छंद-
दोहा
कण
कण में भगवान हैं, पर हम जाते
हार ।
प्रभु को ढूँढ़ा जब जहाँ, मौन मिले हर बार ।।1।।
प्रभु को ढूँढ़ा जब जहाँ, मौन मिले हर बार ।।1।।
पुरी
धाम सब तीर्थ में,
किये रात दिन एक ।
हुई न अब तक प्रेरणा, हुआ न बेड़ा पार ।।2।।
हुई न अब तक प्रेरणा, हुआ न बेड़ा पार ।।2।।
प्रभु
उसको कैसे मिलें,
तन माया में चूर ।
अंग-अंग है विष भरा, जिसका ना परिहार ।।3।।
अंग-अंग है विष भरा, जिसका ना परिहार ।।3।।
जब
तक छोड़ेगा नहीं,
अपना अहं मनुष्य ।
तब तक प्रभु के पास में, जाना है बेकार ।।4।।
तब तक प्रभु के पास में, जाना है बेकार ।।4।।
जो
भजता है लीन हो,
भूल जगत् के कष्ट ।
हो जाता वह एक दिन, प्रभु में एकाकार ।।5।।
हो जाता वह एक दिन, प्रभु में एकाकार ।।5।।
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