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2- अब राम राज्य आएगा
बापू के तीनों बंदर बापू की मुसकुराती प्रतिमा के सामने जा कर खड़े हो गये। तीनों की आँखों से लगातार आँसू बह रहे थे। कान बंद किये हुए बंदर बोला-‘बापू बहुत समय हो गया। कान बंद करके भले ही बुरा न सुना हो, पर जो न चाहा था उसे मजबूरी से देखना पड़ रहा है, बहुत कहा किंतु किसी ने उस पर अमल नहीं किया। अब सहा नहीं जाता। कहते जबान थक चली है। असहनीय इतना है कि अब देखा भी नहीं जाता।'
मुँह बंद किये हुए बंदर की आपबीती कान बंद किये बंदर ने सुनाई। बोला-‘बापू इतना कुछ देखने के बाद तो अब इससे बोले बिना नहीं रहा जाता, बहुत विचलित रहता है। सुना इतना कि अब तो कान भी पक गये हैं।'
आँखे बंद किये तीसरा बंदर बोला- ‘बापू, ये सच बोल रहे हैं, मैं भी जो सुन रहा हूँ, असहनीय होता जा रहा है। बोलने की क्या कहूँ, मुझे कायर तक समझने लगते हैं, व्यंग्य करते हैं। देखने और सुनने से जब ये इतने व्यथित हैं, तो मैंने भी यदि देखा, तो मैं भी सह नहीं पाउँगा। क्या हो गया है मेरे देश को? आपने राम राज्य का सपना देखा था, हम तीनों आपके लिए कुछ नहीं कर सके।'
तीनों ने हाथ नीचे करते हुए कहा- हमें क्षमा करें बापू, इतने समय से हम यह बात नहीं समझ पाये कि हमारे हाथ बँधे हुए थे। आपने हाथ बाँधने के लिए तो नहीं कहा था !हमें अपने हाथ खोलने होंगे बापू। अब समय आ गया है,हमें अब इन हाथों से कुछ कर गुजरना होगा,तब ही देश के हालात बदलेंगे।
बापू अब भी मुसकुरा रहे थे। ऐसा लगा, वे कह रहे हों-‘अब राम राज्य आएगा !!
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3- एक करोड़ का सवाल
टीवी कार्यक्रम ‘कौन बनेगा करोड़पति’ में एक करोड़ के अंतिम सवाल पर मुस्कु्राते हुए बिग बी ने प्रतियोगी से कहा- ‘आप बहुत भाग्यशाली हैं, इस सीट पर बैठ कर एक करोड़ के सवाल का जवाब देने वाले आप पहले शख्स हैं। जवाब आपको सोच समझ कर देना है। इसका जवाब सही देने पर आपको मिलेंगे एक करोड़ रुपये,शोहरत,सम्मान और ग़लत जवाब देने पर आप मायूस हो कर लौटेंगे,क्योंकि आपने 50लाख कमाने का भी मौका खो दिया है। उन्होंने प्रतियोगी की तरफ व्यंग्यपूर्ण मुस्कान बिखेरी। प्रतियोगी ने कहा-‘जी।‘
कैसा लग रहा है आपको।' बिग बी ने पूछा।
जवाब मिला-'बहुत रोमांचित हूँ।'
'मैं भी ।' बिग बी ने कहा। मैं भी देखना चाहता हूँ कि कौनसा सवाल है, एक करोड़ का। मुझे भी नहीं मालूम, यक़ीन मानिये मुझे भी नहीं मालूम।' सभी हँसने लगे। कुर्सी सँभालते हुए बिग बी ने कार्यक्रम आगे बढ़ाया। वे बोले- ’तो आप तैयार हैं, एक करोड़ के सवाल को सुनने, पढ़ने और अपना भाग्य आजमाने के लिए?’ ’हाँ।' प्रतियोगी ने भी मुसकुराकर कहा। बिग बी ने हाथ मसलते हुए कहा- ‘तो लीजिये, आपका एक करोड़ का सवाल।' बिग बी ने स्क्रीन पर अंग्रेजी में सवाल पढ़ते हुए कहा- 'व्हू इज़ मोस्ट रेसपोंसिबिल फोर इन्क्रीजिंग डिससेटिसफेक्शन, करप्सन , डीअरनेस एंड वेरियस प्रोबलेम्स टु डे इन ऑवर कंट्री? आप्शंस हैं- ए- पब्लिक, बी- लीडर, सी- गवर्नमेंट, डी- पुलिस। बिग बी ने उसे हिदी में दोहराया ‘आज देश में बढ़ते असंतोष, भ्रष्टाचार, महँगाई और अनेकों समस्याओं के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार कौन है? और कहा- ‘जल्दबाजी नहीं, आपके पास बहुत समय है, सही जवाब आपको करोड़पति बना देगा और ग़लत जवाब आपको----आप--- समझते –ही-- हैं।' प्रतियोगी बहुत देर तक सोचता रहा। बिग बी ने कहा- ‘आपके पास सारी सुविधायें भी खत्म हो गयी हैं। आप किसी से पूछ भी नहीं सकते। अब आपको ही निर्णय लेना है कि ए, पब्लिक यानि जनता, बी, लीडर यानि नेता, सी, गवर्नमेंट यानि सरकार और डी, पुलिस यानि पुलिस, इसमें से कौनसा आप्शन चुनना है।' थोड़े से सन्नाटे के बाद, प्रतियोगी ने कहा- ‘सी, गवर्नमेंट।' बिग बी ने कहा- ‘सी, गवर्नमेंट।‘ आप पूरी तरह से कान्फिडेंट हैं। जल्द बाजी नहीं करें। सोचें कि इसके लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार कौन है, जनता, नेता, सरकार या पुलिस। एक बार जवाब लॉक हो गया, तो आपके सारे रास्ते बंद, फिर मैं भी कुछ नहीं कर पाउँगा।'
’जी। मैं जानता हूँ, मेरा जवाब है ‘सी’ सरकार’।' प्रतियोगी ने कहा।
’तो आप कोन्फिडेंट हैं, सी, स—र—का—र।' बिग बी ने गंभीरता से कहा-‘तो लॉक कर दिया जाये।' ’जी।'
'तो लॉक किया जाये। कम्यूटर जी, जवाब लॉक करें, आपका जवाब है, सी-गवर्नमेंट।' जवाब लॉक कर दिया गया। थोड़े सन्नाटे के बाद बजर बजा। बिग बी अपनी सीट से उठ खड़े हुए और बोले-‘ओ---ह।’ बैठे हुए प्रतियोगी के साथ-साथ कार्यक्रम में सम्मिलित लोगों में कौतूहल जाग गया। वे भी उठ कर कर खड़े हो गये। 'यह जवाब ग़लत है।'बिग बी के बोलते ही सन्नाटा छा गया। बिग बी ने प्रतियोगी से कहा- ‘आपका जवाब ग़लत था। सही जवाब है- ‘जनता।'
