समय का पहिया चलता जाये।
उल्लासों से भरे हुए मन
कुछ करने को उत्साहित मन
उच्छवासों को कोने कर
कुछ पाने को हैं विचलित मन
प्रतिस्पर्द्धा के मैराथन
जो दौड़े वह मंज़िल पाये।।
सभी मौसमी दिन पतझड़ से
जो दौड़े वह मंज़िल पाये।।
सभी मौसमी दिन पतझड़ से
निष्ठायें अब हिलती जड़ से
महँगाई महामारी फैली
आती आवाज़ें बीहड़ से
उसी धुरी पर चलते चलते,
वही वक़्त ना फिर आ जाये।।
रिश्तों को अब लज्जित करती
रिश्तों को अब लज्जित करती
परम्परायें गिरती पड़ती
धर्माचरण लगा बढ़ने तो
क्यूँ नारी का मान न करती
देख देख छल कपट कहीं अब
पारदर्शिता, सुनवाई
रीकॉल, सूचना का अधिकार
जन-जाग्रति कितनी आई है
समय बतायेगा इस बार
सबको होना होगा इकजुट
अधजल गगरी छलकत जाये।।(18 दिसम्बर को 'नवगीत की पाठशाला' में प्रकाशित)
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