,2,3 अंत गुरु लघु (21) आवश्‍यक। इसी प्रकार सम चरण 3,2,4,4 या 3,2,3,3,2 से श्रेष्‍ठ माना गया है. त्रिकल के बाद त्रिकल आवश्‍यक.

 

उपर्युक्‍त कुंडलिनी में रोला में मात्राओं की गणना उक्‍त चलन में दृष्टव्‍य है-

 

रंगी और कुम्‍हार (4,4,3 ) बिना रँग-गार सरै ना (3,2,3,3,2) सखा नहीं हो संग (3,3,2,3) कभी रँगदार लड़ै ना (3,2,3,3,2)।

 

इस संग्रह में प्रकाशित रोलों, कुंडलिनियों और कुंडलिया छंदों में रोलों को जाँच कर रोला छंद का अभ्‍यास किया जा सकता है।

           

कुंडलिनी-

कुछ समय से कुंडलिनी छंद पर चर्चाएँ गरम हैं। कारण है कि यह एक नवीन छंद है जिस पर रचनाकारों में भारी उत्‍साह भी है। प्रयोगधर्मी विद्वान् श्री ओम नीरव द्वारा इस छंद को बस कलेवर (विधान) नाम देने की चर्चा विवादित है। लोग दो खेमे में बॅट गए हैं। एक कहते हैं नये छंद का स्‍वागत होना चाहिए । दूसरे इसे छंद साहित्‍य में छेड़-छाड़ कह कर बहिष्‍कृत करते हैं। इसके बावजूद इस छंद पर 70 से अधिक रचनाकारों का एक संकलन ओम नीरव जी के सम्‍पादन में ‘कुंडलिनी लोक’ के नाम से प्रकाशित भी हुआ है।  

 

किंतु, हम इसे छांदसिक दृष्टि से कुंडलिया छंद में इसकी स्थिति के मूल स्‍वरूप को देख कर अभ्‍यास हेतु इसका वर्णन कर रहे हैं, क्‍योंकि यह कुंडलिया छंद का तो हिस्‍सा है ही जिसमें कोई परिवर्तन या छेड़-छाड़ नहीं की गई है। कुंडलिया छंद को छोटा कर दिया गया है। यूँ कह सकते हैं कि आरंभ कुंडलिया छंद की तरह ही है, बस पूँछ काट दी गई है। छंदों पर ऐसे प्रयोग प्राचीनकाल से दोहा परिवार में विशेष रूप से होते रहे हैं और आज भी हो रहे हैं। दोहे को पहले वार्णिक छंद माना जाता रहा, अब यह मात्रिक छंद है। इसी संग्रह में देखें (छंद और दोहा परिवार पर आलेख )

 कुंडलिया छंद एक दोहा व एक रोले के योग से निर्मित विषम मात्रिक छंद है।  कुंडलिनी छंद भी एक दोहा व अर्द्ध रोला के योग से बना विषम मात्रिक छंद है। कुंडलिनी का आरंभ दोहे की द्वितीय पंक्ति से आरंभ हो जाता है जिसमें सम चरण घूम कर तीसरी पंक्ति में विषम चरण बनता है और अर्द्ध रोला (केवल दो पंक्तियाँ) का निर्माण कर छंद को पूर्ण करता है। इसकी सार्थकता इस बात से पूरी होती है कि चार पंक्तियों में कही गई बात का समाधान होता है, अर्थात् इस छंद के लिए तर्क किया जाता है कि जो बात चार पंक्तियों में कही जा सकती है तो छ: पंक्तियों की आवश्‍यकता नहीं, इससे अभीष्‍ट भी सिद्ध होता है और नये छंद की खोज के लिए मार्ग भी प्रशस्‍त होता है।  साथ ही इसमें सरलता यह भी है कि कुंडलिया छंद की भाँति आरंभिक शब्‍द या शब्‍द युग्‍म से छंद का अंत होना आवश्‍यक नहीं।  