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4- मृत्यु का भय
आश्रम में एक वेदपाठी सौमित्र की मौत हो गयी। वह रात में सोया, पर सवेरे उठा नहीं। उसकी मौत से आश्रम में शोक की लहर दौड़ गयी। वह बीमार भी नहीं था। शिष्यों पर इसका गहरा प्रभाव पड़ा। धीरे-धीरे शिष्य सामान्य होने लगे,किन्तु् एक शिष्य दिन रात सुस्त रहने लगा। ॠषि से उसकी यह चिन्ता देखी नहीं गयी। एक दिन तो उनकी चिन्ता और बढ़ गयी, क्योंकि शिष्य सारी रात जागता रहा था,बिल्कुल सोया नहीं। वे प्रातकाल भ्रमण में उसे साथ ले गये और रास्ते में उन्होंने उससे चिन्ता का कारण पूछा।
शिष्य ने कहा-“गुरुवर, सौमित्र को कोई व्याधि नहीं थी, वह सामान्य रूप से हम सब की ही भाँति सोया और सवेरे मृत पाया गया। अगर मेरे साथ भी ऐसा हो जाये तो? यही सोच कर कल सारी रात मुझे नींद नहीं आयी। “गुरु ने कहा-“मौत तो अपरिहार्य है। एक न एक दिन सबको आनी है। यह भी एक निद्रा है, चिरनिद्रा, जिसमें प्राणी कभी उठता नहीं और उसका शरीर प्रदूषित हो जाता है। उसमें जीवनदायिनी शक्ति समाप्त हो जाती है। शरीर मिट्टी हो जाता है। वातावरण में संक्रमण न फैले उससे बचाने के लिए उसका अंतिम संस्कार कर उसे नष्ट कर दिया जाता है। गुरु ने पेड़ की छाया में एक पाषाण पर बैठते हुए शिष्य को समझाया-‘यह शरीर प्रात:काल जब निद्रा से जागता है तब भी प्रदूषित होता है। तब हम प्रदूषण को खत्म करने के लिए शौच, स्नान, व्यायाम, योगादि क्रियाओं से शरीर को चैतन्य करते हैं और शेष समय के लिए उसे जीवन के रूप में सहेज कर रखते हैं, क्यों कि इस भौतिक शरीर से वर्तमान और भविष्य के अनेकों कर्म करने के लिए हमेशा तत्पर रहना है।' शिष्य के कंधे पर हाथ रख कर उन्होंने उसे शिक्षा दी-‘जीवन से जैसे प्रेम है, वैसे ही मृत्यु से भी प्रेम करना सीखो। तभी तुम्हारा मृत्यु से भय कम होगा। निद्रा भी शरीर के लिए उतनी ही आवश्यक है,जितना शरीर के पोषण के लिए आहार-विहार। दिनभर कार्यकलाप के बाद थके हुए शरीर के लिए निद्रा के रूप में विश्राम की सतत आवश्यकता रहती है। यह भी जीवन चक्र का एक अंग है।‘उन्होंने आगे कहा-‘पृथ्वी को मृत्यु लोक कहा गया है। यहाँ जीवन मृत्यु का यह चक्र अनवरत चल रहा है। फिर भी लोग जी रहे हैं,मृत्युलोक में ही सबसे प्रखर और बुद्धिमान प्राणी मनुष्य है,जो जीवन के प्रति अपनत्व और प्रेम के पाठ पढ़ा कर जीवन को उच्च से उच्चतम तरीके से जीने की प्रेरणा देता है। यहाँ तक कि वह वनस्पतियों को भी सहेजता है, उनमें जीवन संचार के साधनों से उन्हें जीवित रखता है, निरीह पशुपक्षियों को पालता है, उनमें भी प्रेम का संचार करता है। पर्यावरण को शुद्ध रख कर जीवन और मृत्यु में तालमेल बैठाता है। जीव हो या अजीव उसकी सर्वश्रेष्ठ उपयोगिता तक उसे संघर्ष के लिए प्रेरित करता है और उसकी सहायता करता है।
आश्रम की ओर लौटते हुए ॠषि ने शिष्य से कहा- ‘जिससे तुम्हें प्रेम है, जैसे मैं, तुम्हारे गुरुकुल के साथी, तुम्हारे माता-पिता, भाई-बहिन सगे सम्बंधी, बंधु-बांधव सभी इसलिए प्रेम योग्य हैं कि वे जीवित हैं और तुम्हारे अनुकूल हैं। प्रतिकूल होने पर सभी तुम्हें अप्रिय लगने लगेंगे और हो सकता है, इनमें से किसी से तुम्हें भय लगे, कोई तुमसे भी भयभीत हो सकता है। एक विश्वास और आशा के सहारे मनुष्य मृत्यु को हरा कर प्रात:काल जागता है और मौत को हरा देता है। सभी तो रोज़ नहीं मरते। रोज़ जन्म मृत्यु की आँख-मिचौली चलती रहती है। वैसे जीवन हमेशा जीतता है, क्यों कि एक हार से जीवन जीना नहीं छोड़ता, पर मौत को प्राय: हारना होता है। संसार में जीवित प्राणी ज्यादा हैं। यह प्रकृति का संतुलन है। तुम जन्म से रोज़ सोते आये हो। सौमित्र के मरने से पूर्व तक। पहले तो तुमने यह चिन्ता नहीं की, आज ही क्यों? नहीं सोने से तुम मौत के और समीप पहुँच रहे हो। धीरे-धीरे तुम जीवन का विश्वास खो दोगे, फिर मैं भी तुम्हें नहीं बचा पाऊँगा। प्रकृति ने भी दिन के बाद रात बनायी है। रात को वनस्पतियाँ भी सोती हैं, पक्षी भी सोते हैं। विकास का यह क्रम बिना सोये संभव नहीं। सुप्तावस्था में ही जीवन का प्रस्फुटन होता है। मुत्यु भी समझती है कि जीवन उससे डरता नहीं और रोज सोता है।
आश्रम में प्रवेश करते समय गुरु ने शिष्य के चेहरे पर नये जीवन का संचार देखा। उसके मन से मृत्यु का भय समाप्त हो चुका था।
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5- जनता जागरूक नहीं है?
