डा0 गुलशन के मेरे पसंदीदा मुक्तक
अकिंचन को कभी कंचन बहुत मुश्किल से मिलता है।
सभी माँ-बाप को श्रवण बहुत मुश्किल से मिलता है।
सभी सुख-दु:ख सहा करते सदा ही साथ रह करके,
हमारे गाँव में दुश्मन बहुत मुश्किल से मिलता है।।
अनचार मिट जाये जग से ऐसा कुछ उपचार करें।
बैर-भाव को भूलें हम सब जन-जन का उद्धार करें।
एक रहें सब भारतवासी आपस में अब बैर न हो,
एक नये सुंदर भारत का हम सपना साकार करें।।
अक्षर नहीं होते तो शब्द कहाँ बन पाता।
कविता और कहानी को फिर कौन यहाँ लिख पाता।
मौन बना रहता हर कोई बोल नहीं कुछ पाता,
मन के भावों को हर कोई व्यक्त कहाँ कर पाता।।
इस दुनिया में बोलो कोई कब तक पाप करे।
राम-नाम का बोेलो कोई कब तक जाप करे।
जितना नापूँ और ग़रीबी बढ़ती जाती है,
निर्धनता का बोलो कोई कब तक माप करे।।
काम-क्रोध-मद-लोभ त्यागकर मन की करो सफाई।
रहे नहीं अब कहीं गंदगी ध्यान रहे यह भाई।
अपने भीतर के रावण का मिलकर अब संहार करो,
आपस में सब मिलकर पाटो हर नफ़रत की खाई।।
दिया जरै शिक्षा कै घर-घर सब मिलि अइसन काम करौ।
पढ़ि-लिखि कै दुनिया मा भइया तुम सब आपन नाम करौ।
जग मा गुरु ज्ञान कै सागर गुरुजन कै सम्मान करौ,
सफल होत शिक्षा से जीवन शिक्षा पर सब ध्यान धरौ।।
पुस्तक 'मैं कभी ऐसा न था' से साभार।
15-04-2013
निभाओगे या मिटाओगे
डा0 अशोक 'गुलशन'

तु म मुझको नहलाओं गया ऐसे ही ले जाओगे
मुझसे दूर रहोगे या फिर कन्धा मुझे लगाओगे ।
मैंने जिसे कमाया है तुम उसको और बढ़ाओगे
या फिर उसको व्यर्थ उड़ा कर मेरा मान घटाओगे।
दो मीटर की फटी हुई चादर ही मुझे उढ़ाओगे
या फिर मुझको नंगे ही तुम मरघट पहुँचाओगे।
छत पर रक्खी चौखट की लकड़ी से मुझे जलाओगे
या मेरी बगिया से तुम कोई पेड़ कटाओगे।
तुम्हें सौंपकर सब कुछ अपना अब मैं जाने वाला हूँ
मुझसे वादा करो कि तुम गंगा में मुझे बहाओगे।
हरिद्वार, मथुरा, वृन्दावन, अवध धाम या फिर काशी
इतना मुझे बता दो बेटा मुझे कहाँ ले जाओगे।
'गुलशन' जो संबंध बनाये हैं समाज में जीवन भर
आगे उन्हें निभाओगे या फिर उन्हें मिटाओगे।
उनकी पुस्तक 'मोहब्बत दर्द है' से
20-07-2012
भोर सुहानी तू भी लिख
मिसरे ऊला मैं लिखता हूँ, मिसरे सानी तू भी लिख ।
ग़ज़ल पुरानी मैं लिखता हूँ, ग़ज1ल पुरानी तू भी लिख ।
जिसे जिया भोगा है अब तक और जिसे महसूस किया,
वही कहानी मैं लिखता हूँ वहीं कहानी तू भी लिख ।
जो भी हैं गद्दार देश के उनके गन्दे चेहरे पर,
पानी-पानी मैं लिखता हूँ , पानी-पानी तू भी लिख।
बढ़ती महँगाई के युग में हर ग़रीब की किस्मत में,
दाना-पानी मैं लिखता हूँ, दाना-पानी तू भी लिख।