 मेरा मानना यह है कि यदि कुंडलिया छंद के आरंभिक दो युग्‍म जो कि दो छंदों का योग है हूबहू प्रयुक्‍त कर कोई नया नाम दें तो अनुचित क्‍या है। यहाँ अभ्‍यास के लिए इसे कुंडलिनी नाम पर तर्क न करते हुए स्‍थान दिया गया है ताकि हम इस पर अभ्‍यास कर सकें, क्‍योंकि श्रेणीबद्ध अभ्‍यास से मूल कुंडलिया छंद का सृजन हम सरलता से कर सकें और अन्‍य छंदों की सार्थकता को शिल्‍प और कथ्‍य में शिथिल न पड़ने दें, यही मेरा उद्देश्‍य है।  

 संग्रह में मुख्‍यतया कुंडलिनी छंद पर ‘सखा बत्‍तीसी’ द्रष्‍टव्‍य है जो ब्रजभाषा के सौंदर्यबोध से आकर्षित हो कर लिखी गई है तथा अन्‍य कुंडलिनी छंद भी पढ़े व समझे जा सकते हैं। उदाहरण स्‍वरूप दो कुंडलिनी छंद प्रस्‍तुत है, जिन्‍हें विस्‍तार से समझाने की आवश्‍यकता नहीं, क्‍योंकि इसमें प्रयुक्‍त दोहा और रोला के बारे में पूर्व में विस्‍तार से समझाया हुआ है। कुंडलिया छंद के अंतिम युग्‍म को हटा कर हूबहू इस छंद को समझा जा सकता है-

सखा बत्‍तीसी से- (ब्रजभाषा में)

कागा गाय मुँडेर पै, सारे देयँ उड़ाय ।

छिपौ पेड़ में गाय पिक, सबकौ हिय हरसाय ।।

सबकौ हिय हरसाय, काक घर-घर में झाँके ।

सखा संग मनसखा, सदा ही घर की ढाँके ।।23।।

 अन्‍य- (खड़ी बोली/हिंदी)

बकवादी करते रहें, व्‍यर्थ बात दिन रात ।

तिल का ताड़ बने कभी, बढ़े रार बिन बात ।।

बढ़े रार बिन बात, गाँठ पड़ जाती मन में ।

जनश्रुतियाँ दिन-रात, फैल जातीं जन-जन में ।।34।।

कुंडलिया छंद-

            वैसे तो हर छंद पर विस्तार से लिखा जा सकता है। नवांकुर इस छंद को आद्योपांत विस्तार से समझें इसलिए इसका उल्‍लेख विस्‍तार से दोहा, रोला और कुंडलिनी को समझाते हुए अंत में किया है । छंद के इस अप्रतिम स्वरूप को शिव के गले में कुंडलिया डाले सर्प की भाँति नामकरण को सिद्ध करते हुए इसके विस्तार को समझें। शिव की ही कृपा रही होगी जो इस छंद का आविष्कार हुआ। इसीलिए आलेख के अंत में मैंने शिववंदना कर आलेख का समापन किया है।

यह छंद दो छंदों को मिला कर बनाया गया विषम मात्रिक छंद है। कुण्डलिया छंद में कुल छः चरण होते हैं , क्रमागत दो-दो चरण तुकांत होते हैं यानि एक पद अर्थात् चार चरण जिसमें दो दो चरणों में अलग-अलग समान मात्राओं के दो-दो चरण हैं। दूसरे शब्दों में, दो विषम चरण समान मात्रा के, दो सम चरण समान मात्रा के।

सर्वप्रथम कुंडलिया छंद का एक उदाहरण लें-

मौसम कोई भी रहे, क्या गरमी क्या ठंड ।

जो चलता विपरीत है, मौसम देता दंड ।। (मर्कट दोहा)

मौसम देता दंड, बदन की शामत आती ।

बेमौसम बरसात, सदा ही आफ़त ढाती ।।

भोजन अरु व्यवहार, निभाएँ जितना हो दम ।

चलें प्रकृति अनुसार, बचाएँ उतना मौसम ।।- रोला

     अर्थात् एक दोहा और एक रोला मिल कर कुंडलिया छंद बनता है। आइए, पुन: दोहा, रोला को संक्षेप में समझते हुए उपर्युक्‍त कुंडलिया छंद को समझें-

