18. छन्‍द और दोहा परिवार

 मूर्ख छन्‍दोनुवृत्‍तेन या थातथ्‍येन पंडितम् – चाणक्य
प्रणवश्‍छंदारमिव- रघुवंश, याज्ञवल्‍क्य, मनु
गायत्री छन्‍दसामहम्- भागवत पुराण
स च कुलपतिराद्यश्‍छन्‍द सां य: प्रयोक्‍ता- उत्‍तर रामचरित 

             प्राचीन विद्वानों ने छंद की महत्‍ता पर बहुत लिखा है। छंद हमारे प्राचीन धर्म ग्रंथों के आधार रहे हैं। छ: वेदांगों में छंद को एक वेदांग माना गया है। शेष पाँच हैं-शिक्षा, व्‍याकरण, कल्‍प, निरुक्‍त और ज्योतिष।  

शिक्षा कल्‍पो व्‍याकरणं निरुक्‍तं छन्‍दसां चिति:।
ज्‍योतिषामयनं चैव षडङ्गो वेद उच्चयते ।। 

 छंद को वेद पुरुष का पाद (पैर) कहा है-

 छन्दः पादौ तु वेदस्य हस्तौ कल्पोऽथ पठ्यते
ज्योतिषामयनं चक्षुर्निरुक्तं श्रोत्रमुच्यते ।
शिक्षा घ्राणं तु वेदस्य मुखं व्याकरणं स्मृतम्
तस्मात्सांगमधीत्यैव ब्रह्मलोके महीयते ॥

अर्थ- छन्द को वेदों का पाद, कल्प को हाथ, ज्योतिष को नेत्र, निरुक्त को कान, शिक्षा को नाक, व्याकरण को मुख कहा गया है।

छंद का मूल है वेद का पद्यात्‍मक भाग अर्थात् पद या पद्य में रचना। संस्‍कृत में काव्‍य रचना प्राय: श्‍लोकों में होती हैं। इसका सरलीकरण करते हुए श्‍लोक को छंद या पद्य कहा गया है और विस्‍तार करते हुए कहा जा सकता है कि यति, गति, वर्ण या मात्रा आदि की गणना के विचार से की गई रचना छन्द अथवा पद्य कहलाती है। पद्य या तो वृत्‍त होता है अथवा जाति। वृत्‍त, वार्णिक अथवा वर्ण की गणना से और जाति, मात्रिक अथवा वर्ण पर लगी मात्रा से विनयमित होता है। जैसे ‘पाद’, वृत्‍त में यह 2 वर्ण हैं (प,द) और जाति में यह तीन मात्राएँ {पा (2) द (1)}। 

वृत्‍त तीन प्रकार के होते हैं (1) समवृत्‍त- जिसमें श्‍लोक/पद्य के चारों चरण समान होते हैं (2) अर्ध-समवृत्‍त- जिसमें प्रथम व तृतीय एवं द्वितीय व चतुर्थ चरण समान होते हैं, और (3) विषमवृत्‍त– जिसके चारों चरण असमान होते हों। 

अक्षर (वर्ण) वह जो एक साँस में बोला जाये. इसको वे लोग बहुत अच्‍छी तरह समझेंगे जो शास्‍त्रीय संगीत में दख़ल/जानकारी रखते हैं। उदाहरणस्‍वरूप संक्षेप में जानें- संगीत में लय हेतु अनेक ताल प्रख्‍यात है। जैसे- दादरा, एकताल, कहरवा, रूपक, झपताल आदि में रचनायें संगीत में निबद्ध होती हैं। जैसे कहरवा की एक आवृत्ति में 16 मात्राएँ होती हैं लेकिन इस आवृत्ति में गाए जाने वाले बोलों में वर्णों/मात्राओं की संख्‍या 16 से कम या ज्‍यादा हो सकती है, परिणामस्‍वरूप कम होने की स्थिति में किसी शब्‍द को एक ही वर्ण में लंबे समय तक खींचा जाता है यानि ठहराव होता है, जिसे अलाप के रूप में लंबा किया जाता है और ज्‍यादा होने की‍ स्थिति में एक दो या तीन वर्णों को एक साथ एक ही मात्रा में बोला जाता है। काव्‍य रचनाओं में भी ऐसे उदाहरण मिलते हैं, किंतु वे मात्राओं या वर्णों से नियंत्रित होती हैं। 

