(दोहा)
जिन्हें 'उडुगन' अर्थात् जुगनू कहा गया,
उन्हें आदर्श मान कर आज का कवि अपनी सृजन यात्रा आरम्भ
करता है। वे जुगनू, जो साहित्य रच गए हैं, उसकी
थाह पाना आज के महारथियों के लिए भी मुमकिन है। कबीर, रहीम,
रसखान, वृन्द, भूषण,
घनानंद, देव, जायसी, प्रसाद, निराला, दद्दा,
महीयसी, पंत, नेपाली,
बच्चन, भारती, सुमन
आदि-आदि यदि 'जुगनू' हैं, तो आज के
कवियों को क्या कहा जाए?
स्वातन्त्र्योत्तर
काल में किताबी पढ़ाई को शिक्षा और भौतिक सुविधाओं को विकास मानने की जिस मरीचिका
का विस्तार हुआ, उसने 'सादा
जीवन-उच्च विचार' की जीवन शैली को
कहीं का नहीं छोड़ा। साहित्यकार भी समाज का ही अंग होता है।
कुँए में ही भाँग घुली हो, तो होश में कौन मिलेगा?
राजनैतिक समीकरणों को साधकर सत्ता पाने को ही लक्ष्य मान लेने का
दुष्परिणाम जटिल भाषा समस्या के रूप में आज तक सामने है। हिंदी को राजभाषा बनाने
के बाद भी एक भी दिन हिंदी में राज ने काम नहीं किया। भारत विश्व का एकमात्र देश
है, जहाँ की न्यायपालिका राजभाषा को 'अस्पृश्य' मानती है। पूर्व स्वामियों की भाषा बोलकर
खुद को श्रेष्ठ समझने की मानसिकता ने ऐसी काँवेंटी पीढ़ियाँ खड़ी कर दीं, जिन्हें हिंदी बोलने में 'शर्म' ही नहीं आती, हिंदी बोलनेवालों से 'घिन' की प्रतीति भी होती है।
हर पारम्परिक
विरासत को दक़ियानूसी कहकर ठुकराने
और नकारने की मानसिकता ने समाज को वृद्धाश्रमों के दरवाज़ों पर खड़ा कर दिया है। साहित्य को अहं-पोषण का माध्यम मात्र बना दिया है। पंडों, झंडों
और डंडों की दलबंदी, राजनीति ही नहीं, साहित्य
में भी ‘दिन दूनी-रात चौगुनी’ गति से बढ़ रही है।
एक समूह छंद-मुक्ति की दुहाई देते हुए छंदहीनता तक जा पहुँचा और गीत के मरने की
घोषणा करने के बाद भी जनगण द्वारा ठुकरा दिया गया।
साम्यवादी दुष्प्रभाव के कारण व्यंग्य, लेख, लघुकथा और नवगीत को विसंगति, वैषम्य, टकराव, बिखराव,
शोषण और अरण्यरोदन का पर्याय कहकर परिभाषित किया गया। जिस साहित्य
को 'सर्व जन हिताय’ और ‘सर्व जन सुखाय'
का लक्ष्य लेकर 'सत्-शिव-सुंदर'
और 'सत्-चित्-आनन्द' हेतु रचा जाना था, उसे 'स्यापा'
और 'रुदाली' बनाने का दुष्प्रयास किया जाने लगा।
उत्सवधर्मी
भारतीय जन मानस के प्राण 'रस'
में बसते हैं। 'नीरसता'
को साध्य मानते साहित्य शिक्षा के प्रसार तथा नवपूँजीपतियों की
यशैषणा ने साहित्य में रचनाकारों की पौ बारह ला दी। लंबे समय तक अपनी दुरूहता और पिंगल
ग्रंथों की अलभ्यता के कारण छंद प्रदूषण, लूट-खसोट और छीना-झपटी से बचा रहा। मुद्रण के साधन सहज होते ही असंख्य रचनाकारों ने
प्रतिदिन हज़ारों पुस्तकें और पत्र-पत्रिकाओं से जन-मन को आक्रांत कर दिया। अब पैसा-पैसा जोड़कर के किताब ख़रीदना और उसे बार-बार पढ़ना और
पढ़वाना, घर में 'पुस्तक' को सजाना, विवाह में दहेज़ के सामान के साथ 'किताब' देना बंद हो गया और स्थिति यह है कि पुस्तक विमोचन के पश्चात् महामहिम जन उन्हें मंच या अपने कक्ष में ही फेंक जाते
