लघु आकार में लघुकथा संग्रह ‘’अँजुरी भर सितारे’’ देख उसे उलट -पुलट कर निहारा।
अमेरिका में बसी अपनी दस वर्षीय दुहती त्विषा (प्रभा) के बनाये मुखपृष्ठ और
विदुषी बेटी विभा के बनाए पिछले पृष्ठ को गहराई से निहारा, उस पर कितने ही भाव
प्रकट हुए, उन्हें जल्दी ही लेखनी से बाँध लूँ (कैद कर लूँ) चाह हुई और किताब की
समीक्षा लिखने के लिए किताब को पढ़ने को उद्यत हुआ।आद्योपांत पढ़ कर एक
लंबी साँस ली। दिन भर संग्रह की छोटी-छोटी कहानियाँ मुझे उद्वेलित करती रहीं।
आवरण और पीछे के पृष्ठ के बारे में तो स्वयं ‘प्रेमपुष्प’ जी ने सुंदर भावनात्मक
वर्णन कर ही रखा है। यही सारगर्भित भी है। ‘प्रेमपुष्प’ जी के इस संग्रह पर समीक्षा
करने का दुरुह कार्य इसलिए भी करने को मन हुआ कि मैं उनकी त्रैमासिक पत्रिका
‘अनहद कृति’ के फरवरी 2020 में बोधि नगरी धर्मशाला (हि.प्र.) में हुए एक
अविस्मरणीय समारोह में सम्मिलित होने का सौभाग्य मिला, जहाँ उनके व्यक्तित्व
को समीप से परखने का अवसर मिला। वहाँ उनसे ही नहीं उनके पूरे साहित्यिक
परिवार का साहित्य से अकल्पनीय जुड़ाव एक स्वर्गिक अनुभव रहा। ‘’प्रेमपुष्प’’ जी
के परिवार सहित ‘’अनहद कृति परिवार’’ के सान्निध्य में दो दिन पवित्र कथा की
तरह ही घटित हुए। बाल प्रतिभा संपन्न उनकी दुहती त्विषा की कला प्रदर्शनी
धर्मशाला के समारोह में दर्शनीय थी! प्रबंध संचालन सुपुत्री विभा का और तकनीकी
नियंत्रण उनके यामाता का श्लाघनीय रहा था। त्विषा के चित्र अनहद कृति के हर
अंक का मुखपृष्ठ होता है। प्रतिभा को प्रश्रय देना और उसे प्रोत्साहित करना इस
प्ररिवार की विशेषता है ।
लेखिका के अन्य साहित्य पुष्पों में ‘’आवाज़ें मेरे अंदर’’ (कविताएँ)- 2014 और ‘कण
कण फैलता आकाश मेरा’ (काव्य संगह )-2020 का सरसरी नज़र में अवगाहन किया
। काव्य संग्रह का तो वहाँ लोकार्पण भी हुआ था। बाद में यह पुस्तकें मुझे डाक से
मिलीं और आद्योपांत पढ़ने का अवसर मिला। मैं उनके व्यक्तित्व से प्रभावित हुए
बिना नहीं रह सका। यह समारोह कम पारिवारिक स्नेह मिलवर्तन अधिक रहा । कोई
भी सत्य घटना जब लेखनी से उकेरी जाती है, कथा की तरह पवित्र हो जाती है,
कदाचित् इसी कारण छोटी-छोटी कहानियों को लघुकथा नामकरण दिया जाता है।
मेरा ऐसा मानना है कि जहाँ कहानी काल्पनिकता से ओतप्रोत होती है, वहीं कथा में
शिल्प, कहानी जैसा ही होता है, बस यथार्थ की घटना का संदर्भ उसमें अवश्य
सम्मिलित होता है। यह सत्य भी है।
हमारी पुरातन संस्कृति के तले हम कथाओं को मानसिक रूप से पौराणिक गाथाओं
से जोड़ते हैं। शाब्दिक अर्थ देखें तो ‘कथ्य’ शब्द को कल्पित या मनगढ़ंत कहानी भी
उल्लिखित किया है। पर मैं समझता हूँ, कथा में वृत्तांत, संदर्भ का उल्लेख सत्यता के
निकष पर खरा उतरता है और कल्पना को सत्यता के निकट पाता है, तब कहानी का
कथा रूप जन्म लेता है, इसलिए ग्रंथ या पुस्तक में उनका उल्लेख एक पवित्रता लिए
हुए ज्ञानार्जन, दृष्टांत रूप में जीवन को एक दर्शन देता है। “अपनी बात” में लेखिका
ने कहा भी है “लघुकथा चाहे आज की आपाधापीके समय के दृष्टिगत छोटे कलेवर में
रची गई घटना प्रधान कहानी होती है, लेकिन यह कहानी भी एक विशेष उद्देश्य को
लेकर ही चलती है।“ “दो शब्द” में बेटी विभा चसवाल ने भी यही बात कही है
’पाठक रिश्तों की मुस्कान को अपने अंदर लिए ही आगे बढ़ता है। लेखिका की कलम
कहानी सुनाती भी है...”