छंद, काव्‍य को बाँध कर रखता है, जिससे वह सिद्ध होता है, उसमें एक लय होती है, जो रचना को बाँधे रखती है। एक-एक लघु और गुरु वर्ण का अपना स्‍थान निश्चित होता है छंदों में। छंदों का प्रयोग हालाँकि सरल नहीं, किंतु अभ्‍यास उसको सरल बनाता है जो दूरगामी है। 

जिस प्रकार शास्‍त्रीय संगीत में सभी राग किसी न किसी ठाट या थाट से निर्मित हैं, जिनसे सैंकड़ों राग-रागनियाँ बनी हैं। थाट शास्‍त्रीय संगीत में रागों के विभाजन की पद्धति है। भातखंडे ने शास्‍त्रीय संगीत में दस थाटों का उल्‍ल्‍ेख किया है। ये हैं- कल्‍याण, बिलावल, खमाज, काफी, पूर्वी, मारवा, भैरव, भैरवी, आसावरी और तोड़ी। 

इसी प्रकार छंद साहित्‍य में छंदों का निर्माण गणों से हुआ है, अक्षरों की संख्‍या से विनियमित वृत्‍तों की माप तोल के लिए छंदशास्त्रियों ने आठ गणों की रचना की। प्रत्‍येक गण में तीन अक्षर होते हैं ये तीनों लघु या गुरु वर्ण होने के कारण एक दूसरे से भिन्‍न हैं, जिनके प्रयोग से हजारों छंदों का सृजन हुआ है। जिस प्रकार राग में निबद्ध गीतों के माधुर्य की एक अलग ही धारा बहती हैं, उसी प्रकार छंदों में निबद्ध रचनाएँ अपनी अलग छाप छोड़ती हैं। इन्‍हें आगे सूची में प्रदर्शित किया गया है। 

इसलिए छंदोबद्ध रचनाओं में निम्‍नलिखित गणों के प्रयोग का भी बहुत महत्‍व है, जो विशेष रूप से वर्णवृत्त / वार्णिक छंदों में देखने को मिलता है। अनेक मात्रिक छंदों की रचनाओं में भी इनका प्रयोग द्रष्‍टव्‍य है-

 

गण

स्‍वरूप

उदाहरण (शब्‍द)

यगण

।ऽऽ (लघु गुरु गुरु)

मसाला, कटारी

मगण

ऽऽऽ (गुरु गुरु गुरु)

धारावी, संपाती

तगण

ऽऽ। (गुरु गुरु लघु)

इत्‍यादि, संयोग

रगण

ऽ।ऽ (गुरु लघु गुरु)

लेखनी, मौसमी

जगण

।ऽ। (लघु गुरु लघु)

सदोष, प्रभात

भगण

ऽ।। (गुरु लघु लघु)

बारिश, साहिर

नगण

।।। (लघु लघु लघु)

मनन, द्विविध

सगण

।।ऽ (लघु लघु गुरु)

कमला, वसुधा

         हिंदी छंद साहित्‍य संस्‍कृत छंदशास्‍त्र से परिष्‍कृत होकर आया है। संस्‍कृत छंद साहित्‍य का सबसे पहला और अत्‍यंत महत्‍वपूर्ण ग्रंथ पिंगल ऋषि प्रणीत छंद शास्‍त्र है, जो पिंगल शास्‍त्र के नाम से जाना जाता है। यह आठ अध्‍यायों का एक सूत्र ग्रंथ है। अग्निपुराण में भी पिंगल पद्धति पर आधारित छंदशास्‍त्र का पूर्ण विवरण है। अनेक ग्रंथ इसी आधार पर विभिन्‍न विद्वानों ने रचे हैं, जैसे श्रुतिबोध, वाणीभूषण, लीलावती, छंद प्रभाकर, वृत्‍तदर्पण, वृत्‍तरत्‍नाकर, वृत्‍तकौमुदी, छंदोमंजरी आदि। 

दोहा परिवार

दोहा की कालजयी विकास यात्रा का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि अपने रूप, स्‍वरूप, आकार बदलते हुए दोहा लगभग 2000 वर्षों से लगातार पढ़ा-लिखा–कहा जा रहा है। 

