लेबल
- गीतिका (162)
- छंद (162)
- गीत (34)
- मुक्तक (13)
- छ्रंद (10)
- कविता (8)
- सम्मान (5)
- गतिका (4)
- पर्व (3)
- आलेख (2)
- तैलंगकुलम् (2)
- नवगीत (2)
- पुस्तकें (2)
- समीक्षा (2)
- हिन्दी (2)
- काव्य निर्झरणी (1)
- कुंडलिया छंद (1)
- ग़ज़ल (1)
- गीतिकर (1)
- दोहा (1)
- बालगीत (1)
- राष्ट्रभाषा (1)
- श्रद्धांजलि (1)
- संस्मरण (1)
- समाचार (1)
- हिन्दुस्तान (1)
9 जनवरी 2014
7 जनवरी 2014
सर्दी का मौसम
कविताओं का कांत कलेवर अनुभूति ई पत्रिका के 6 जनवरी 2014 के अंक में 'सर्दी का मौसम' के अंतर्गत 3 कुंडलिया छंद प्रकाशित हुए हैं।
2 जनवरी 2014
तीन कुण्डलिया छन्द
1-
श्रम से मजदूरी मिले, भाड़ा भवन दिलाय।
पूँजी दे बस ब्याज ही, साहस भाग्य जगाय।
साहस भाग्य जगाय, कर्म फिर भी प्रधान है।
साहस बिना न खेल, नियति का यह विधान है।
कह 'आकुल' कविराय, भाग्य खिलता परिश्रम से।
साहस से मिल जाय, नहीं जो मिलता श्रम से।
2-

साहस भाग्य जगाय, कर्म फिर भी प्रधान है।
साहस बिना न खेल, नियति का यह विधान है।
कह 'आकुल' कविराय, भाग्य खिलता परिश्रम से।
साहस से मिल जाय, नहीं जो मिलता श्रम से।
2-
झगड़े टंटे भूल के, रहें प्रेम के साथ।
दो दिन अपनों के निकट, दो दिन सबके साथ।।
दो दिन सबके साथ, रहें और हाथ बँटाएँ।
करें समस्या दूर, परस्पर दर्द घटाएँ।।
ऐसे भी क्या जिएँ, न बीतें पल छिन घंटे।
रहें सदा बेचैन, लाद कर झगड़े टंटे।।
दो दिन अपनों के निकट, दो दिन सबके साथ।।
दो दिन सबके साथ, रहें और हाथ बँटाएँ।
करें समस्या दूर, परस्पर दर्द घटाएँ।।
ऐसे भी क्या जिएँ, न बीतें पल छिन घंटे।
रहें सदा बेचैन, लाद कर झगड़े टंटे।।
3-
धन का लोभी मनुज जो, ना समझे समझाय।
मैल हाथ का समझ के, खर्चा करता जाय।।
खर्चा करता जाय, कर्ज ले ले कर प्राणी।
जैसे आँखें मूँद, बैल से चलती घाणी।।
कह आकुल कविराय, न संशय पाले मन का।
बिना परिश्रम कर्ज, चुकेगा कैसे धन का।।
मैल हाथ का समझ के, खर्चा करता जाय।।
खर्चा करता जाय, कर्ज ले ले कर प्राणी।
जैसे आँखें मूँद, बैल से चलती घाणी।।
कह आकुल कविराय, न संशय पाले मन का।
बिना परिश्रम कर्ज, चुकेगा कैसे धन का।।
सदस्यता लें
संदेश (Atom)