दोहा- कुल 24 मात्रा का छंद,13, 11 पर यति,  चार चरण ,दो तुकान्त । विषम चरणों में 13 मात्रा, आरम्भ में 121 स्वतंत्र शब्द वर्जित, चरणान्त में 12 /111 अनिवार्य । सम चरण 11 मात्रा, सम चरण के अंत में 21 (गुरु लघु अनिवार्य । यहाँ यह दृष्‍टव्‍य है कि कुण्डलिया के अंत में वाचिक भार 22 आता है , इसलिए दोहा का आरंभ भी वाचिक भार 22 से ही होना चाहिए अन्यथा पुनरागमन दुरूह या असंभव हो जायेगा l यदि त्रिकल से करेंगे तो आरंभिक शब्‍द के स्‍थान पर शब्‍द युग्‍म का सहारा लेना होगा जिसका अंत 22 हो, इसलिए कुंडलिया छंद बनाते समय दोहे का आरंभ त्रिकल से करने से बचना चाहिए।

 इसे दिये गए उदाहरण में सिद्ध करके देखें-

() चार चरण दो तुकांत

चार चरण- विषम चरण (2) 1. मौसम कोई भी रहे (13 मात्रा) 2. जो चलता विपरीत है (13 मात्रा).          सम चरण (2)- 3. क्या गरमी क्या ठंड (11 मात्रा). 4. मौसम देता दंड (11 मात्रा).

(आ) दो तुकांत- दूसरे शब्दों में दोहा में सम चरण तुकांत होता है. प्रस्तुत उदाहरण में देखें

(1) क्या गरमी क्या ठंड.

(2) मौसम देता दंड.

(3) दोहा के आरंभ में 121 (जगण) वाले स्वतंत्र  शब्द वर्जित- जैसे सुधार, कपाल, अधीर, मनीष  आदि। उदाहरण में देखें आरंभ में सभी द्विकल या चौकल वाले शब्द हैं, मौसम, जो, इससे लय बनती है, जगण (121) वाले शब्द के आरंभ से लय खटकती है.

(इ) चरणांत में 12/111 अनिवार्य- अर्थात विषम चरण में लघु गुरु या लघु लघु-लघु अनिवार्य. दृष्टव्य है कि लघु-लघु-लघु सदा लघु गुरु (12) होता है। दोहा में विद्वानों में लय की प्रधानता को ध्यान  रखते हुए विषम चरणांत 212 (रगण) को प्राथमिकता दी है श्रेष्ठ माना है. यानि, विषम चरणांत गुरु लघु गुरु (212) या (11, 1, 11 या 3, 2) इस प्रकार विषम चरणांत में 111 / 12 सिद्ध होता है।

 उदाहरण में देखें- 1. भी रहे 2. विप रीत है

 (ई) विशेष- विद्वानों ने दोहा के लिए शीघ्र याद रह सके संक्षेप में बताया है कि निम्न मात्रा संयोजन से दोहा आसानी से बनाया जा सकता है-

(1) विषम चरण – 4, 4, 3, 2 या 3, 3, 2, 3, 2

(2) सम चरण – 4, 4, 3 या 3, 3, 2, 3

 आगे दिये उदाहरण से इसे सिद्ध करते हैं- प्रत्यूक पंक्ति को देखें-

मौसम कोई भी रहे, क्या गरमी क्या ठंड ।

मौसम/कोई/भी/रहे (4,4,3,2) क्या गर/मी क्या/ ठंड (4,4,3)’

जो चलता विपरीत है, मौसम देता दंड ।।

जो चल/ ता विप/रीत/ है (4,4,3,2) मौसम/ देता/ दंड (4,4,3)।।

इसी प्रकार रोला के संदर्भ में विधान बताया था-

 रोला- 11, 13 कुल 24 मात्रा का छंद है। रोला यानि 8 चरण, चार तुकान्त ।( तुकान्त दो दो पंक्ति का भी मान्य होता है) रोला के विषम चरणों में 11 मात्रा चरणान्त में त्रिकल अनिवार्य । सम चरणों में 13 मात्रा, आरम्भ में त्रिकल अनिवार्य अंत में गुरु अनिवार्य, अंत में 22. इसे प्रदत्त उदाहरण से स्‍पष्ट/सिद्ध करते हैं-