हैं। इससे पुस्तकों में प्रकाशित सामग्री के स्तर और उपयोगिता का अनुमान सहज ही
किया जा सकता है। इस पृष्ठभूमि में हिंदी गीति साहित्य में छंद विधाओं के विकास और मान्यता को देखना चाहिए।
हिंदी
पिंगल की सर्वमान्य कृति जगन्नाथ प्रसाद 'भानु' रचित 'छंद प्रभाकर' वर्ष 1894 में प्रकाशित हुई थी। इसमें शास्त्रार्थ परंपरानुसार पांडित्य प्रदर्शन के साथ लगभग 715 छंदों का सोदाहरण प्रकाशन हुआ।
तत्पश्चात लगभग हर दशक में एक-दो पुस्तकें प्रकाशित होती रहीं। अधिकांश
छंदाचार्यों ने कुछ छंदों पर कार्य कर तथा कुछ ने भानु जी द्वारा दिए छंदों के
उदाहरण बदलकर संतोष कर लिया। छंद की वाचिक परंपरा गाँवों में शहरों के अतिक्रमण ने समाप्त कर दी। छन्दाधारित चित्रपटीय गीतों के
स्थान पर पाश्चात्य मिश्रित धुनों ने नव पीढ़ी को छंदों से दूर कर दिया। हिंदी के
प्राध्यापकों का छंद से कोई वास्ता ही नहीं रहा। स्थापित
छंदों पर अपनी मान्यताएँ थोपने, महाकवियों के सृजन को
दोषपूर्ण बताने और पूर्व छंदों के अंश की 2-3 आवृत्ति (जनक)
बताने, चित्र अलंकार की एक आकृति (पिरामिड) को नया छंद बताने का कौतुक आत्मतुष्टि के लिए किया जाने लगा। संस्कृत
छंदों और शब्दों के फ़ारसी में जाने पर उनका फ़ारसी रूपांतरण 'बह्र' नाम से किया गया। भारतीय शब्दों के स्थान पर
फ़ारसी शब्द प्रयोग किये गए। कालांतर में विदेशी आक्रान्ताओं के साथ फ़ारसी के शब्द
और काव्य सीमावर्ती भारतीय भाषाओँ के साथ घुल-मिलकर उर्दू नाम ग्रहण कर भारतीय
छंदों पर श्रेष्ठता जताने लगे। फ़ारसी ग़ज़ल के चुलबुलेपन और सरल रचना प्रक्रिया ने
रचनाकारों को आकृष्ट किया। ग़ज़ल को फ़ारसीपन से मुक्त कर भारतीय परिवेश से जोड़ने की कोशिश ने, हिंदी ग़ज़ल
की राह अलग बना दी। जीवन
हुए ज़मीन से जुड़कर हिंदी ग़ज़ल को उर्दू ग़ज़ल ने स्वीकार नहीं किया। इस कशमकश ने हिंदी
ग़ज़ल की स्वतंत्र पहचान बनाने हुए उर्दू उस्तादों द्वारा ख़ारिज किये जाने से
बचाने के लिए गीतिका, मुक्तिका, अनुगीत,
अणु गीत आदि नाम दिला दिए। गीत का लघु रूप गीतिका और मुक्तक का
विस्तार मुक्तिका। गीतिका नाम से हिंदी पिंगल में वार्णिक और मात्रिक दो छंद भी हैं। हिंदी ग़ज़ल के रचनाकार दो हिस्सों में बँट गए कुछ
ग़ज़ल को हिंदी ग़ज़ल कहते हुए उर्दू खेमे में हैं। यह स्थिति आदर्श नहीं है, पर इसका
समाधान समय ही देगा।
रचनाकारों का धर्म रचना करना है।
पिंगल शास्त्री छंद के विकास और नामांतरण को सुलझाते रहेंगे। इस सोच को लेकर वीर
भूमि राजस्थान की परमाणु नगरी कोटा के ख्यात रचनाकार डॉ. गोपाल कृष्ण भट्ट 'आकुल' सतत सृजनरत हैं। गीतिका को लेकर श्री ओम नीरव
और श्री विशम्भर शुक्ल भी सृजन रत हैं।
नीरव जी के अनुसार 'गीतिका’ एक ऐसी ग़ज़ल है जिसमें हिंदी
भाषा की प्रधानता हो, हिंदी
व्याकरण की अनिवार्यता हो और पारम्परिक मापनियों के साथ छंदों का समादर हो। ओम नीरव
जी के अनुसार मात्रा भार, तुकांत
विधान, मापनी, आधार छंद आदि गीतिका के तत्व हैं। (संदर्भ-1).