विक्रमादित्य ने वेताल को पेड़ से उतार कर कंधे पर लादा और चल पड़ा। वेताल ने कहा-‘राजा तुम बहुत बुद्धिमान् हो। व्यर्थ में बात नहीं करते। जब भी बोलते हो सार्थक बोलते हो। मैं तुम्हें देश के आज के हालात पर एक कहानी सुनाता हूँ।
विक्रमादित्यक ने हुँकार भरी।
वेताल बोला-‘देश भ्रष्टाचार के गर्त में जा रहा है। भ्रष्टाचार की परत दर परत खुल रही हैं। बोफोर्स सौदा, चारा घोटाला, मंत्रियों द्वारा अपने पारिवारिक सदस्यों के नाम जमीनों की खरीद फरोख्त,राम मंदिर-बाबरी मस्जिद की वोट बैंकिंग राजनीति, संसद–विधानसभा में कुश्तम-पैजार, न्यायाधीशों पर उठती उँगलियाँ,महँगाई-जनसंख्या पर नियंत्रण खोती सरकार, धराशायी हरित क्रांति, बापू के मायूस तीन बंदर, आरक्षण की बंदरबाँट,विदेशी कंपनियों द्वारा भारतीय बाजार हड़पने के नये नये प्रलोभन,2जी स्पेक्ट्रम घोटाला, हिंदी भाषा-हिंदी साहित्यकारों का दर्द,दिन पे दिन बढ़ती जा रही आपराधिक प्रवृत्तियाँ,स्टिंग ऑपरेशंस, विदेशी बैंकों में भारतीयों की जमा करोड़ों की अघोषित दौलत,कबूतर बाजी,आतंकवाद,बम कांड, पुलिस की मजबूरी, बढ़ता गुण्डाराज, ऐसा है हमारा देश । आखिर इसका कारण क्या है राजा? यदि तुमने इसका सही जवाब नहीं दिया तो तुम्हारे टुकड़े-टुकड़े हो जायेंगे।'
विक्रमादित्य ने जवाब दिया- ‘जनता जागरूक नहीं है!!’ राजा कह कर चुप हो गये। थोड़ी देर शांति छाई रही।
वेताल ने अट्टहास किया और बोला-‘राजा तुम बहुत चतुर हो। एक ही बात में सबका जवाब दे दिया। मैं च--ला--!!!'। विक्रमादित्य सम्हलते उसके पहले ही वेताल छूट भागा और पेड़ पर लटक गया।
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6- नाटक की सज़ा
प्रज्ञा ने अंधे और एक हाथ से अपाहिज एक लड़के को उसकी स्पेशल वॉकर पकड़ कर सड़क पार करवाई थी। बात आई गई हो गयी। एक दिन एक बैंड में प्रज्ञा को गाने का अवसर मिला। प्रज्ञा अपना स्वर बताने के लिए कीबोर्ड प्लेयर की ओर मुड़ी। वह मैं था। अमित अहलूवालिया। मुझे देखते ही पल भर के लिए वह ठिठकी। क्षण भर उसने मुझे निहारा। उसकी नज़र तभी कीबोर्ड के स्टेंड पर पड़ी। यह वही वॉकर था और वह कीबोर्ड प्लेयर वह अंधा और अपाहिज लड़का था, जिसे उसने सड़क पार करवाई थी। आज वह अच्छा भला था। आंखें भी थीं और दोनो हाथ भी सही सलामत थी। वह बिना गाना गाये स्टेज से उतर कर चली गयी। सभी स्टेज के कलाकार और दर्शक यह माजरा समझ नहीं सके। लेकिन मैं सब समझ गया था।
कार्यक्रम खत्म होने के बाद मैं माफ़ी मांगने के लिए प्रज्ञा के पास गया, तो वह तमतमा उठी। वह कुछ बोलता उसके पहले ही वह लगभग चिल्ला़ उठी- "तुम जैसे झूठे और नाटकबाज़ से मैं बात नहीं करना चाहती,क्या सोच के तुमने मुझसे यह मज़ाक किया था। क्या तुम्हारी लाचारी को देख कर मुझे तुमसे प्यार हो जायेगा। गेट आउट,आज के बाद मैं तुम्हारी मनहूस शक्ल भी नहीं देखना चाहती।" वह पैर पटकती हुई वहाँ से चली गयी।
समय ने करवट बदली। कारगिल छद्म युद्ध में पहाड़ी चढ़ते हुए एक बम से फटे विशाल पत्थर की चपेट से मैं अपनी एक आँख और एक हाथ गँवा बैठा। कारगिल युद्ध् खत्म हुआ। इस घटना के तीन साल बाद पूरी तरह से ठीक होने के बाद मैं देहरादून अपने घर लौट रहा था । बैंड वाली उस घटना के बाद मैंने सेना ज्वायन कर ली थी। पढ़ा लिखा था, शीघ्र ही लेफ्टीनेंट के पद तक पहुँच गया था। वैसे मैं दस साल बाद घर लौट रहा था। घर पर भी सब कुछ बदल गया होगा। मालूम पड़ गया था कि बड़े भाई सुमित की शादी हो गयी थी। बहिन कला भी अपने ससुराल में खुश थी। उसके दो जुड़वाँ लड़कियाँ थीं। माँ मुझे बहुत याद करती थी। लंबे समय से मैंने भी सम्पर्क करना बंद कर दिया था। मैं हमेशा नहीं लौटने का बहाना बना दिया करता था। पर माँ की तबियत बहुत खराब होने और यह मालूम होने पर कि माँ का यह अंतिम समय है,वह उसका चेहरा देखना चाहती है, मैं फिर रुक नहीं सका और घर जाने के लिए आवेदन कर दिया था। मेरी छुट्टी मंजू़र हो गयी। घर के द्वार पर पहुँच कर मैंने आस-पास के वातावरण को निहारा। दस साल में कोई खास बदलाव नज़र नहीं आया। हाँ, घर का दरवाजा ज़रुर नया लगवा लिया गया था। मैंनें घंटी बजाई।