दोहे पर विभिन्‍न विद्वानों के विचार देखें- 

’दोहा अपने अस्तित्‍व काल से ही लोक जीवन, लोक परंपरा और लोक मानस से संपृक्‍त रहा है।’- आचार्य भगवत दुबे। देश की सभी लोकभाषाओं में दोहा का जादू सिर चढ़कर बोला है।–आचार्य सलिल। विक्रमोर्वशीयम् (कालिदास) में इसकी जन्‍म कुण्‍डली मिलती है। अपभ्रंश के साथ इसने घुटनों चलना सीखा है। हिंदी के आदि काव्‍य में जहाँ इसकी बाल लीलाएँ हैं, वहीं भक्तिकाल में ये किशोर हो चला, रीतिकाल के साथ इसका यौवन गुजरा है और आधुनिक काल में अनुभव संपन्‍न प्रोढ़ रूप में इसके दर्शन हो रहे हैं।‘ –अशोक अंजुम। ‘विश्‍व वाङ्मय में दोहा एक मात्र छंद है, जिसने अनेक अवसरों पर न केवल घटनाक्रम अपितु नियति के निर्धारण में भी महत्‍वपूर्ण भूमिका का निर्वहन किया है।‘ –कृष्‍णस्‍वरूप शर्मा मैथिलेंद्र। ‘दोहा छंदशास्‍त्र की अद्भुत  कलात्‍मक देन है।‘ – आचार्य पूनम चंद्र तिवारी। 

प्रारंभ में दोहा हरगीति, छंद दूहा या दोहा कहलाती थी। दोहा को प्रारंभ में वार्णिक तथा कालांतर में मात्रिक छंद माना गया। इसका भी कारण रहा। 

पहला कारण था वार्णिक होने के कारण ये सीमाओं में बँधा हुआ था । वार्णिक होने से गणों में रचना का निर्वाह करना होता था। परिणाम स्‍वरूप वार्णिक दोहे धीरे धीरे अपना अस्तित्‍व खोते जा रहे थे। शिल्‍प और कथ्‍य में शिथिलता ने भी इसमें परिवर्तन को स्‍वीकार किया। वार्णिक स्‍वरों में आधे स्‍वर की गणना नहीं होती। लोकभाषा क्रांति और तत्‍कालीन विद्वानों की विविध रचनाओं ने इसका इतना अधिक सोदाहरण विस्‍तार किया कि इसे मात्रिक रूप में भी स्‍वीकारा जाने लगा। मात्रिक रूप में अकल्‍पनीय रचनाओं में अभिवृद्धि से वार्णिक स्वरूप लगभग खत्‍म हो गया और आज सैंकड़ों वर्षों से दोहा को मात्रिक छंद के रूप में ही मान्‍यता प्राप्‍त है। 

दूसरा कारण था दोहों के वर्गीकरण ने इसे नाना प्रकार के नाम दिए, जो लघु और गुरु वर्ण की निश्चित संख्‍या के कारण पहचान बनाने लगे। वार्णिक से यह संभव नहीं था। हालाँकि नाम के रूप में दोहों को कम ही प्रस्‍तुत किया गया, क्‍योंकि किसी भी रूप में दोहे की रचना किसी न किसी दोहे के नामकरण पर सिद्ध होती थी, इसलिए केवल 13, 11 की यति वाले 24 मात्रा के रूप को ही प्राथमिकता दी गई और अन्‍य छंदों की तरह  दोहों के नामकरण धीरे-धीरे लुप्‍त होने लगे। जैसे सर्प दोहा जिसमें 48 लघु वर्ण और गुरु वर्ण शून्‍य होता था, उदर दोहे में 1 गुरु वर्ण, श्‍वान में 2 गुरु वर्ण, विडाल में 3 गुरु वर्ण, ब्‍याल में 4 गुरु वर्ण होते थे और शेष लघु वर्ण आदि। वर्तमान में दोहा परिवार के ये दोहे रचना न होने से लुप्‍तप्राय होते जा रहे हैं और यदा-कदा ही पढ़ने को मिलते हैं।  इसी क्रम में छंदों को मापनी-मुक्‍त और मापनी-युक्‍त कहने की अवधारणा भी विकसित हुई। कालांतर में जब छंदों की वार्णिक रचना में कठोरता आने लगी तब वाचिक परंपरा का उद्भव हुआ और ये वार्णिक छंद जो गणों में ही बद्ध होते थे, वाचिक परंपरा के कारण वार्णिक से वाचिक हो कर सरल होते गए और उन छंदों का भी विभिन्‍न दोहों के नामकरण की तरह नामकरण होने लगा । 