 (अ) 8 चरण चार तुकांत-

मौसम देता दंड, बदन की शामत आती।
बेमौसम बरसात, सदा ही आफत ढाती।।
भोजन अरु व्यवहार, निभायें जितना हो दम।
चलें प्रकृति अनुसार, बचायें उतना मौसम।। (रोला)

 (आ) विषम चरण में 11 मात्रा चरणांत में त्रिकल (21) अनिवार्य और सम चरण में 13 मात्रा आरंभ में त्रिकल अनिवार्य और अंत में गुरु अनिवार्य अंत 22 (22 / 211 / 112 / 1111)

 

(इ) मौसम देता दंड, बदन की शामत आती
बेमौसम बरसात, सदा ही आफत ढाती।।
भोजन अरु व्यवहार, निभायें जितना हो दम।
चले प्रकृति अनुसार, बचाये उतना मौसम।(रोला)

 (ई) विशेष- विद्वानों ने रोला के लिए शीघ्र याद रह सके संक्षेप में बताया है कि निम्न मात्रा संयोजन से रोला आसानी से बनाया जा सकता है-

(3) विषम चरण – 4, 4, 3 या 3, 3, 2, 3

(4) सम चरण – 3,2,4,4, या 3,2,3,3,2

(उ) उदाहरण से इसे सिद्ध करते हैं-

मौसम/देता/दंड’ (4,4,3),

बदन/की/शामत/आती (3,2,4,4)
बेमौ/सम बर/सात (4,4,3),

सदा/ ही/ आफत/ ढाती/ (3,2,4,4)।।
भोजन/अरु व्यव/हार (4,4,3),

निभा/यें/ जितना/ हो दम (3,2,4,4)
चले/ प्रकृति/ अनु/सार (3,3,2,3),

बचा/यें/ उतना/ मौसम (3,2,4,4)।।

 कुंडलिया छंद-  उपर्युक्त विधान को ध्यान में रख कर एक दोहा और एक रोला मिला कर कुंडलिया छंद इस प्रकार बनता है-

 1. पहले एक दोहा। यहाँ यह दृष्‍टव्‍य है कि कुण्डलिया के अंत में वाचिक भार 22 आता है, इसलिए दोहे का प्रारंभ भी वाचिक भार 22 से ही होना चाहिए अन्यथा पुनरागमन दुरूह या असंभव हो जायेगा l इसलिए कुंडलिया छंद बनाते समय दोहे का आरंभ त्रिकल से करने से बचना चाहिए।

 2. दोहे का चौथा चरण (सम) अगले रोला का हूबहू प्रथम विषम चरण बनेगा । आगे, रोला में शेष चरण कथ्य के अनुसार तुकांत बनें।

 3. रोले का अंतिम चरणांत (सम) दोहे के प्रथम चरण (विषम) के शब्द या शब्द समूह से तुकांत बने ताकि रोला सिद्ध हो सके।

 4. कुंडलिया छंद का मुख्य भाग है इसका अंतिम चरण, जिसमें दोहे के प्रथम (विषम) चरण का आरंभिक शब्द या उससे लगे हुए आगे के शब्द समूह का आरोही क्रम में आना अनिवार्य है। उसी के अनुरूप ही रोला तुकांत बने।

 5. रोला की पहली व दूसरी  पंक्ति में समान तुकांत आवश्यक नहीं अर्थात् भिन्‍न तुकांत बनाए जा सकते हैं। जैसा किसी इस लेख में दोनों कुंडलिया छंद में देखें-

 ‘’आती // ढाती , हो दम // मौसम’’ –(अ)

‘’प्‍यारे // हारे , निरादर // चादर’’ –(आ)