शुक्ल जी के अनुसार "गीतिका ग़ज़ल जैसी है, ग़ज़ल नहीं है.... हर ग़ज़ल गीतिका है पर हर गीतिका ग़ज़ल नहीं है।' वे गीतिका के दो रूप छंद-मापनीयुक्त तथा
छंद-मापनीमुक्त मानते हैं। (संदर्भ-2)
‘आकुल’ जी
गीतिका को 'छोटा गीत' मानते हुए
पद्यात्मकता तथा न्यूनतम पद-युग्म दो लक्षण बताते हैं। आकुल जी के अनुसार गीतिका
के पहले दो युग्म मुक्तक का
निर्माण करते हैं और मुक्तक को अन्य युग्मों के साथ बनाई गयी रचना गीतिका है। (संदर्भ-3)
सामान्यत:
पश्चातवर्ती का परिचय पूर्ववर्ती के संदर्भ से दिया जाता है। अमुक फलाने का पोता है। पूर्ववर्ती के
नाम से पश्चात्वर्ती का परिचय नहीं दिया जा सकता। रचना में
पहले मुक्तक ही रचा जाता है। मुक्तक की अंतिम दो पंक्तियों के पंक्तियाँ जोड़ते जाने पर बनी रचना को मुक्तिका कहने का तो आधार है,
गीतिका कहने का नहीं है। गीत के अंग मुखड़ा और अंतरा हैं। अंतरे के अंत में मुखड़े
समान पंक्ति रखकर मुखड़े आवृत्ति की जाती है। ऐसा गीतिका
में नहीं होता। अस्तु, नामकरण समय
के हवाले कर रचनामृत का पान करना श्रेयस्कर है।
आकुल जी ने 71
छंदों पर (38 मापनीयुक्त छंदों पर सौ तथा 33 मापनीमुक्त छंदों
पर सौ) कुल दो सौ रचनाओं को
इस संग्रह में स्थान दिया है। कृति का वैशिष्ट्य 'छंद
आधारित प्रख्यात रचनाएँ', आलेख हैं, जिसमें कुछ प्रसिद्ध चित्रपटीय गीतों का उल्लेख भी है। इससे नव
रचनाकारों को उस मापनी के छंद को लयबद्ध कर गेयतायुक्त करने में सहजता हो सकती है।
उल्लेखनीय है कि एक ही मापनी पर आधारित गीति रचनाओं की लय में भिन्नता सहज
दृष्टव्य है। इसका कारण यति संख्या, यति स्थान, कभी-कभी आलाप, शब्द-युति, तथा
कल विभाजन है। इन रचनाओं को गुनगुनाने आभास होता है कि
आकुल जी ने इन्हें 'लिखा' नहीं,
तन्मय होकर 'रचा' है।
इसीलिए इनकी मात्रा गणना किताबी नहीं वाचिक परंपरा का पालन करती है। इस तथ्य को यह रचना स्पष्ट कर देती है।
गुरु उच्चार को ( ' ) द्वारा इंगित करना
दर्शाता है कि आकुल जी रचनाकर्म की शुद्धता के प्रति कितने सजग हैं। आकुल जी ज़मीन से जुड़े साहित्यकार हैं। वे किताबी भाषिक शुद्धता के
पक्षधर नहीं हैं। लोकोक्ति है 'ताले चोरों नहीं शरीफ़ों के लिए होते हैं।' इसी बात को आकुल जी अपने
अंदाज़ में कहते हैं -
(छंद- पियूषवर्षी)
अंग्रेजी की कहावत 'ऑल इज़ फेयर
इन लव एन्ड वार' का उपयोग करते हुए आकुलजी कहते हैं-
युद्ध
में अरु प्रेम में, है वैध सब,
है सनक तो है झुका, संसार
भी.