आने वाला कल अच्छा हो, इसीलिए 'गुलशन' भाई,
भोर सुहानी मैं लिखता हूँ, भोर सुहानी तू भी लिख।
डा0 गुलशन, बहराइच।
फेसबुक से, 13-01-2014
बन जायें सच्चे मीत
पहली होली तो हो ली होकर हो गई अतीत।
हम समझे बैठे थे जिसको जीत नहीं थी हार।
इस होली में देखें घायल हो न सके अब प्रीत।
इस होली का लक्ष्य बना बन जायें सच्चे मीत।।
दोस्त दोस्त ही रहें स्वार्थपरता उसमें ना मिले।
साफ-साफ कह डालें हों ना साँठ-गाँठ ना गिले।
सूरज अरमानों का बढ़ खुदगरजी में ना ढले।
मिलजुल झूमें बस ऐसा बन जाय मधुर संगीत।
इस होली का लक्ष्य बना बन जायें सच्चे मीत।।
प्यार की ठंडाई में घुले संकल्पों की सौगात।
कौन पराया अपना जाचें हम सबकी औकात।
सभी रहें चैन और अमन से आए ना आपात्।
आवश्यकता हो जितनी सब पायें उष्मा-सीत।
इस होली का लक्ष्य बना बन जायें सच्चे मीत।।
भूल दुश्मनी कर लें यारी, माँ भारत के बेटो।
मन के कमज़र्फों से बोलो बिस्तर अभी समेटो।
भ्रष्टाचार-ओ जुर्म में निरपराधों को नहीं लपेटो।
है मौका माकूल आत्मचिन्तन का व्यर्थ न लेटो।
अबीर गुलाल मिटायें घर-घर नीची ऊँची भीत।
इस होली का लक्ष्य बना बन जायें सच्चे मीत।।
ग़ज़ल
अकिंचन को कभी कंचन बहुत मुश्किल से मिलता है।
सभी माँ-बाप को श्रवण बहुत मुश्किल से मिलता है।
सभी सुख-दु:ख सहा करते सदा ही साथ रह करके,
हमारे गाँव में दुश्मन बहुत मुश्किल से मिलता है।।
अनचार मिट जाये जग से ऐसा कुछ उपचार करें।
बैर-भाव को भूलें हम सब जन-जन का उद्धार करें।
एक रहें सब भारतवासी आपस में अब बैर न हो,
एक नये सुंदर भारत का हम सपना साकार करें।।
अक्षर नहीं होते तो शब्द कहाँ बन पाता।
कविता और कहानी को फिर कौन यहाँ लिख पाता।
मौन बना रहता हर कोई बोल नहीं कुछ पाता,
मन के भावों को हर कोई व्यक्त कहाँ कर पाता।।
इस दुनिया में बोलो कोई कब तक पाप करे।
राम-नाम का बोेलो कोई कब तक जाप करे।
जितना नापूँ और ग़रीबी बढ़ती जाती है,
निर्धनता का बोलो कोई कब तक माप करे।।
काम-क्रोध-मद-लोभ त्यागकर मन की करो सफाई।
रहे नहीं अब कहीं गंदगी ध्यान रहे यह भाई।
अपने भीतर के रावण का मिलकर अब संहार करो,
आपस में सब मिलकर पाटो हर नफ़रत की खाई।।
दिया जरै शिक्षा कै घर-घर सब मिलि अइसन काम करौ।
पढ़ि-लिखि कै दुनिया मा भइया तुम सब आपन नाम करौ।
जग मा गुरु ज्ञान कै सागर गुरुजन कै सम्मान करौ,
सफल होत शिक्षा से जीवन शिक्षा पर सब ध्यान धरौ।।
पुस्तक 'मैं कभी ऐसा न था' से साभार।
15-04-2013
निभाओगे या मिटाओगे
डा0 अशोक 'गुलशन'

तु म मुझको नहलाओं गया ऐसे ही ले जाओगे
मुझसे दूर रहोगे या फिर कन्धा मुझे लगाओगे ।