दरवाजा जिसने खोला उसे देखते ही मेरे शरीर में बिजली दौड़ गयी। व़ह प्रज्ञा थी। प्रज्ञा ने जैसे ही मुझे देखा वह घबरा गयी। उसके चेहरे का रंग फक पड़ गया था। वह नज़रें नहीं मिला पाई। वह दरवाजे के एक ओर हो गयी। पर मैं अंदर नहीं घुसा। वह कुछ बोलती उसके पहले ही मैं बोला- "घर में घुसने के पहले यह बता दूँ कि आज मैं कोई नाटकबाज़ नहीं हूँ। आज सचमुच मैं तुम्हारी बददुआओं से एक आँख से अंधा और एक हाथ से अपाहिज हूँ, पर उस दिन हक़ीक़त में नाटक कर रहा था, क्योंकि अंधे और अपाहिजों के लिए बन रही एक डॉक्यूमेंटरी फिल्म की शूटिंग कर रहा था। तुम तो बस अचानक वहाँ आ गयीं और हक़ीक़त में वह लाइव शूटिंग हो गयी। तुमने मुझे समझाने का मौका ही नहीं दिया और चली गयीं। तुम्हारी बददुआयें मेरे साथ हमेशा रहीं। आज उसी हक़ीक़त को लिए हुए मुझे ताउम्र जीना है।"
प्रज्ञा बोली- "मुझे सब मालूम हो गया था पर------!!" मैं मुड़ा और वापिस सीढ़ियाँ उतर कर लौटने का मानस बना चुका था। तभी वह सामने आ गयी और बोली- "ये बातें, गिले शिकवे सब बाद में हो जायेंगे। अभी आप सीधे हॉस्पिटल चले जाइये, माँ की तबियत बहुत खराब है।"
मैं सीधे हॉस्पिटल की ओर चल दिया। मेरा बैग मेरे कंधे पर ही था। प्रज्ञा ने उसे लेने के लिए हाथ आगे बढ़ाया, लेकिन मैंने मना कर दिया। मैं पल भर के लिए रुका और मुड़ कर प्रज्ञा को देख कर बोला- "तुम कभी मेरी मनहूस शक्ल नहीं देखोगी। तुमने जो वादा किया था, मैं उसे निभाऊँगा।"
मैं हॉस्पिटल नहीं गया। मेरी एक आँख और एक हाथ देख कर,माँ कहीं समय से पहले मर नहीं जाये। मैं सीधे हवाई अड्डे की ओर चल दिया। नेक्सट फ्लाइट से मैं दिल्ली रवाना हो गया। बाद में मालूम हुआ कि माँ ठीक हो कर घर आ गयी थी। कुछ दिन बाद अचानक तबियत बिगड़ी और वह चल बसी। मैं फिर भी घर नहीं लौटा। सुमित ने भी मुझसे नाता तोड़ लिया।
जिस झंझावात से मैंने दस साल गुजारे थे,अब प्रज्ञा को भी ज़िन्दगी भर उन्हीं तूफ़ानों से गुज़रना होगा। उसकी बददुआओं की सजा़ मुझे,घर में मेरी भाभी बन कर ज़िन्दगी भर प्रायश्चित करने की सज़ा उसे और हम दोनों के भाग्य का फल पूरे परिवार को किस रूप में मिलेगा, यह लगभग तय हो चुका था।
सच है ज़िन्दगी एक नाटक ही तो है!!!
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7- चवन्नी नहीं चली
एक भिखारी ने दूसरे भिखारी को मोबाइल पर कहा-‘यार, पिछले दो तीन दिन से दिखाई नहीं दिया।' उसने जवाब दिया-‘ऊपर वाला देता है तो छप्पर फाड़ के देता है। पिछले दो तीन दिन में दो बोरी भर के पैसे मिले हैं। उन्हें गिन रहा था, पूरे पाँच लाख और कुछ हैं। मैंनें तो यार, अपनी पहले की जमा पूँजी से घर को ठीक करा लियाहै, एडवांस दे कर डबल बैड, कूलर, कलर टी0वी0, वाशिंग मशीन,एक पुराना स्कूटर भी खरीद लिया है। बस अब अपनी गरीबी दूर ही समझो। इन्हें बैंक जा कर रुपयों में बदलवा कर और थोड़ा बहुत चुका कर कोई छोटा-मोटा बिजनस शुरु करना है।'
‘अरे तू कहीं चवन्नियों की बात तो नहीं कर रहा है। पिछले दिनों मुझे भी लगभग पाँच हजार की चवन्नियाँ भीख में मिली थीं।'
'हाँ, वो ही तो, मुझे तो बहुत माल मिला है यार।’
'अबे, भूल जा, उन्हें कैश कराने की तो तारीख ही निकल गयी।'
'कब?’ उसने धड़कते दिल से पूछा।
जवाब मिला-‘कल।' उसने आगे कहा-‘मेरे भी पाँच हजार मिट्टी में ही गये। बैंक वालों ने एक फूटी कौड़ी भी नहीं दी।' तभी फोन कट गया।
दो दिन बाद भीख के कटोरे ले कर फटेहाल अवस्था में दोनों फिर मिले। लाखों चवन्नियों वाले भिखारी से पहले वाला बोला-‘क्या् हुआ यार, ये कैसी हालत बना रखी है?
उसने जवाब दिया-‘क्या बताऊँ यार, तकाजे वालों ने सब लूट लिया, झौंपड़ी भी गयी। जमा पूँजी भी खाक हो गयी। अब समझा, अमीर ज्यादा अमीर और गरीब ज्यादा गरीब कैसे बन जाता है?’