छंद शास्‍त्र में प्रचलित 23 प्रकार के दोहों का उल्‍लेख है। दोहे में प्रयुक्‍त लघु और गुरु वर्णों की संख्‍या के आधार पर ये निर्धारित किये गये और उनका नामकरण भी किया गया है. ये दोहे हैं- भ्रमर (22 गुरु वर्ण, 04 लघु वर्ण), सुभ्रामर (21, 06), शरभ (20, 08), श्‍येन (19, 10), मण्डूक (18, 12), मर्कट (17, 14), करभ (16, 16), नर (15,18), हंस (14, 20), गयन्‍द (13, 22), पयोधर (12, 24), चल (11, 26), वानर (10, 28), त्रिकल (09, 30), कच्‍छप (08, 32), मच्‍छ (07, 34), शार्दूल (06, 36), अहिवर (05, 38), ब्‍याल (04, 40), विडाल (03, 42), श्‍वान (02, 44), उदर (01, 46) और सर्प (00, 48 लघु वर्ण).           

            दोहे में 13//11 यानि 24 मात्राओं के दो युग्‍म, यानि 48 मात्राओं का सामंजस्‍य, इनमें लघु और गुरु वर्णों के आधार पर विभिन्‍न दोहों का निर्माण करता है। आरम्‍भ में ब्रजभाषा का प्रभाव अधिक होने से लघुवर्ण वाले छन्दों का बाहुल्‍य और चलन ज्‍यादा रहा, जिससे भी दोहे को मात्रिक रूप में स्‍वीकार किए जाने को बल मिला। सवैया, घनाक्षरी, कवित्‍त, आदि छन्‍द में लघुवर्णों व वार्णिक छन्‍दों के प्रभाव होने से दोहे पर भी उसकी छाया रही। वर्तमान में जिन दोहों की रचना सर्वाधिक हो रही हैं वे हैं. मर्कट, करभ, नर, हंस, पयोधर, गयन्‍द।          

            यहाँ इनका उल्‍लेख इसलिए किया गया है कि जो भी दोहे बनाये जा रहे हैं, वे दोहा परिवार के इन्‍हीं दोहों के स्‍वरूप होते हैं। जैसे ‘’बड़ा हुआ तो क्‍या हुआ.....’’ यह  मण्‍डूक दोहे का उदाहरण है, इसमें 12 लघु और 18 गुरु वर्णो का समावेश है, यानि 12 + 18x2 = 48 मात्राएँ दोहे का वर्गीकरण करने से, रचित दोहा, दोहा परिवार के कौनसे दोहे का स्‍वरूप है, जान सकते हैं संग्रह में दोहा परिवार के कुछ प्रसिद्ध दोहों के उदाहरण भी दृष्‍टव्‍य हैं। संग्रह में पयोधर, हंस, मर्कट, मंडूक, नर, गयंद, करभ, श्‍येन, चल दोहे हैं । 

प्रारंभ में दोहा का प्रभाव इतना था कि दोहाकारों को दरबारों, गोष्ठियों में विशेष स्‍थान मिला करता था, परिणाम स्‍वरुप प्रयोगवादी रचनाकरों ने ऐसे नए छंदों का सृजन किया, जिसमें दोहे के किसी भी अंग का यानि, संपूर्ण चरण, केवल विषम चरण, केवल सम चरण, सम्‍पूर्ण दोहे के साथ आगे मात्रा कम-ज्‍यादा वाले नए छंद के रूप में नामकरण किया और धीरे-धीरे वे छंद स्‍थापित हो गए । परिणामस्‍वरूप ये बिखर न जाएँ, लुप्‍त न हो जाएँ, इन्‍हें समेकित रूप में एक स्‍थान पर संचित किए जाने की आवश्‍यकता ने दोहा परिवार के छंदों के रूप में पहचान देने की पहल की और वे सभी छंद जो किसी न किसी रूप में दोहे से जुड़े हुए थे, दोहा परिवार के छंद के रूप में पहचाने जाने लगे। 