मैंने जिसे कमाया है तुम उसको और बढ़ाओगे
या फिर उसको व्यर्थ उड़ा कर मेरा मान घटाओगे।
दो मीटर की फटी हुई चादर ही मुझे उढ़ाओगे
या फिर मुझको नंगे ही तुम मरघट पहुँचाओगे।
छत पर रक्खी चौखट की लकड़ी से मुझे जलाओगे
या मेरी बगिया से तुम कोई पेड़ कटाओगे।
तुम्हें सौंपकर सब कुछ अपना अब मैं जाने वाला हूँ
मुझसे वादा करो कि तुम गंगा में मुझे बहाओगे।
हरिद्वार, मथुरा, वृन्दावन, अवध धाम या फिर काशी
इतना मुझे बता दो बेटा मुझे कहाँ ले जाओगे।
'गुलशन' जो संबंध बनाये हैं समाज में जीवन भर
आगे उन्हें निभाओगे या फिर उन्हें मिटाओगे।
उनकी पुस्तक 'मोहब्बत दर्द है' से
20-07-2012
भोर सुहानी तू भी लिख
मिसरे ऊला मैं लिखता हूँ, मिसरे सानी तू भी लिख ।
ग़ज़ल पुरानी मैं लिखता हूँ, ग़ज1ल पुरानी तू भी लिख ।
जिसे जिया भोगा है अब तक और जिसे महसूस किया,
वही कहानी मैं लिखता हूँ वहीं कहानी तू भी लिख ।
जो भी हैं गद्दार देश के उनके गन्दे चेहरे पर,
पानी-पानी मैं लिखता हूँ , पानी-पानी तू भी लिख।
बढ़ती महँगाई के युग में हर ग़रीब की किस्मत में,
दाना-पानी मैं लिखता हूँ, दाना-पानी तू भी लिख।
आने वाला कल अच्छा हो, इसीलिए 'गुलशन' भाई,
भोर सुहानी मैं लिखता हूँ, भोर सुहानी तू भी लिख।
डा0 गुलशन, बहराइच।
फेसबुक से, 13-01-2014
बन जायें सच्चे मीत
पहली होली तो हो ली होकर हो गई अतीत।
हम समझे बैठे थे जिसको जीत नहीं थी हार।
इस होली में देखें घायल हो न सके अब प्रीत।
इस होली का लक्ष्य बना बन जायें सच्चे मीत।।
दोस्त दोस्त ही रहें स्वार्थपरता उसमें ना मिले।
साफ-साफ कह डालें हों ना साँठ-गाँठ ना गिले।
सूरज अरमानों का बढ़ खुदगरजी में ना ढले।
मिलजुल झूमें बस ऐसा बन जाय मधुर संगीत।
इस होली का लक्ष्य बना बन जायें सच्चे मीत।।
प्यार की ठंडाई में घुले संकल्पों की सौगात।
कौन पराया अपना जाचें हम सबकी औकात।
सभी रहें चैन और अमन से आए ना आपात्।
आवश्यकता हो जितनी सब पायें उष्मा-सीत।
इस होली का लक्ष्य बना बन जायें सच्चे मीत।।
भूल दुश्मनी कर लें यारी, माँ भारत के बेटो।
मन के कमज़र्फों से बोलो बिस्तर अभी समेटो।
भ्रष्टाचार-ओ जुर्म में निरपराधों को नहीं लपेटो।
है मौका माकूल आत्मचिन्तन का व्यर्थ न लेटो।
अबीर गुलाल मिटायें घर-घर नीची ऊँची भीत।
इस होली का लक्ष्य बना बन जायें सच्चे मीत।।
ग़ज़ल
कभी जागीर बदलेगी, कभी सरकार बदलेगी,
मगर तक़दीर तो अपनी बता कब यार बदलेगी?
अगर सागर की यूँ ही प्यास जो बढती गई दिन दिन,
तो इक दिन देखना नदिया भी अपनी धार बदलेगी।
हज़ारोँ साल मेँ जब दीदावर होता है इक पैदा,
तो नर्गिस अपने रोने की तू कब रफ्तार बदलेगी?