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8- नारी को ही पहल करनी होगी
पति पत्नी दोनों डाक्टर थे। पत्नी ने तलाक़ का मुकदमा दायर कर दिया था। फैमिली कोर्ट में फैसले से एक दिन पूर्व जज ने, एक और अंतिम मौक़ा देते हुए दोनों से पृथक्-पृथक् अकेले में सवाल जवाब किये। जज साहब ने डॉ0पति को तो इस बात के लिए तैयार कर लिया कि वह पत्नी के साथ रहने को तैयार है,किन्तु डॉ0 पत्नी को तैयार नहीं कर पाये। आखिर तलाक हो गया। एक दिन अस्पताल में जज साहब और महिला डॉ0 मिल गयेा औपचारिकतावश महिला डॉ0 ने अपने चेम्बर में उन्हें चाय पर आमंत्रित कर लिया। चाय पीते हुए वे बोले- 'डा0 साहिबा, अब यहाँ मैं न जज हूँ, और न आप वादी, आपका तलाक़ हो चुका है, लेकिन मैं आपकी खामोशी का राज़ नहीं समझ पाया। आप द्वारा तलाक़ का मूल कारण वह नहीं था, जो साक्ष्यों और घटनाओं से सिद्ध हुआ है। वह तलाक़ की वज़ह कतई नहीं थे। आपको कोई एतराज न हो, तो मैं अब वास्तविकता जानना चाहता हूँ।'
'मुझे इससे भी कोई फ़र्क नहीं पड़ता जज साहब, कल उसके साथ कुछ भी घटे, उसे सज़ा हो, मुझे कोई फ़र्क नहीं पड़ता। मैं बस उस वहशी से मुक्त होना चाहती थी। मैं नहीं चाहती थी कि मेरे तलाक़ के कारण उसका जीवन, उसकी नौकरी ख़तरे में पड़ जाये। मैं घाव को नासूर नहीं बनने देना चाहती थी।' डॉ0 महिला ने कहा।
'फिर तो अवश्य ही कोई गम्भीर मामला था।'
'हम दोनों ही डाक्टर हैं, मैं चार माह से गर्भवती हूँ, एक तो मैं नहीं चाहती थी, कि मेरा गर्भ नौ महीने में, मेरे तनाव के कारण अपाहिज या कोई अनोखी बीमारी लेकर पैदा हो। मैं यह समय बहुत ही स्वंस्थम, शांति और खुशी खुशी बिताना चाहती थी। हर तनाव मुझे स्वीकार था, किन्तु हद तो तब हो गयी जब -----' वह रुक गई, उसका गला भर्राने लग गया था। संयत हो कर वह फिर बोली- 'वे लड़का चाहते थे और उसके लिए भ्रूण परीक्षण पर जिद कर रहे थे, जिसे करवाना ह
मारे लिए बहुत आसान था,लेकिन यह मेरा अपमान था और भ्रूण परीक्षण एक सामाजिक अपराध भी है।'
'ओह!' जज साहब के मुँह से निकला।
'हाँ, इसीलिए मैंने तलाक़ का यह कारण नहीं लिखा था, मुझे तो आसानी से तलाक़ मिल जाता, किन्तु उन्हें सज़ा हो जाती, उनका भविष्य अंधकारमय हो जाता। अपने पेशे से वे बहुत मेहनती और ईमानदार हैं,इसलिए मैंने मूल कारण को अलग रखा। सज़ा उन्हें दिलवानी थी, उनके पेशे को नहीं। इसके अलावा भी डॉक्टर होने के साथ साथ पारिवारिक सामंजस्यथता के अभाव से भी मैं, उनसे ही नहीं परिवार से भी बहुत प्रताड़ित हो रही थी, इसलिए इस कारण को गौण रखते हुए,मैंने तलाक़ का अन्य कारण लिखा था। यह हथियार तो मेरे पास ब्रह्मास्त्र की तरह कभी भी इस्तेमाल करने के लिए सुरक्षित था।' डॉक्टर ने कहा।
'इतना होने पर भी तुमने उस आदमी को बचा लिया, जो भविष्य में किसी दूसरी स्त्री के लिए अभिशाप बन सकता है।' जज साहब बोले।
'हम सामाजिक प्राणी हैं, ईश्वर पर आस्था रखते हैं, भविष्य के सुंदर स्वप्न देखते अवश्य हैं, किन्तु जीते वर्तमान में हैं,'कर्मण्ये वाधिकारस्ते----'गीता के इस संदर्भ को ध्यान में रखते हुए भविष्य के अच्छे बुरे कर्मों का हिसाब किताब ईश्वर पर छोड़ देते हैं। मुझे तो बस गर्भ में पल रही इस विलक्षण प्रतिभा के भविष्य के ताने-बाने बुनना है,किंतु वर्तमान तनाव रहित और खुशनुमा जीना है।' उसने आगे कहा- 'ऐसी ही अन्य कुरीतियों के लिए नारी को ही पहल करनी होगी।'
ऑपरेशन का बुलावा आ गया था। जज साहब से क्षमा माँगते हुए वह आपरेशन थियेटर की ओर चल दी। जिस समय जज साहब चेम्बर से बाहर निकल रही थे, वे उसकी महानता के बारे में सोच रहे थे।
-सन्मार्ग ओडिशा (पूर्वी भारत का लोकप्रिय हिन्दी दैनिक) में 8 मार्च 2012 को 'अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस विशेषांक' में प्रकाशित।
9- भ्रष्टाचार मिट सकता है
दो साहित्यकार घर पर मिले। एक बहुत चिन्तित थे। दूसरे ने पहले साहित्यकार से कहा-‘क्या बात है, बहुत चिन्तित दिखाई दे रहे हो। घर में सब ठीक तो है। पहले साहित्यकार ने कहा-‘घर में तो सब ठीक है, पर देश में कुछ ठीक नहीं चल रहा। अब तो विदेशों में भी अपने देश के भ्रष्टाचार के बारे में जानने लगे हैं लोग। पिछले दिनों ही अखबार में पढ़ा था कि एशिया प्रशांत में अपना देश भ्रष्ट देशों में चौथे नम्बर पर है।'
'हाँ, मैंने भी पढ़ा था।' क्या कर सकते हैं, कैंसर की तरह फैल चुका है यह रोग। कैसे मिटेगा यह लाइलाज रोग?'