‘प्रेमपुष्प’ जी की साहित्यिक अभिरुचि का संसार लोकरंग में रचा बसा है। यह
अचानक नहीं, परिस्थिति वश ही कहेंगे कि उनका त्रिकोणीय पारिवारिक परिवेश ही
इन कथाओं की उपज है, जिसमें विदेशी जुड़ाव से अंग्रेजी में पगे हए शब्द हैं, पंजाबी
बोली का प्रभाव भी है और हिंदी-उर्दू की प्रचलित भाषा की गंगा-जमनी पैठ भी है
पंजाब की उर्वर पवित्र भूमि से जुड़ीं वरिष्ठ लेखिका प्रेमलता चसवाल ‘प्रेमपुष्प’ के
लघुकथा संग्रह ‘अँजुरी भर सितारे’ ऐसी ही लोकरंग में सनी, बसी, पगी छोटी-छोटी
कहानियों की माला है। उनकी बोली में भी पंजाबी प्रभाव ज्यादा है, ऐसे मैं हिंदी में
लघुकथाओं के संग्रह की पहल उनका गुणाढ्य पक्ष है।
आइए, पुस्तक के प्रथम शब्द ‘अँजुरी’ से ही आरंभ करते हैं। ‘’अंजलि’’ का लोकरंजक
शब्द ‘’अँजुली’’ और लोकभाषा की गहराइयों में डूबा हुआ ‘’अँजुरी’’ को सिद्ध करता
प्रयोग ‘’प्रेमपुष्प’’ जी की लघुकथाओं में आंचलिक अपनत्व को पढ़ कर मुग्ध कर
देता है।
‘’होमोसेपियन’’ मानव की जिज्ञासा ने साहित्य की उन ऊँचाइयों को छुआ था, जब
वेद पुराणों, उपनिषदों का रचनाकाल था। धीरे-धीरे वह जिज्ञासा उदासीन होती गई,
महाभारत, रामायण, भक्ति काल से होती हुई आज गद्य में लघुकथा तक और काव्य
में हाइकु तक पहुँच गई है। कलयुग (कलियुग) की बलिहारी है कि आज नव की
जिज्ञासा ज्ञान से हट कर विज्ञान और तकनीक (कल) की ओर ज्यादा बढ़ रही है।
जहाँ, काव्य अब छंदमुक्त ज्यादा लिखा जा रहा है वहीं, उपन्यास अब कहानियों और
लघुकथाओं में सिमट रहे हैं। काल परिस्थितियों ने साहित्य को ही नहीं भाषा को भी
चोट पहुँचाई है। परतंत्रता ने हमारी भाषाओं पर चोट की और अपनी भाषाएँ थोपीं।
भारतीय परिप्रेक्ष्य में अंग्रेजी और उर्दू के प्रयोग से हिंदी आज भी दोयम दर्जे की
भाषा बनी हुई है। परिणाम देख लें, विश्व की तीसरे सोपान पर स्थापित हिंदी, आज
भारत में सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा होते हुए भी हमारी राष्ट्रभाषा नहीं बन पा
। अपने ही देश में प्रांतीय भाषाओं ने हिंदी को ही अपनी प्रतिस्पर्द्धा में ले लिया।
हिंदी साहित्य का पुस्तक रूप विशुद्ध नहीं तो शुद्ध हिंदी (हिंदी की पुस्तकों में) तो
होना ही चाहिए।
प्रयोगधर्मी प्रेमपुष्पजी के लघुकथा संग्रह में वर्तमान के भाषा-भाषी चलन से रूबरू
कराता हुआ चित्रण है। संग्रह में हिंदी, उर्दू, अंग्रेजी के शब्दों का आवश्यकता के अनुरूप
किंतु अधिक प्रयोग हुआ है, जैसे- स्मार्ट जिज्ञासा’, स्मार्ट फोन, मनी ट्रांसफर, वैव,