सदा कल के मुकाबिल आज को हम कोसते आये,
मगर इस आज की सूरत भी कल हर बार बदलेगी।
वो सीना चीर के नदिया का फिर आगे को बढ जाना,
बुरी आदत सफीनोँ की भँवर की धार बदलेगी।
‘शरद पढ़ लिख गया है पर अभी फाके बिताता है,
ख़बर उसको न थी क़िस्मत जो होँ कलदार बदलेगी।
-शरद तैलंग, कोटा
ग़ज़ल
जो अलमारी में हम अख़बार के नीचे छुपाते हैं,
तो वो ही चन्द पैसे मुश्किलों में काम आते हैं ।
तो वो ही चन्द पैसे मुश्किलों में काम आते हैं ।
कभी आँखों से अश्कों का खजा़ना कम नहीं होता ,
तभी तो हर खुशी, हर ग़म में हम उसको लुटाते हैं ।
तभी तो हर खुशी, हर ग़म में हम उसको लुटाते हैं ।
दुआएं दी हैं चोरों को हमेशा दो किवाड़ों ने,
कि जिनके डर से ही सब उनको आपस में मिलाते हैं ।
कि जिनके डर से ही सब उनको आपस में मिलाते हैं ।
खुदा हर घर में रहता है वो हमको प्यार करता है,
मग़र हम उस को अपने घर में माँ कह कर बुलाते हैं ।
मग़र हम उस को अपने घर में माँ कह कर बुलाते हैं ।
मैं अपने गाँव से जब शहर की जानिब निकलता हूँ ,
तो खेतों में खड़े पौधे इशारों से बुलाते हैं ।
तो खेतों में खड़े पौधे इशारों से बुलाते हैं ।
’शरद’ ग़ज़लों में जब भी
मुल्क़ की तारीफ़ करता है ,
तो मुफलिस और बेघर लोग सुनकर मुस्कराते हैं ।
तो मुफलिस और बेघर लोग सुनकर मुस्कराते हैं ।
शरद तैलंग, कोटा
बाबूजी
-डॉ0 अशोक पाण्डेय 'गुलशन', बहराइच (उ0प्र0)
घर की छत पर बैठ किनारे जम कर रोये बाबूजी।
अपनों का व्यवहार बुढ़ापे में गै़रों सा लगता है, इसी बात को मन ही मन में कह कर रोये बाबूजी।
बहुत दिनों के बाद शहर से जब बेटा घर को आया,
उसे देख कर ख़ुश हो कर के हँस कर रोये बाबूजी।
नाती पोते बीबी-बच्चे जब-जब उनसे दूर हुए,
अश्कों के गहरे सागर में बह कर रोये बाबूजी।
जीवन भर की करम-कमाई जब उनकी बेकार हुई,
पछतावे की ज्वाला में तब दह कर रोये बाबूजी।
शक्तिहीन जब हुए और जब अपनों ने ठुकराया तो,
पीड़ा और घुटन को तब-तब सह कर रोये बाबूजी।
हरदम हँसते रहते थे वो किन्तु कभी जब रोये तो,
सबसे अपनी आँख बचा कर छुप कर रोये बाबूजी।
तन्हाई में ‘गुलशन’ की जब याद बहुत ही आयी तो,
याद-याद में रोते-रोते थक कर रोये बाबूजी।
(1 जून 2011 को बहराइच(उ0प्र0) में अपने पिता पं0 बृज बहादुर
पाण्डेय के 16वें स्मृति सम्मान समारोह में डॉ0 गुलशन ने यह ग़ज़ल सुनाई थी) ग़ज़ल
-ऱ्घुनाथ मिश्र
मैं परिन्दों की जगह ख़ुद को कहीं पाता हूँ
आशियाना भी उसी तर्ज पे बनाता हूँ
मैं नहीं चाहता गै़रों का सहारा हर्गिज
खु़द के कंधे पे सभी बोझ ख़ुद उठाता हूँ
मतलबी यार से यारी का भला क्या मानी
प्यार की ओर सहज ही मैं खिंचा जाता हूँ
छीन औरों से मँगाता है तू महँगी थाली
खूँ पसीने की कमाई ही घर में लाता हूँ
मूल्य ग़ायब है पतन आदमी का है जारी
पालें गन्तव्य यही सीखता सिखाता हूँ
हिल सकें लोग खुलें आँख सही समयों पर
सौवीं में यूँ ही हाथ और पग हिलाता हूँ