पहले साहित्यकार ने कहा-‘मैं आजकल इसी विचार में रहता हूँ। भ्रष्टाचार की जड़ है यह रुपया। क्या ऐसा नहीं हो सकता कि पहले के राजा महाराजाओं की तरह देश में शासन करने वाली सरकार के ही नोट चलन में आयें और सरकार बदलने पर वे नोट चलन से बाहर हो जायें। इतिहास गवाह है, चमड़े के सिक्के चले, जॉर्ज पंचम के बाद महारानी के चित्र वाले नोट चले। फिर क्यों नहीं हमारे राष्ट्रपिता को इस मुद्रागार से मुक्त कर स्वच्छंद मुस्कुराने दें। डाक घर में देखो तो इनकी टिकिट पर ठप्पे से चोट पर चोट लगती है, शादी विवाह, पार्टियों में नोट उड़ाये जाते हैं। नोटों की कालाबाजारी, भ्रष्टाचारी, सट़टेबाजी में बापू को खुले आम शर्मसार किया जाता है। जो सरकार आये उसके चुनाव चिह्न वाले या सरकार के प्रमुख प्रधानमंत्री के चित्र वाले नोट छपें और सरकार के बदलते ही उनके नोट चलन से बाहर हो जायें। इससे कालाबाजारी, जमाखोरी भी कम होगी। करोड़ों अरबों के भ्रष्टाचार भी कम होंगे। कहो कैसी रही?’
दूसरे साहित्यकार अट्टहास करते हुए कहा-‘खूब रही।'
('कथा अभिव्यक्ति' में प्रकाशित)
10- पृथ्वी का जन्म दिवस
‘प्रणाम माते।' देवताओं ने देवलोक से निहारते हुए पृथ्वी को उसके जन्मदिन पर पुष्प वर्षा कर अभिनन्दन करते हुए कहा।
पृथ्वी ने चलते-चलते ही कहा- आशीर्वाद, प्रतापशाली बनें। ‘आप तो अमर हो, सर्वशक्तिमान् हो देवगण। मेरी दशा दिशा देख ही रहे हो। करोड़ों वर्षों से अबाध चलते-चलते मेरा जर्जर होता शरीर कहीं डगमगाने न लग जाये, इसलिए कुछ ऐसा करो कि मेरे पैरों में ताक़त आ जाये, वरन् मेरे किंचित भी रुकने से त्राहि-त्राहि मच जायेगी।‘
‘बतायें माते, अपार अनुभव और ज्ञान का भण्डार हैं आप, सहिष्णुता में सर्वोपरि हैं, दृढ़ निश्चयी इतना कि आपके कर्तृत्व पर गर्व करने को मन करे। हम ही सौभाग्यशाली नहीं हैं। आप को स्पर्श तक करने की सामर्थ्य हम में नहीं है। बतायें, कि हम आपके लिए क्या कर सकते हैं?’
‘मेरे शरीर पर चिथड़े-चिथड़े होते वस्त्र तुम देख रहे हो। मेरी अस्मिता को मेरे ही लोक के प्राणी किस तरह क्षीण करने पर तुले हुए हैं। महाप्रतापी सूर्यदेव भी कब तक मेघाच्छादित करेंगे। इस लोक के प्राणी जल का दुरुपयोग कर रहे हैं, संचय के लिए कोई प्रभावी क़दम नहीं उठा रहे हैं। हरियाली और वृक्षारोपण के अभाव में मेरे तन पर हरीतिमा वस्त्रालंकार तक जीर्ण शीर्ण हो रहे हैं। दिनकर के ताप से शरीर झुलसता रहता है। वे भी अपने प्रताप को कम कर इस लोक में प्राकृतिक आपदाओं को निमंत्रण नहीं देना चाहते। जनसंख्या विस्फोट, मेरे रोम रोम को छलनी कर असंख्य विशाल भवनों का निर्माण, उत्खनन, मेरी प्राकृतिक सम्पदा का दोहन, कुपोषण, पर्यावरणीय असंतुलन आदि से मेरी गति में कभी भी वाचालता आई, तो उसके कुप्रभाव से मेरे लोक के प्राणियों पर ही क़हर टूटेगा, इसलिए मैं तो उफ़ तक नहीं कर सकती। अब तो आप लोग ही मेरे लोक के प्राणियों को संदेश पहुँचाओ कि प्रकृति के रौद्ररूप का आह्वान न करें। इसकी प्रताड़ना से जीवन असंभव न हो जाये कहीं। जनसंख्या में दिनोंदिन होती वृद्धि शोचनीय है। इससे मैं और समुद्र में नीचे डूबती जा रही हूँ। परिणामस्वरूप मुझे दावानल, बड़वानल, सुनामी, रासायनिक और परमाणविक पदार्थों का विषपान तक करना पड़ता है। मेरी प्रतिरोधक क्षमता न्यून हुई तो असंख्य जनहानि के लिए प्राणी मुझे ही दोष देंगे। प्रकृति के पर्यावरणीय असंतुलन के लिए मैं मौन ही अपना दोष स्वीकार कर लेती हूँ। सभी तो मेरे अपने हैं। मैं किसे दोष दूँ। समर्थ प्राणी तो दूसरे ग्रहों पर जा कर प्रवास करने को प्रयासरत हैं, लेकिन निरीह प्राणी कहाँ जायें? आप जैसे सर्वशक्तिमान् और मेरे लोक के समर्थ प्राणियों में प्रकृति के साथ सामंजस्य बैठाने का पुण्य कर्म तुम्हें करना होगा। तभी मेरे धैर्य को पोषण मिलेगा। आपने तो युग परिवर्तन देखे हैं। मैं अनेकों बार जलमग्न हुई और आप के अथक परिश्रम से मुझमें अनेकों बार जीवन का नया संचार हुआ है, इसलिए आपको मेरा आशीर्वाद है कि आप यूँ सदैव मेरा ध्यान रखें, प्रकृति का संरक्षण करते रहें, ताकि मैं अपने अंदर छिपे अनन्य अपार धन-धान्य, मणि-माणिक्य आपको न्योछावर करती रहूँ और आपके लिए मंगल कामना करती रहूँ।
11- पुरुषार्थ और परमार्थ के लिए कंचन बन
