रे अब भी सम्हल मानव
कर प्रेम घन वन
वृक्षों से
छाने को घटा घनघोर।
टूटने को है सब्र का बाँध
निहारती हैं आँखे हर
घड़ी
जाने को है सूखा
सावन
सूने हैं कुँए बावड़ी
घनश्याम के न आने
से
रूठा है वृन्दावन
और
रूठे हैं ब्रजवासी
चहुँओर।
रे अब भी बदल मानव
कम कर बढ़ रहे
संक्रमण को
जगने को प्रफुल्लित हर अलसभोर।
घर में सुत को जैसे
रोज रख ध्यान
मंदर में बुत को जैसे
बुहारता है जैसे
घर आँगन हर रोज
रख साफ गाँव मुहल्ला
रखता है खुद को जैसे
रे संकल्प ले चल मानव
जल बचत वृक्ष संरक्षण
को
आज हो या कल हो कैसा
भी हो दौर।
कोटा, 5-8-2012
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