ये मेरा यार ही है जो जल गया चराग़ों सा
मैं पतंगों की तरह खामखाँ मँडराता हूँ
कर दिया हँसते हुए सारी ज़िन्दगी कुरबाँ
उन शहीदों से हौसलों की अदा पाता हूँ
हार मानी न कभी अपनी बदगुमानी में
उन हजारों को आत्मबल से मैं हराता हूँ
(हैदराबाद से निराला सम्मान से अंलकृत हो कर लौटने पर लिखी ग़ज़ल)
(नुक्कड़ नाटकों के महानायक और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर रंगकर्मियों के प्रेरणा स्रोत कामरेड सफ़दर हाशमी को 1-1-1992 को साहिबाबाद उ0प्र0 में हल्लाबोल नुक्कड़ नाटक की प्रस्तुति के दौरान किये गये कायराना हमले में उनकी दर्दनाक मौत, उनकी शहादत पर उपजे उद्गार।)
कौन कहता है, नहीं जिन्दा है, सफ़दर हाशमी।
है हक़ीक़त, मर के भी ज़िन्दा है सफ़दर हाशमी।
ज़िन्दगी का अर्थ, जीना ही महज़ हर्गिज़ नहीं,
संदेश सार्थक दे गये, जन-जन को सफ़दर हाशमी।
![]() |
ऱ्घुनाथ मिश्र |
दर्द पीना,ख़ूँ बहाना, जाँ, गँवाना लाज़मी।
ढेर आये हैं यहाँ, आयेंगे ढेरों और भी,
सार्थक आना है जिससे, चैन पा जाये ज़मीं।
हैं बहुत से जी रहे, बेसबब, खाली बोझ बन,
सोच तो लेंगे ही कुछ, बनना है, सफ़दर हाशमी।
क़त्ल सफ़दर का सबक़ है, देशभक्तों के लिए,
अंत तक लड़ते रहे, ज़ाँबाज़, सफ़दर हाशमी।
रोशनी फैला रहे, फ़लक से वे जदीदों में,
बन सुहैल पा गये अमरत्व सफ़दर हाशमी।
कोटा-11-12-2010
पुस्तक ‘सोच ले तू किधर जा रहा है’ से
साहित्य का फ़रिश्ता
यह कृष्ण की कृपा है, जिसने ये दिन दिखाया।
साहित्य का फ़रिश्ता, धरती पे उतर आया।।

‘जीवन की गूँज’ में क्या जादू सा है दिखाया,
ईश्वर ने यार दिल का पारस तुम्हें बनाया,
जो करीब आया तेरे, कुन्दन उसे बनाया।
साहित्य का फ़रिश्ता-------'
जो जन्म से है ‘आकुल’ आकुल रहेगा यारों,
सेवा में सरस्वती की, पागल रहेगा यारों,
’जीवन की गूँज’ क्या है संसार को बताया।
साहित्य का फ़रिश्ता------'
शब्दों में ढाल देते हो भावना के मोती,
सोने में ज्यों सुहागा, हर बात ऐसे होती, पाया है तुमको जैसा, वैसा तुम्हें बताया।
साहित्य का फ़रिश्ता------'
‘आकुल’ के दोनों बाजू, सहयोगी ऐसे-ऐसे,
रघुनाथ मिश्र जेसे, हैं नरेंद्र ‘मोती’ जैसे,
इन्ही हस्तियों ने लेखन, उँगली पकड़ चलाया।
साहित्य का फ़रिश्ता------'
सच बोले ये ‘फ़रीदी’ हैरत है इसमें कैसी,
सब तुमको जानते हैं, जो दोस्त हैं क़रीबी,
सूरज हो तुम तो सूरज, हमने दिया दिखाया।
साहित्य का फ़रिश्ता’------'
डॉ0 फ़रीद ‘फ़रीदी’, (लोकार्पण में गाते हुए)
नक्शधबंदी, डी-10, ज्ञान सरोवर कॉलोनी,
सेन्ट जोंस स्कूल के पास, बून्दी रोड, कोटा।
22-08-2010
कहाँ बैठें परिन्दे
बिना अपनों के सुख कैसा
कैसी होली, कैसी दीवाली।
न हो गर, आशियाँ अपना
उजली रात भी, लगे काली।परदेस में है कौन पूछने वाला
ऑंखें हों भरी या पेट हों खाली।
गुलज़ार कैसे बचेंगे ज़मीं पर
न मुक़म्मल फ़िजा है, न पास माली।
बेवज़ह उड़ते हैं ऐसा नहीं 'मोती'