(छंद- पियूषवर्षी )
भाषिक समन्वय -
आकुल जी भाषिक
समन्वय के समर्थक हैं। वे दादुर, पखेरू, अदावतों, समुंदरों और दुआओं से परहेज़
नहीं करते।
जीवन सुख-दुःख, जीत-हार और धूप-छाँव का
संगम है। आकुलजी इस जीवन दर्शन को जानते है और ‘’जीत में मिलती रही है हार भी’’ तथा ‘’संग फूलों के मिलेंगे ख़ार भी’’ जैसी पंक्तियों से व्यक्त करते हैं। दौरे दुनिया एक दूसरे को अधिक से अधिक चोट पहुँचाने का है, ‘आकुल’ इस राहे-रस्म
के क़ायल नहीं हैं-
लेखनी से तू कभी ना, दर्द दे,
जो न कर पाए भलाई, ग़म न कर.
(छंद- आनंदवर्धक)
नीतिपरकता -
हिंदी साहित्य
में नीति के दोहे कहने का चलन है। संस्कृत में सुभाषित और अंग्रेजी में कोट्स की
परंपरा है। आकुल जी नीति की बात भी इस तरह कहते हैं की वह उपदेश न लगे-
तू उड़ानें बाज़ सी भरना सदा.
हौसला फ़ौलाद सा रखना सदा.
बात हो तलवार की तो ढाल से,
वार हो तो घात से बचना सदा.
जोश में बरसात सा आवेश हो,
शांत निर्झर सा नहीं बहना सदा.
ध्यान में बक कोशिशें हो काक सी,
चींटियों सा कर्मरत रहना सदा.
(छंद- पियूषवर्षी )
(छंद- पियूषवर्षी)
लोकगायन, नृत्य,
झूले,
पर्व घर-घर में मनाना.
है यही संस्कृति हमारी,
गीत स्वागत में सुनाना.
(छंद- मनोरम)
ज़िंदगी के
फ़लसफ़ों को काव्य पंक्तियों में ढालने में आकुल जी का सानी नहीं है -
प्रारब्ध में है उतना मिलेगा, कोई भरेगा नहीं ज़िंदगी में,
ज्यादा न आशा करना कभी भी, ये ज़िंदगी में
छलती रहेगी.
(छंद- इंद्रवज्रा )
मुहावरों का सटीक
प्रयोग -
कहावतों, लोकोक्तियों और मुहावरों से भाषा में जान पड़ जाती
है। आकुल जी यह भली-भांति जानते हैं। कहावत- ‘मन चंगा तो कठौती में गंगा'
का गीतिकाकरण देखिए-
(छंद- उपेंद्रवज्रा)
जैसे ही’ चार
होतीं आँखें लगीं मिलाने,
कलियाँ कई दिवानी भँवरे लगीं रिझाने
(छंद- दिग्पाल)
साँच को भी आँच ना हो
सत्य की भी जाँच ना हो.
(छंद- मनोरम)
रास नहीं श्रृंगार
बिन -
जीवन में
श्रृंगार रास का अपना महत्व है।
यह सत्य 'गोपाल कृष्ण' से बेहतर कौन जान सकता है। उन्हें इसीलिये लीला बिहारी कहा जाता है कि वे
रास में प्रवीण हैं और रस रंग के पर्याय हैं-
मान रख आना पड़ा मुझको ते’री मनुहार पर.
है समर्पित गीतिका
मेरी ते’रे शृंगार पर.
शोभते मणिबंध, कंकण, उर कनक हारावली,
कंचुकी का भेद लिखती
वर्णिका अभिसार पर.
रूप यौवन को लिखूँ, गजगामिनी हो
नायिका,
पंक्तिका कैसे लिखूँ
मैं किंकणी यलगार पर.
रेशमी पल्लव व्यथित
हैं, हाथ में थामे
हुए,
कर्णफूलों से सजी
अलकावली हथद्वार पर.
अंगरागों से रहे, सुरभित ते’री, हर
बैठकें,
धन्य
‘आकुल’ लिख सका, इक गीतिका रतनार पर.
(छंद- गीतिका)
कल्पना
के लोक की, परिकल्पना है प्रेम ही,
लिख
सको लिख आना’ इक पैग़ाम तुम भी प्यार सँग.