हसबेंड की डेथ, सिम्पल, एडवरटाइजमेंट, ट्रे, स्कूल ड्रेस,फंड, पैन-कापी, मास्टरजी, सैकंड
ए.सी., रिजर्व डिब्बों, बिस्कुटी रंग, ब्रेड-दूध, गिफ्ट पैक, फेस पैक, फेस वाश, गार्डन चेयर,
लिक्विड डिटाल साबुन, पर्सनेलिटी, लिस्ट, मिसेज, मिसिज़, स्क्रीन, वीकेंड,
जस्टिफिकेशन, फीस, सैक्स हेरासमेंट, फ्लैट, अलाट, पॉटी आदि । हो सकता है यह
शैल्पिक तनाव को कम करने के लिए किया गया होगा, किंतु विद्वानों को खटकेगा ।
रचनाओं में विदेशी परिवेश का समावेश कम, अभिजात्य वर्ग के भाषा-भाषी प्रदूषण
का प्रभाव ज्यादा है। संग्रह की ज्यादातर लघुकथाओं में सामाजिक (देशी/विदेशी),
प्राकृतिक, पशु-पक्षियों से सरोकार के साथ साथ पंजाब की माटी की सौंधी-सौंधी
खुशबू भी दृष्टिगोचर होती है।
आम आदमी के लिए जीवन एक सतत प्रवाह हो सकता है किन्तु लेखिका कह दृष्ब्ि
उसमें मिलते जा रहे अपशिष्टों, धूल, पत्ते, गंदगी आदि पर जाती है और हर क्षण
जैसे एक लघुकथा के रूप में लिखा जा सकता है, सोच कर उन्होंने कलम चलाई है।
हर लघुकथा की अपनी अलग छटा है। माटी की गंध, प्रकृति का परिवेश, उस परिवेश
का मानवीय सृष्टि द्वारा रूपान्तर ये सब कारण कथा के रूप, रस, गंध, वर्ण, को
प्रभावित करते हैं।मानवीय भावनाओं और संवेगों की मूल प्रकृति सदा और सब कहीं
एक सी है, किन्तु द्रव्य क्षेत्र काल परिवेश एवं मानवीय सम्पर्कों की नयी भावभूमि
दृष्टि और अभिव्यकित के नए चमत्कार पैदा करती रहती है। यहीं हम उन छोटी
छोटी घटनाओं का धरातल देखते हैं जिन्हें लेखिका ने जैसे दौड़ते हुए पकड़ा है जिसे
आम जीवन में अकसर आया-गया कर दिया जाता है । यही अंतर होता है सामान्य
और असामान्य में। लेखिका ने जीवन के हर क्षण को कथा के रूप में जिया है।
उन्होंने ‘’गौ माता’’ में बताया है कि गौ को माता क्यों कहते हैं, दूध तो भैंस भी देती
है। मॉं अपना सर्वस्व निछावर करने में भेद नहीं करती। तकनीक और भौतिक सुख
उपभोग के प्रभाव को संस्कारों के प्रदूषण के रूप में बता कर आज की पीढ़ी को
उन्होनं स्मार्ट जिज्ञासा, राज़ की बात लघुकथा के माध्यम चेताया है।
‘अपना ग्रह शनि निवारण’ से उन सुलक्षणा नारियों की आधुनिकता से उत्पन्न विषाद
का निराकरण भारतीय परमपरागत तरीके से कर उदाहरण प्रस्तुत किया है।
‘प्रवचन’, शिव सृष्टि संचालन’, सातवाँ कुँआ’,‘सेर को सवासेर’ बोध कथा की तरह
लगेंगे पाठकों को। ‘हथेली पर बाल’ अकबर-बीरबल की कथा को लघुकथा में पिरोना
थोड़ा नाटकीय लगा क्योंकि सात साल की बच्ची से ‘क्रिप्टो करेंसी’ और’ मनी