कहाँ बैठें परिन्दे, है अपनी नहीं डाली।
पुस्तक- 'मोती' से
09-06-2010
ग़ज़ल
-अक्षय गोजा, जोधपुर
इंसान की उपलब्धियां यूं कम नहीं
यह भी कि संहारक बना ख़ुद कम नहीं
उन दूर नक्षत्रों में जाकर खु़श हुए
पर पास गंदी बस्तियों का ग़म नहीं
दुनिया बड़ी अब हो रही छोटी बहुत
लेकिन हदें भीतर की होतीं कम नहीं
यूं दायरा समृद्धि का बढ़ ही रहा
पर भूख का होता कभी भी कम नहीं
आगे सितारों के जहां तो खोजते
कैसे स्वयं को खोज लें यह दम नहीं
पुस्तक- "सागर में रेगिस्तान" से
20-05-2010
ज़िन्दगी
डॉ0 फ़रीद अहमद "फ़रीदी", कोटा
आ खिला दे ख़ुशी के, कँवल ज़िन्दगी।
पढ़ रहा हूं, मैं तुझ्ा पर, ग़ज़ल ज़िन्दगी।
भेस अपने न पल-पल बदल ज़िन्दगी।
अपनी फ़ितरत को अब तो, बदल ज़िन्दगी।
कृष्ण बन कर तू, अर्जुन के संग सारथी,
बन के मीरा तू हो गई, विकल ज़िन्दगी।तेरे बिन मैं नहीं, मेरे बिन तू नहीं,
लाई है तेरी ख़ातिर, अज़ल ज़िन्दगी।
माँ की सूरत में तू, शिव की मूरत में तू,
पाक ज़म-ज़म सी है, गंगाजल ज़िन्दगी।हो न मायूस, दुनियाँ के मेले में तू,
छोटे बच्चे सी ज़िद कर, मचल ज़िन्दगी।
सुख से औरों के याँ है, दुखी हर कोई,
क्या है इसका बता दे तू, हल ज़िन्दगी।
आजकल दहशतों से है, बेकल "फ़रीद",
आबशारों सी कल-कल थी, कल ज़िन्दगी।
पुस्तक- "जन जन नाद" से
16-05-2010
मुल्क की हालत
मुल्क की हालत बड़ी गम्भीर है।
प्रश्नचिह्नों से घिरी तस्वीर है।
चल रहीं हैं, बे नियंत्रित आंधियां,गर्दनों पे घूमती शमशीर है।
आम जन हैं, हसरतों में मौत की,
ज़िंदगी कुछ ख़ास की जागीर है।
मंज़िलों की ओर बढ़ते पाँव को,
रोकती वर्चस्व की जंजीर है।
उग रहे हैं भूख के, जंगल घने,
मौसमों में दर्द की तासीर है।
आरज़ूएँ लुट गईं, इन्सान की,
चन्द सिक्कों में बिकी, तदबीर है।
ग़ज़ल संग्रह "सोच ले तू किधर जा रहा है" से
16-5-2010
घर
-डॉ0 नलिन, कोटा
घर कब होता इसका, उसका,
घर तो अपना होता है,
सदा प्यार करने वालों का
साझा सपना होता है।
और नींद भर नींद मिले बस,
इतना सा ही मिल जाए तो
फ़िर चाहे कुछ भी न मिले बस।
थोड़ा थोड़ा बहे भले ही,फ़िर चाहे कुछ भी न मिले बस।
सबका ही पर बहे पसीना,
एक दूसरे की खुशियों में
रहे फूलता सबका सोना।
नन्हे मुन्नों को घर देना,
छूने देना गालों को भी,
हंसी खेल में वो खींचें तो
खिंचवा लेना बालों को भी।
घर है जीवन, जीवन है घर,
अच्छा घर तो अच्छा जीवन,
घर से बनते जगती के
चित्र सुनहरे नित नित नूतन।
पुस्तक- "गीतांकुर" से
12-5-2010
dear aakul," mere priya kavi aur unki kavitain" column mein kavitaon ka chayan ati prasansaniya hai.prerak kavitaon ke paath se roshani milati hai,unhe jo ujala bone ke liye jameen taiyar karne mein sannaddadha hain.dr.farid,akshaya goja,dr.nalin aur narendra chakrawarti:moti: ki rachnayen prerak hain.sundar prastuti,sundar chayan ke liye hardik badhai aur shubhkamnayen sweekaren.