 6. कुंडलिया छंद की सर्प की कुंडली जैसी चाल है। इस कुंडलिया छंद में पहला शब्द मौसम छंद के अंत में आ रहा है, दोहे का चौथा चरण मौसम देता दंडरोले का प्रथम चरण बना है, रोले की तीसरी पंक्ति में कवि अपना नाम, उपनाम या तखल्लुस कहता हुआ पढ़ ‘आकुल’ के छंद (तखल्लुस या नाम) लिख सकता है, जिसका कुंडली के मूल भाव से कोई सम्बंध नहीं होता। ग़ज़ल में भी कुंडलिया छंद की भाँति अंतिम शेर में यानि मक्‍ता में तखल्लुस यानि उपनाम के साथ उल्लेख किया जाता है।)

 (अ) आइये कुंडलिया को बिना उपनाम/तखल्‍लुस सिद्ध करें-

मौसम कोई भी रहे, क्या गरमी क्या ठंड

जो चलता विपरीत है, मौसम देता दंड।। (दोहा)

मौसम देता दंड, बदन की शामत आती

बेमौसम बरसात, सदा ही आफत ढाती।।

भोजन अरु व्यवहार, निभायें जितना हो दम

चलें प्रकृति अनुसार, बचायें उतना मौसम।। (रोला)

कुंडलिया छंद को सिद्ध कर देखें- (1) मौसम से आरंभ और मौसम से ही कुंडलिया का अंत है. (2) दोहे का चौथा चरण मौसम देता दंड, से पहला रोला आरंभ हो रहा है. (3) ठंड, दंडआती, ढाती हो दम मौसम. तीनों तुकांत हैं. (4) दोनों रोला छंद के तुकांत अलग-अलग हैं.

अंत में- ध्यानाकर्षण

(1) कुंडलिया के अंत में दोहे के प्रथम सम चरण के आरंभ के शब्द या शब्द समूह से तात्पर्य है कि यहाँ ‘’मौसम’’, ‘’मौसम कोई’’, ‘’मौसम कोई भी’’, ‘’मौसम कोई भी रहे’’. शब्द या शब्द समूह को लिया जा सकता है. ‘’कोई’’, ‘’कोई भी’’, ‘’मौसम भी’’, ‘’मौसम रहे’’, ‘’कोई भी रहे’’ नहीं प्रयुक्त किया जा सकता। उसी के अनुरूप दूसरे रोले का तुकांत तय किया जाता है.

 (2) आरंभ या बीच में त्रिकल हो तो साथ ही एक त्रिकल भी होना अनिवार्य है

 (3) संक्षेप में दोहा या रोला के सम या विषम चरण का संयोजन दो में से कोई एक सिद्ध होना चाहिए (4) संपूर्ण कुंडली में शिल्प की तरह कथ्य में भी भाव स्पष्ट व प्रबल होना चाहिए.

(आ) छंद में तखल्‍लुस / उपनाम लेते हुए एक कुंडलिया छंद देखें-

चादर’ छोटी या बड़ी, ढक तू पाँव समेट।
जगत् चल रहा कर्ज से, ‘हाथ धरे मत बैठ। (हंस)
हाथ धरे मत बैठ, कर्म करता जा प्यारे।
इतना ही ले कर्ज, थके ना तू ना हारे।
’पढ़  ‘आकुल’ के छंद, चुकाना इसको सादर ।
कर्ज बने ना मर्ज, कर्ज से फटे न ‘चादर’ ।।68।।

 पूरा विश्वास है कि दोहा, रोला एवं कुंडलिनी के उपर्युक्‍त विधानों को समझ कर रचनाकार सुगमता से कुंडलिया छंद का सृजन कर पायेंगे ।

 छंद शास्त्र में दो छंदों को मिला कर बने छंदों को उपगीत छंद की संज्ञा दी गई है। कुंडलिया छंद इसी क्रम का एक छंद है। शिववंदना के साथ उपगीत छंद के एक उदाहरण से मैं अपना यह लेख पूर्ण करता हूँ-

 कर्पूरगौरं करुणावतारं,
संसारसारं भुजगेंद्रहारं। (इंद्रवज्रा छंद)
सदावसंतं हृदयारविंदे,
भवं भवानी सहितं नमामी।। (उपेंद्रवज्रा छंद)

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