ट्रांसफर’ जैसी गूढ़ तकनीकी बात पाठकों के कम गले उतरेगी।
‘मेरे ठाकुरजी’ लघुकथा इस संग्रह में नहीं होनी चाहिए थी। यह धार्मिक आस्था को
चोट पहुँचाती है। हिंदू धर्म तो बहुत सहिष्णु है, अन्य धर्मों में तो फतवे तक जारी हो
जाते हैं। धमकियाँ मिलने लगती है। आप शहीदों को फाँसी पर चढ़ाने जैसा कटु सत्य
नहीं लिख सकते। यहाँ यह कथा ‘कल्पनातीत’ लगी। कई सच्चाइयाँ महसूस की जाती
हैं, उजागर नहीं। जब आप वैज्ञानिक हो जाते हैं तो क्या पशु, क्या मनुष्य सभी एक
तराजू में तोले जाते हैं, भारत रत्न लता के गले के हिस्से को परीक्षण के लिए
अमेरिका भेजा गया इसका ताजा उदाहरण है, ऐसे में गाय के प्रति विदेशियों या
प्रयोगशालाओं में यह कहना ‘गाय के लिए भारत में लोग उन्मादी क्यों हैं’ यह
भारतीय संस्कृति में पले बढ़े लोगों के लिए कोतूहल तो लगेगा ही, ये उन्माद भारत
में वोट बैंक बढ़ाता है तभी तो ऐतिहासिक दस्तावेजों को तोड़ मरोड़ कर फिल्में
बनाना, हाल ही में महाराणा प्रताप, गंगूबाई काठियावाड़ी आदि अनेक उन्मादी
घटनाओं से भारतीय परिवेश के 23वीं सदी में अप्रत्याशित लगता है। ऐसी घटनाएँ
हमें सैंकड़ों वर्ष पीछे धकेलती हैं। नारी पर हो रहे अत्याचारों पर भी लघुकथाएँ नहीं
लिखी जानी चाहिए।
विषय से हट कर उपर्युक्त घटनाओं का उल्लेख इसलिए किया कि लेखिका का सतत
लेखक प्रवाह आगे कहीं ‘’मेरे ठाकुरजी जी’’ जैसी कोई कहानी न उकेर दे। कथाओं को
समसामयिक समेकित करना, उसके लिए धरातल तैयार करना और सही समय पर
पुस्तक के रूप में उसे मूर्तरूप देना बहुत ही दुष्कर कार्य है, जिसे लेखका ने बहुत
तन्मयता से रचा हुआ का दस्तावेज हैं। ‘’प्रेमपुष्प जी’’ की अंत:प्रेरणा ने सभी लघु
कहानियों काे कथारूप दिया, यह सर्वोपरि हैं क्योंकि दिवाकर के रश्मिपुंज में विचार
तीव्रगति से धुँधले होते जाते हैं और आतप की तीव्रता मन को निढाल कर देती है,
आगे आने वाले विचार पीछे के विचारों पर हावी होने लगते हैं, ऐसे में उन्हें शीघ्र ही
लेखनी से उकेर देना ही श्रेयस्कर है, यह कार्य ‘प्रेमपुष्पजी’ ने बहुत ही सावधानी से
किया है, क्योंकि जिसे हम भाषाई प्रदूषण कहते हैं, वह समय की माँग समझकर
लघुकथा के प्रति नवांकुर नए लघुकथा लेखक आकर्षित होंगे, उनका साहस इस दृष्टि
से प्रशंसनीय है, जो नितांत ही सर्वमान्य होना चाहिए।
छोटे बड़े 47 ‘अँजुरी भर सितारे’ लघुकथा संसार को प्रकाशित करते रहें, मेरी
शुभाशंसा।
-आकुल
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