संक्षेप में दोहों से इनका संबंध देखें, ये छंद है- दुमदार, सिंहावलोकन आदि सभी प्रकार के दोहे, सोरठा (दोहा का हूबहू उल्‍टा यानि 11, 13 पर यति), रोला एवं अर्द्ध रोला (आरंभ हूबहू दोहे के सम चरण से व शेष समचरण का अंत दो गुरु वाचिक ), जनक (दोहे के विषम चरण की तीन आवृति), उल्‍लाला (दोहे के विषम चरण के चार चरण जिसमें यति से पूर्व व बाद में गुरु आवश्‍यक एवं सभी चरण तुकांत), छप्‍पय (रोला और उल्‍लाला के मेल से), कुंडलिनी (दोहा व अर्द्धरोले से निर्मित), कुंडलिया (दोहा व रोला से निर्मित), अभीर/अहीर (दोहे का केवल सम चरण से द्विपदी), सरसी/कबीर (चौपाई के साथ दोहे का सम चरण), मरहट्ठा माधवी (चौपाई के साथ दोहे का विषम चरण), मंगलवत्‍थु/माया (दोहे के सम चरण से आरंभ), उपमान (दोहे में समचरण में अंतिम लघु का लोप), चंडिका (दोहे के विषम चरण की चार आवृत्ति), रेवा (दोहे के सम चरणों की चार आवृत्ति), हंसगति (दोहे का सम चरण व 9 मात्रा समचरण का आरंभ त्रिकल से अंत वाचिक गुरु) किसलय छंद (दोहे के विषम चरण की तीन आवृति एवं अंत में दोहे का सम चरण), चंचल छंद- (पहला, दूसरा चौथा चरण दोहे का सम चरण तुकांत एवं तीसरा चरण दोहे का विषम चरण), सुगति छंद- (रोले के विषम चरण की तीन आवृति किंतु पहला और तीसरा तुकांत) मरोड़ छंद- (पहला और चौथा चरण रोला तुकांत एवं बीच में दोहा के दो विषम चरण रोला से भिन्‍न तुकांत)। कुछ नए छंद भी स्‍वीकार किए गए हैं जैसे- रम्‍य छंद- (रोला और अंत में दोहा) मधुर, षटकोण, उमंग, तरंग, उत्‍तमोत्‍तम, अनुपम, सोल्‍लास छंद आदि। 

रचनाधर्मिता के निष्‍कर्ष पर बारम्‍बार सर्वश्रेष्‍ठ प्रमाणित हो चुका दोहा सृजनशीलता, सोद्देश्‍यता, संप्रेषणीयता, समय-बोध, सामयिकता, स्‍मरणीयता, सारल्‍य, सारत्‍व के सोपानों पर रसानुभूति के निर्मल प्रवाह में जनमानस के शतदली सरसिज का मकरंद बनकर अपनी सुवास से दसों दिशाओं में व्‍याप्‍त होता रहा है, होता रहे और रचनाकार अपनी रचनाधर्मिता का पालन करते रहें, उत्‍त्‍मोत्‍तम रचना करते रहें, यही इस कालजयी छंद के पोषण के लिए आवश्‍यक भी है। 

स्‍वरचित एक दोहे से इस आलेख को यहीं विश्राम देता हूँ-

जब भी घर आए अतिथि, देना ये सुख चार ।
आसन, जल, वाणी मधुर, यथाशक्ति आहार ।। (हंस)          

-आकुल

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संदर्भ ग्रंथ- 1. मेकलसुता- दोहा परिवार के छंदों की त्रैमासिक पत्रिका- संपादक ‘मैथिलेन्द्र’, 2005  2. संस्‍कृति-हिंदी शब्‍दकोश- वामन आप्‍टे।

उपर्युक्‍त आलेंख मेरी पुस्‍तक 'तन में जल की बावड़ी़' (कुण्‍डलिया छन्‍द) से लिया हैा 

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