(छंद- गीतिका)
रंगों की
रंगीनियाँ -
उत्सवधर्मी
भारतीय मानस प्रकृति में बिखरे रंगों को भावनाओं, कामनाओं और मानवीय प्रवृत्तियों से जोड़ता है।
लाल-पीला होना, रतनारी आँखें, मन
हरियाला, पीला पड़ना आदि में रंग ही परिस्थिति बता देते हैं।
इस मनोविज्ञान से आकुल जी अपरिचित नहीं हैं-
रंग हो सूखा, गुलाबी, लाल, पीला, केसरी,
हों सभी बस रंग काला, पोतने का डर न हो.
(छंद- गीतिका)
शब्द आवृत्ति -
शब्द सौंदर्य
से भाव और लय दोनों का चारुत्व बढ़ता है। रचना में गीतिमयता की वृद्धि उसे
श्रवणीयता संपन्न कराती है। शब्दावृत्ति से भाषिक सौंदर्य उत्पन्न करने का उदाहरण देखिए-
चलना सँभल-सँभल के, यह ज़िंदगी समर है.
फूलों का मत समझना, काँटों भरा सफ़र है.
(छंद- दिग्पाल)
शब्द युग्म -
शब्द युग्म से
आशय दो या अधिक शब्दों का प्रयोग है जो एक साथ प्रयोग किये जाते हैं। ये कई प्रकार
के होते हैं। कभी दोनों शब्द समानार्थी होते हैं, कभी भिन्नार्थी, कभी पूरक, कभी
विपरीत, कभी निरर्थक आदि -
कर गुज़र भूल जा गिले-शिकवे,
एक दिन तो बरफ़ पिघलती है
(छंद- पारिजात)
धर्म एवं सत्य की हो जीत यह,
सभ्यता-संस्कृति हमारी हो सदा.
बुद्धिमत्ता, शौर्य
अरु धन-धान्य हो,
मित्रता उससे भी’ भारी हो सदा.
(छंद- पियूष पर्व)
कर्म योग -
गीता का कर्म
योग सिद्धांत 'कर्मण्येवाधिकारस्ते
माफलेषु कदाचन' आकुल जी को प्रिय है-
कर मिलेगा श्रम सदा, प्रतिफल तुझे,
तीर्थ जा के पाप तू, धोना नहीं
(पियूष पर्व)
धरे हाथ पर हाथ बैठे रहोगे.
अगर दो क़दम भी न आगे बढ़ोगे.
मिलेगी नहीं मंज़िल जान लो तुम,
हमेशा सफ़र में अकेले चलोगे.
(छंद- भुजंगप्रयात)
सामाजिक सद्भाव -
वर्तमान में
समाज में घटता सद्भाव, एक दूसरे के
प्रति द्वेष भाव आकुल जी को चिंतित करता है-
ग़रीब भी रहे दुखी,
अमीर के प्रभाव से
नहीं सुखी अमीर भी
दुखी रहे तनाव से
वे परिस्थिति
को सुधरने की राह भी देखते हैं -
(छंद- प्रमाणिका)
इस भौतिकता प्रधान
समय में भोग-वासना में फँसकर मनुष्य भक्ति-भाव भूल रहा है। आकुल जी जानते हैं कि
भक्ति ही सही राह है-
आओ सभी दरबार में आओ,
माँ को चुनरिया तो चढ़ानी है.
नित डाँडियाँ गरबा कर सारे,
माँ को रिझाएँ मातरानी है.
समृद्धि सुख वरदायिनी देवी,
दुर्गा, जया, गौरी भवानी है.
हे शारदे पथभ्रष्ट होऊँ ना,
तुझसे सदा सद्बुद्धि पानी है.
(छंद- मधुमंजरी)
कर्तव्य भाव -
हम सब अधिकारों
के प्रति सचेष्ट हैं, कहीं कर्तव्य की अनदेखी करते रहते हैं. बहुत सी समस्याओं का
कारण यही है। आकुल जी इस स्थिति पर चिंतित हैं और
राह भी सुझाते हैं -
जंगली सा,
क्यूँ बना है.
नागरिक हो,
सोचना है.