जवाब देंहटाएंsasneh aap kaa,
RAGHUNATH MISHRA
'आकुल' का ब्लाग न केवल साइज़ के स्तर से बल्कि अर्थ- कथ्य- शिल्प कि द्रिश्ति से भी बडा होता जा रहा है.मैन इनके चारोँ ब्लाग देखता हून और प्रेरना मिलती है. ब्लाग्गर को हर्दिक बधाइ और शुभोज्ज्वल भविश्य कि अशेश मंगल कामनायेँ.
जवाब देंहटाएंडा. रघुनाथ मिश्र.
श्रेश्त प्रस्तुतियोँ के लिये साधुवाद.
जवाब देंहटाएंडा. रघुनाथ मिश्र
( आयी रे भाई होली आयी )
जवाब देंहटाएंलाल पीला गुलाबी रंग
मन को मोहित करता रंग
लिए हाथ में रंगो कि झोली
मृदंग ताल बजाता मन
झूम झूम कर खेल रहे हैं
नशीले नयनो से बोल रहे
रंग लगा गले लगाते
खुशियो कि महफिल सजाते
प्यार लुटाते नाचने गाते
ठंडई भांग में डुबकी लगाते
छैल छबीला रंग रंगीला
गोरी को रंगने को आये
होली की हुडदंग में
मतवाले बनकर निकले सारे
बुढ़े बच्चे सभी झुम उठे
आयी रे भाई होली आयी
महेश गुप्ता जौनपुरी
मोबाइल - 9918845864
( आयी रे भाई होली आयी )
जवाब देंहटाएंलाल पीला गुलाबी रंग
मन को मोहित करता रंग
लिए हाथ में रंगो कि झोली
मृदंग ताल बजाता मन
झूम झूम कर खेल रहे हैं
नशीले नयनो से बोल रहे
रंग लगा गले लगाते
खुशियो कि महफिल सजाते
प्यार लुटाते नाचने गाते
ठंडई भांग में डुबकी लगाते
छैल छबीला रंग रंगीला
गोरी को रंगने को आये
होली की हुडदंग में
मतवाले बनकर निकले सारे
बुढ़े बच्चे सभी झुम उठे
आयी रे भाई होली आयी
महेश गुप्ता जौनपुरी
मोबाइल - 9918845864
जागो हे सामर्थ्यवान!
जवाब देंहटाएंजगा रहा पक्षी का कलरव
हो रहा दिशाओं में भान
जागो हे सामर्थ्यवान!
सुबह की लालिमा दिखी है
कली कली हर डाल खिली है
कर रहे मधुप मधुपान
जागो हे सामर्थ्यवान!
दिग दिगंत फैला उजियारा
सूरज से अंधियारा हारा
गा रही कोकिल जयगान
जागो हे सामर्थ्यवान!
आलस को छोड़ो उठ जाओ
जो चाहो इच्छित पा जाओ
मंत्र है मूल महान
जागो हे सामर्थ्यवान
बीत गयी अंधेरी रात
बदलाव की है यह बात
सब कुछ सदा न रहता एक
प्रकृति का है वरदान
जागो हे सामर्थ्यवान ।
विन्ध्यप्रकाश मिश्र विप्र