तेजोमय बढ़ी हुई सफेद दाढ़ी से दिव्य लग रहे साधु को देख कर नदी किनारे बैठा वह युवक उठा और साधु को प्रणाम कर जाने लगा। साधु ने पीछे से युवक को आवाज़ दी-‘रुको वत्स।‘ युवक रुका और उसने पीछे मुड़ कर देखा। साधु ने कहा-‘बिना आत्महत्या किये जा रहे हो !’ युवक चौंक गया। इस साधु को कैसे मालुम हुआ कि वह यहाँ आत्महत्या के कुविचार से आया था। वह कुछ कहता साधु समीप आया और बोला-‘बेटे, अभी तुम्हारी उम्र ही क्या है और फिर इस शरीर को नष्ट करने का अधिकार तुम्हें किसने दिया? तुम स्वयं इस लोक में नहीं आये हो, तुम्हें लाया गया है! पता नहीं प्रकृति तुमसे कौनसा अनुपम कार्य करवाना चाहती है? हो सकता है, कोई ऐसा कार्य जिससे तुम अमर हो जाओ। चलो मेरे साथ। तुमने अपने शरीर को खत्म करने की अभिलाषा की अर्थात् एक तरह से तुम मर चुके हो। लेकिन भौतक शरीर से तुम अभी जीवित हो। अब यह शरीर तुम्हारा नहीं।
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साधु उस युवक को नदी के समीप के जंगल में ले गया। रास्ते में उसे सिंह मिला। सिंह ने नतमस्तक हो कर साधु और उस युवक का वंदन किया। साधु बोला-‘केसरी, मनुष्य और तुम में कौन सामर्थ्यवान् है? सिंह ने कहा-‘मुनिवर, योनि में मनुष्य सर्वश्रेष्ठ है, इसलिए सबसे सामर्थ्यवान् मनुष्य ही है।‘ साधु ने पूछा-‘वो कैसे?’ सिंह ने कहा-‘साधुवर हमारा शरीर बलिष्ठ है केवल शिकार करने में, डराने में, दहाड़ने में। इस जंगल में भले ही मैं सबसे शक्तिवान् हूँ, किंतु, इस चराचर जगत् में मुझसे भी कई बलिष्ठ हैं, जिनमें एक मनुष्य है। हम अपनी पूरी सामर्थ्य और शक्ति का उपयोग केवल अपनी भूख मिटाने में गँवा देते हैं और मनुष्य अपनी बुद्धि बल और सामर्थ्य से हर कठिनाइयों से जूझता हुआ सफलता पाता हैा हमारा शिकार तो वह हमारे जंगल में आकर कर लेता है। अब आप ही बताइये वो सामर्थ्यवान् है या मैं।
साधु और वह युवक आगे बढ़े। रास्ते में हाथी मिला। हाथी से भी साधु ने वही प्रश्न किया। हाथी बोला-‘मुनिश्रेष्ठ आप क्यूँ मेरा परिहास कर रहे हैं। मैं तो चींटी तक से आहत हो जाता हूँ। मनुष्य मुझे एक तीक्ष्ण अंकुश से अपने वश में कर लेता है, मेरी पीठ पर बैठ कर मुझसे मनचाहा कार्य करवा लेता है। मैं बस अपने मोटापे से सहानुभूति पा कर अकर्मण्य हो इधर उधर भटकता रहता हूँ। कुत्ते मेरे पीछे भौंकते रहते हैं। मनुष्य तो मुझे भी वश में कर लेता है। मनुष्य को कोई नहीं पा सकता।
वे फिर और आगे चले। रंग बिरंगे बहुत ही सुंदर पक्षियों का झुंड मिला। साधु के प्रश्न पर चहचहाते हुए वे बोले- मनुष्य के आगे हमारी क्या बिसात तपस्वी, हम नन्हीं सी जान तो इनका मनोरंजन करती हैं, हम या तो इस जंगल में स्वच्छंद घूम सकते हैं या मनुष्य के घरों में पिजरों में कैद हो कर संतोष कर लेते हैं और अभी तक तो हम यह समझते थे कि गिद्ध या चील ही सबसे ऊपर आकाश में उड़ सकती हैं या कपोत दूर तक उड़ान भर सकता है, पर हम ग़लत थे, अब तो मनुष्य न जाने किस पर सवार हो कर पलक छपकते ही जाने कहाँ से कहाँ पहुँच जाता है। वे दोनों को मुस्कराकर देखते हुए उड़ गये।
आगे उन्हें कुत्ता मिला। कुत्ते ने साधु को जवाब दिया-‘मैं कितना ही स्वामिभक्त क्यूँ न हूँ, मनुष्य की महानता को कोई नहीं पा सकता। पर मैंने एक ही बात मनुष्य में हम जंगली प्राणियों से भिन्न पाई है। वह यह कि मनुष्य का सबसे बड़ा दुश्मन मनुष्य ही है। हम यहाँ सभी जंगली प्राणी सपरिवार सकुटुम्ब शिकार कर एक साथ भोजन करते हैं, किन्तु मनुष्य कभी शांति से भोजन नहीं करता। यही कारण है कि मनुष्य मनुष्य का ही दुश्मन बन बैठा है। हमें पालने वाले ये मनुष्य, हमसे जैसा भी बरताव करते हैं, हम कभी विरोध नहीं करते, किन्तु मनुष्य जब से मनुष्य का शत्रु बन बैठा है, तब से अशांत है।
इस तरह जंगल में मिले सभी प्राणियों ने मनुष्य की ही प्रशंसा की। साधु ने कहा-‘सुनो वत्स, मनुष्य माया मोह में जकड़ा हुआ ऐसा प्राणी बन गया है, कि वह इस दलदल से जब तक नहीं निकलेगा, वह अमन चैन से नहीं जी सकता। महत्वाकांक्षा ने उसे अनासक्ति भाव से रहना ही भुला दिया है। जब तक वह इस दलदल से नहीं निकलेगा, वह चैन से नहीं जी सकता। यह संभव नहीं लगता। इसी कारण वह धीरे-धीरे संस्कार भूलता जा रहा है, अपने परिवार को संस्कारी नहीं बना पा रहा। उसी का परिणाम है कि तुम जैसे न जाने कितने लाेेग बिना सोचे समझे आत्महत्या का निर्णय ले लेते हैं औश्र मनुष्य जाति ही नहीं अन्य प्राणियों के लिए वह एक कोतूहल का विषय बन बैठा है। वन्य प्राणी भी इसीलिए मनुष्य सेे डरने लगे हैं। शहरों में इन वन्य प्राणियों से जैसा बरताव हो रहा है, अच्दे मनुष्य उन्हें वापिस अरण्य में ले जाकर छोड़ने लगे हैं।