इंसां को करनी
(छंद- सुगति)
राष्ट्रीयता -
कोई भी देश अपने नागरिकों में राष्ट्रीयता की
भावना पैदा किए बिना सशक्त नहीं हो सकता। आकुल जी यह
जानते हैं, इसलिए लिखते हैं-
(छंद- हरिगीतिका)
नारी विमर्श -
आजकल नारी
अपराधों का शिकार हो रही है,
आकुल जी इस परिस्थिति से चिंतित हैं-
(छंद-
उड़ियाना)
(छंद- कुकुभ)
राजनीति
हो, या तकनीकी, सेना हो या विद्यालय,
आज चिकित्सा,
न्याय व्यवस्था में भी उसको माना है्.
घर के उत्तरदायित्वों
में, कभी नहीं वह पीछे थी,
कर्तव्यों,
अधिकारों में भी, अग्रिम हो, यह ठाना है.
(छंद- ताटंक)
भाषा समस्या -
राजनीति ने भारत में भाषा को भी समस्या बना दिया है।
राजभाषा हिंदी के प्रति यत्र-तत्र विरोध और द्वेष भाव से चिंतित आकुल जी कहते हैं-
(छंद-
गगनांगना)
ज़मीन से जुड़ाव -
आकुल जी की
सृजन भूमि राजस्थान है। वे ज़मीन से जुड़े रचनाकार हैं। देशज भषा भी उन्हें उतने ही
प्रिय हैं जितनी आधुनिक हिंदी-
जात-पाँत, रीत-भाँत, मन नैकूँ हो न शांत,
सूखे हों जो पेट आँत, सपन न आत हैं.
भीख ले के
हो प्रसन्न, पशु के समक्ष अन्न,
फैंकवे सौं
नायँ नैकूँ, होनो जानो कछू भी.
(छंद- कवित्त/घनाक्षरी)
तथाकथित विकास
की अँधेरे में गाँवों से शहरों की ओर पलायन का दुष्चक्र आकुल जी को चिंता करता है
-
(छंद-
ताटंक)
वैकल्पिक ऊर्जा -
मनुष्य ने
प्राकृतिक उपादानों को इतनी तेजी और निर्दयता से नष्ट किया है कि भविष्य में इनका
आभाव झेलना पड़ेगा। इससे बचने के लिए वैकल्पिक ऊर्जा स्रोत अपनाना ही एक मात्र उपाय
है-
(छंद-
ताटंक)
प्रशासनिक विसंगति -
स्वतंत्रता के
समय जन-गण की शासन-प्रशासन से जो अपेक्षा थी, वह पूरी नहीं हुई। विदेशी अंग्रेज गए तो काले
अंग्रेज सत्तासीन हो गए। नेताओं ने भी देश को लूटने में कोई क़सर नहीं छोड़ी-
इक थैली के
चट्टे-बट्टे, साठ-गाँठ माहिर नेता,
साम-दाम
अरु दंड-भेद में, आफ़त के परकाले हैं.
मूक देखते
न्यायालय भी, दंडविधान, प्रशासन भी,
को विधि
निकले राह तीसरी, कूटनीति में ढाले हैं.
चोर-चोर
मौसेरे भाई, करते घोटाले ढेरों,
साथ रखें
कल-पुर्जे-कुंदे, महँगी कारों वाले हैं.
कहते हैं
चाणक्य-विदुर भी, छल-बल बिना न राज चले,
इसीलिए
शतरंज में आधे, होते खाने काले हैं.
(छंद- ताटंक)
'हौसलों ने दिए पंख' शीर्षक से यह काव्य कृति सम-सामयिक परिस्थितियों का दस्तावेज़ है। आकुल जी
सजग चिंतक और कुशल कवि हैं। वे कल्पना विलास में
विश्वास नहीं करते। चतुर्दिक घट रही घटनाओं के परिप्रेक्ष्य में वे साहित्य सृजन
का यज्ञ संपन्न करते हैं। पूर्वाग्रहों
और दुराग्रहों से दूर रहकर विषय वस्तु और कथ्य पर तार्किक चिंतन कर, समाधान सुझाते हुए विसंगतियों को इंगित काव्य
को पठनीयता ही नहीं, मननीयता से भी युक्त करते हैं। आज आवश्यकता इस बात की है कि शिल्प के किसी एक पहलू पर सारा
विमर्श केंद्रित कर किए जा रहे विवादों को भूलकर साहित्य की कसौटी उद्देश्यपरक हो।
आकुल जी इस निकष पर सौ टके खरे साहित्यकार हैं और उनका
साहित्य समय का दस्तावेज़ है।
-आचार्य संजीव सलिल
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