बाल-साहित्य बाल्यकाल की
परिस्थितियों का दस्तावेज़ होता है। काव्य वह है, जिसमें लय है। इसलिए काव्य
संगीत भी है। नाटक में भी एक लय है, अत: इसे भी काव्य कहा गया है। इसका कारण है-
कम शब्दों में बात को कह कर, गा कर, चेष्टा व हाव-भाव प्रदर्शन कर बात को समझा
पाने की जो कला, कविता से संभव है, वह किसी विधा में नहीं। तभी महाभारत विश्व का सबसे
बड़ा महाकाव्य बना और रामायण सर्वाधिक पसंद किया जाने वाला, घर घर में सहेज कर
रखा जाने वाला लोकप्रिय महाकाव्य बना।
कहते हैं जिसने बाल स्वभाव को जीत
लिया, वह दुनिया की हर समस्या को सरलता से सुलझा सकता है। यानि, बाल-साहित्य,
बाल-मनोविज्ञान को जाने बिना नहीं लिखा जा सकता। रामायण जैसे ग्रंथ का आरंभ बालकांड
से हुआ। कृष्णावतार में कृष्ण की बाल लीलाओं का चित्रण भागवत पुराण का
सर्वश्रेष्ठ सोपान है। सूरदास और तुलसीदास का बाल-काव्य हमारी धरोहर हैं। इनके
साहित्य में मनोवैज्ञानिक दर्शन दृष्टव्य है।
संक्षेप में बाल-साहित्य के विषय
में यही कहना उचित होगा कि बाल-काव्य बाल-साहित्य का प्रथम सोपान है। इसे और
अधिक स्पष्ट करें, तो हम पायेंगे कि बाल-साहित्य बाल सुलभ चेष्टाओं या बाल स्वभाव
के अनुरूप उसे आकर्षित करने वाला ऐसा साहित्य है, जो बालक को प्रफुल्लित करने में
सहायक होता है और जिसके माध्यम से उसे जीवन के मार्ग पर सुगमता से आगे बढ़ने को
तत्पर किया जा सकता है। बाल-काव्य लिखने के लिए आपको बालक बनना होता है, बालक की
भाँति सोचना होता है। हमारे लोक-साहित्य में ‘लोरी’ को बाल-काव्य में सर्वोच्च
स्थान प्राप्त है। आगे बालगीत, चित्रकला, कहानियाँ, बोध कथाएँ प्रचलित हुईं।
हिंदी कविता आधुनिक युग की देन माना
जाता है। बालक को आकर्षित करने के लिए प्रथमत: हम विभिन्न चेष्टाएँ करते हैं, तत्पश्चात्
वह अपनी चेष्टाओं से हमें आकर्षित करता है।
मनोवैज्ञानिक, बच्चों की मानसिक
अवस्था (मनोविकास) के अनुसार बालक की उम्र को चार भागों में बाँटते हैं. जन्म से
4 वर्ष तक शिशु काल, 5 से 9 वर्ष तक बाल्यकाल (बचपन), किशोरावस्था 10 से 14 वर्ष
तक और अंतिम कुमार अवस्था 15 वर्ष से 20 वर्ष तक।
उम्र की उपर्युक्त अवस्थाओं तक
बाल-साहित्य को दो भागों में बाँटा जाना श्रेयस्कर होगा। पहला शिशुकाल (9 वर्ष
तक का काल) और शेष किशोरावस्था का काल (14 वर्ष तक का काल)। शिशुकाल में हम शिशु
के बचपन तक के समय पर उसकी चेष्टाओं के अनुरूप उसे अपने आस-पास की दुनिया से अवगत
कराते हैं और किशोर काल तक उसे बाहर की दुनिया को समझाने में तत्पर होते हैं। इसी
कारण वह समझना, बोलना, अच्छा बुरा करने और सम्प्रेषण में परिपक्व बनने लगता है।
जैसे ही उसका बचपन आरम्भ होता है अर्थात् पाँचवे वर्ष में प्रवेश करने लगता है,
हम उसे शिक्षा के शास्त्रीय विधान की ओर अग्रसर करते हैं और बच्चे को शिक्षा के
सोपानों को चढ़ने के लिए तैयार कर लेते हैं। तब तक उसकी व हमारी चेष्टाओं का
प्रभाव इतना गहरा पड़ चुका होता है कि उसे परिवार सुरक्षित कवच की भाँति लगता है और
परिवार के सदस्य उसके अस्त्र-शस्त्र।
बच्चों का संसार बड़ों के संसार से
सर्वथा भिन्न होता है। आपराधिक प्रवृत्ति
शिशुकाल में शून्य होती है, इसलिए मेरा मानना है कि शिशुओं पर लिखा गया काव्य ही
सही मायनों में बाल काव्य है। आगे की उम्र किशोर और कुमार अवस्था में घर व घर से
बाहर के वातावरण से प्रभावित बाल कविताओं में कठोरता आने लग जाती है।
सभी प्रख्यात कवियों ने बच्चों पर
कवितायें अवश्य लिखी हैं। मैथिली शरण गुप्त की ‘’सरकस’’, रामधारी सिंह
दिनकर की ‘’चूहे की दिल्ली यात्रा’’ सुभद्राकुमारी चौहान की ‘‘झाँसी की रानी’’,
विष्णु प्रभाकर की ‘’मैंने झूठ बोला
था’’, माखन लाल चतुर्वेदी की ‘’लड्डू लेलो’, कवि प्रदीप की लिखी व गाई ‘'आओ बच्चो
तुम्हें दिखाएँ झाँकी हिंदुस्तान की’’, गुलजार लिखित फिल्म ‘मासूम’ की- ‘’लकड़ी
की काठी’’ हरिंद्रनाथ चट्टोपाध्याय की
लिखी और अशोक कुमार की गायी कविता फिल्म ‘आशीर्वाद’ की ‘‘रेलगाड़ी’’, फिल्म
‘’मि. नटवर लाल’’ में आनंद बख्शी की लिखी व अमिताभ बच्चन की गायी कविता ‘’मेरे
पास आवो मेरे दोस्तो एक किस्सा सुनो’’ को कौन भूल सकता है।
संक्षेप में इस आलेख का मंतव्य इन
शब्दों से विराम को कहता है कि बाल-काव्य बाल-मनोविज्ञान का दर्शन है।
-आकुल
(मुक्तक-लोक प्रस्तुति बाल काव्य संकलन हरा समुन्दर गोपी चन्दन' एवं मेरी बाल साहित्य पर पुस्तक 'बाल काव्य मंजूषा' में प्रकाशित आलेख)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें