अंधविश्वास का शाब्दिक अर्थ है आँख बंद कर विश्वास करना। इसका अगला और भयावह कदम है उसका अनुकरण या अनुसरण करना। इसके मुख्य कारण हैं-
हमारी पुरानी मान्यताएँ, किम्वदन्तियाँ, समाज में फैली भ्रांतियाँ, कुरीतियाँ, परम्पराएँ, चमत्कार को नमस्कार आदि को जब तथाकथित विद्वानों या अशिक्षितों के मध्य कुछ शिक्षित लोगों द्वारा इसे हवा दी जाती है, तो अंधविश्वास गहरी पैठ बनाता है।
इसे और अधिक समझने के लिए केवल एक उदाहरण देखें-
पहले माना जाता था कि सूर्य चलता है पृथ्वी नहीं चलती। अगर ऐसा होता तो सूर्य पूर्व दिशा में ही क्यों उदय होता, पश्चिम में ही क्यों अस्त होता। किसी देश में वह उत्तर या दक्षिण में उदय या अस्त होता। धीरे-धीरे यह मान्यता खत्म हुई और आज हम मानते हैं कि पृथ्वी ही चलती है। 70 प्रतिशत समुद्र में डूबे रहने और ज्वार के कारण इसमें दायें बायें विचलन की स्थिति निरंतर बनी रहती है, इसलिए सूर्य की दक्षिाणायन और उत्तरायण की स्थिति बनती है। किंतु यह मान्यता युगों से इसलिए मुखर थी कि आँखों से यह दिखाई भी देता था कि हम जिस धरती पर रहते हैं, चलते हैं, उठते-बैठते हैं वह अचल है। इसीलिए पृथ्वी को आज भी अचला कहा जाता है । क्या यह शब्द अब शब्दकोश से नहीं हटा दिया जाना चाहिए? यह मान्यता तब तक मान्य रही जब तक वैज्ञानिकों ने पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति से परे जा कर ब्रह्माण्ड से उसे घूमते हुए नहीं देख लिया। यह सब हमने ज्ञान और विज्ञान से जाना, अर्थात् सतत इसकी गहराई में जा कर इसकी खोज की और प्राप्त परिणामों से निष्कर्ष ही नहीं निकाला, अपितु सिद्ध भी किया कि पृथ्वी ही चलती है और भौगोलिक वातावरण के परिणामस्वरूप ही मौसम आते जाते हैं और सूर्य से प्राप्त ऊर्जा से वर्षपर्यन्त मौसम नियंत्रित होते हैं।
स्वर्ग और नर्क की फैली अवधारणा भी इसी क्रम में ली जा सकती है। ईश्वर का अस्तित्व श्रद्धा और आस्था का धार्मिक मूल्यांकन है, इसलिए इसे अंधविश्वास की श्रेणी में नहीं लाया जा सकता क्योंकि यह मानवीय मूल्यों को कमजोर कर सकता है। इसके सापेक्ष परिणाम ज्यादा है। ईश्वरीय अस्तित्व एक अलौकिक शक्ति का प्रतिनिधित्व करता है, जिसके कारण मनुष्य सही काम करने, सत्कर्म करने, सन्मार्ग पर चलने को प्रवृत्त होता है। इसी कारण अनेक पंथ बने, सम्प्रदाय बने और और वैश्विक सभ्यता और संस्कृति विकसित हुईं, जिसके कारण आज अनेक देश सम्पन्न हैं और वसुधैवकुटुम्बकम् को बल मिलता है।
लब्बो- लुबाब यानि निष्कर्ष यह है कि हमें ज्ञान होना चाहिए। ज्ञान के लिए शिक्षा अनिवार्य है। हमें शिक्षित होना चाहिए ताकि हम जीविकोपर्जन में व्यस्त रहें।
काल और परिस्थितियों के अनुसार हमें किसी भी बात पर आँख बंद कर विश्वास नहीं करना चाहिए। इसीलिए कहा भी है कि ‘पहले सोचें, समझें और फिर करें’ । हमारे यहाँ तो जाँच-परख, तोल-मोल, मोल-भाव, उचित मूल्य पर वस्तु खरीदने की परम्परा प्रचलन में रही है, प्रशासन में भी नेगोसिएशन (संधिवार्ता) की व्यवस्था है। यह सब शिक्षा का परिणाम है। अशिक्षा के वातावरण में येन-केन-प्रकारेण कार्य हो जाने की प्रवृत्तियों से पुरानी मान्यताओं या अंधविवास को बल मिलता है। घर बैठे, बैठे-ठाले अथवा कम मेहनत से यदि किसी भी प्रकार कोई कार्य सिद्ध हो जाता है तो पुरानी मान्यताओं, कुरीतियों, भ्रांतियों, चमत्कारों को श्रेय मिलता है। इसमें अच्छा-बुरा, लाभ-हानि, दूरगामी परिणामों पर दृष्टि नहीं जाती। इसीलिए आज जुआ, सट्टा, कमीशन, घूस की प्रवृत्ति, अतिक्रमण, भ्रष्टाचरण, दुष्कर्म अंधविश्वास की ही श्रेणी के रोग हैं।
इसलिए लोगों में, विशेष रूप से ग्रामीण अंचलों में लोगों को जागरूक करने के लिए अभियान चलाये जाने चाहिए। नुक्कड़ नाटकों, घर-घर जाकर, चौपालों में वृद्धजनों के बीच किसी भी माध्यम से उन्हें सचेत किया जाना चाहिए। अशिक्षित लोग प्राय: बैठे-ठाले अफवाहों को फैलाते हैं। परिणामस्वरूप, ऐसा वातावरण बन जाता है जिस पर लोग आसानी से झाँसे में आ जाते हैं। चाटुकार, ठग, बातूनी, दलाल, बिचौलिए आदि ऐसे लोगों से बच कर रहने की सलाह का अधिक से अधिक प्रचार प्रसार होना चाहिए। दृश्य-श्रव्य माध्यमों से भी ऐसे कुप्रचार और घटनाओं के प्रसारण पर रोक लगानी चाहिए। कहते हैं न ‘खाली दिमाग शैतान का घर होता है’, इससे भी अंधविश्वास को बल मिलता है।
शहरी वातावरण भले ही विकसित श्रेणी में माना जा सकता है, किंतु ग्रामीण अंचलों में जाग्रति के लिए शिक्षा से विकासोन्मुख वातावरण बनाये जाने की महती आवश्यकता है, ताकि अंधविश्वासों को धीरे-धीरे निष्क्रिय किया जा सके और देश में अधिक से अधिक लोग शिक्षित बन सकें ।
-‘आकुल’
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एक
समय था
एक समय था किंवदंतियाँ और मान्यताएँ मुखरित थीं ।
झाड़-फूँक, टोने-टोटके, कुरीतियाँ भी घर-घर चर्चित थीं ।
लोग अंधभक्त थे ज्यादा, घोर परम्पराओं की शै पर,
नीमहकीम, नीमटर, लोगों से ही जिंदगी अभिशापित थीं ।
2
एक समय था भाग्य भरोसे ही जीवन बीता करता था।
गूढ़ अंधविश्वासों से हर कोई अनचीता करता था।
जीवन की आपा-धापी में भाग्य कोसना ही था वश में,
मानव जीवन में तब काल परिस्थितियों का भी अंकुश था।
लोग अंधविश्वासी थे कह, लो पर समय कहाँ था जानें,
काल परिस्थितियों के वश में अपना जीवन मोड़ दिया था।
जिसने जैसा कहा किया क्यों न अंधविश्वास ही था वह,
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