साधु ने युवक के कन्धे पर हाथ रख कर कहा- 'मनुष्य को महत्वाकांक्षा ने अनासक्त्िाा भ्ााव से रहना ही भुला दिया है। यह कार्य अब तुम्हें करना है। तुम्हें आज से दूसरों के हित के लिए नया मार्ग प्रशस्त करना है। पुरुषार्थ और परमार्थ से अपने जीवन को तपाना है। क्योंकि तुम्हें तो अमर होना है, मरना होता तो तुम अब तक मर चुके होते, आत्महत्या कर चुके होते। इसलिए अब आगे बढ़ो और नये युग का सूत्रपात करो। तुम्हेंं इस संसार में शेरदिल इंसान मिलेंगे, अनेक हस्तियाँँ मिलेंगी, सुन्दरता मिलेगी, कुत्तों जैसे वफादार और गीदड़ जैसे चाटुकार मिलेंगे। अजगर वृत्त्िा वाले आलसी लोग मिलेंगे, दो गलेे और दो जीभ वाले सर्प की प्रकृति वाले जहरीले मनुष्य भी मिल सकते हैं, समय पर रंग बदलने वाले गिरगिट जैसी प्रवृत्ति वाले भी मिलेंगे, आँँखे फेरने वाले तोताचश्म भ्ाी तुम्हारे जीवन में आऍंगे। तुम्हें इन सब को पहले परखना होगा और अपना रास्ता ढूँढना होगा।
सााधु ने उठते हुए टात् म्ैा क्ळज्ञ- 'अब मैं बताता हूँ कि मनुष्य सबसे श्रेष्ठ क्यों है। मनुष्य सर्वश्रेष्ठ इसलिए है कि अरण्य के सभी प्राणियों में अपनी-अपनी प्रकृति है किन्तु अरण्य के सभी प्राणियों की प्रकृति अकेले मनुष्य में है। अपनी-अपनी प्रकृति और गुण के कारण अरण्य के प्राणियों का रूप-स्वरूप, आकार-प्रकार अलग-अलग है, किन्तु दुनिया के सभी प्राणियों की प्रकृति वालेे मनुष्य का स्वरूप आज तक नहीं बदला।'
साधु ने उस युवक को अरण्य से बाहर ला कर शहर का मार्ग दिखाते हुए कहा- 'जाओ, निकल जाओ, परमार्थ के यज्ञ को करने और जब भी तुम अपने आप को उद्विग्न पाओ तो इस जंगल में चले आना, इन प्राणियों ने तुम्हें मेरे साथ देखा है। मनुष्य तुम्हें भूल सकता है, ये प्राणी तुम्हें कभी नहीं भूलेंगे। जाओ इस शरीर को तुम अब पुरुषार्थ और परमार्थ के लिए कंचन बनाओ।'
यह कह कर साधु उस युवक को जंगल से बाहर नगर मार्ग पर छोड़ कर मुड़ कर जंगल में लुप्त हो गया।
12- दर्द के उन लम्हों में
माँ के मना
करने पर भी करवा चौथ पर दिन भर पानी नहीं पीने का पत्नी विजया ने पहली बार कठोर
व्रत ले लिया था। शाम को चाँद देखने पर ही पानी का घूँट पीने का दृढ़ निश्चय।
दोपहर होते-होते विजया को माइनर हार्ट अटैक हुआ और उसे बेहोशी की हालत में अस्पताल
में भर्ती कराना पड़ा। पूरा शरीर पसीने से तरबतर। पानी की कमी। ड्रिप चढ़ानी पड़ी।
वेंटिलेटर पर रखा गया। रात के साढ़े आठ बजे होंगे। मैं हॉस्पिटल की आईसीयू की
खिड़की से बार-बार आकाश की ओर देख रहा था, चाँद इसी ओर निकलना था। दूर-दूर तक चाँद
दिखाई नहीं दे रहा था। तभी मेरे हाथ पर स्पर्श हुआ। विजया ने मुझे छुआ था। मैंने
उसकी ओर देखा। वह मुसकुरा रही थी। मुझे फड़फड़ाती आँखों से एकटक देख रही थी। आँखों
की कोरों पर आँसू छलछला आए थे। थोड़ी देर में वह फिर बेहोश हो गई। रात यूँ ही
आँखों में कट गई। सुबह नर्स के उठाने पर मैं उठा, देखा विजया ठीक थी। वह बैड पर
बैठी हुई थी। डॉक्टर के कहने पर मैंने उसे पानी पिलाया। वह मुझे रात की तरह एकटक
देखे जा रही थी। मैं झेंपते हुए बोला- ‘सॉरी, मैं तुम्हें चाँद नहीं दिखा पाया,
तुम्हारा करवा चौथ का व्रत अधूरा रह गया।'
उसने
धीरे-धीरे कहा- ‘नहीं, उन दर्द के लम्हों में मैंने पल भर तुम्हें देख लिया था,
मेरा चाँद तो तुम थे, मेरे पास थे, मैं क्यों कोई दूसरा चाँद देखूँ और अभी तुमने
मुझे पानी का पहला घूँट पिला दिया। मेरा करवा चौथ पूरा हो गया।
13. छोटी
सी बड़ी खुशी
बेटी तृषा को
लंदन गये 12 वर्ष हो गये थे. वह पिछले साल ही भारत आई थी. उसके 2 बालक थे, एक बेटा
कुणाल 9 वर्ष और बेटी कुनिका 4 वर्ष. सारे गिले शिकवे दूर हो गये. वह हवा के एक
झौंके की तरह आई और चिडि़या की भाँति फुर्र उड़ गई लंदन. उसे गये 6 महीने हो गये
थे. एक रात बारह बजे के लगभग उसका लंदन से फोन आया-‘पापा, नमस्कार, कैसे हैं. हम
खुशी से फूले नहीं समाये. कुशलता के समाचार कहने सुनने के बाद उसने कहा- ‘पापा, एक
खुशखबरी है, कुणाल का यज्ञोपवीत तय हो गया है. हमारे पापाजी ने तय किया है कि उसका
यज्ञोपवीत लंदन में ही करेंगे, इसलिए आप को सपरिवार बुलाने की कह रहे हैं. आपको
सपरिवार आना है. आप आऍंगे न...!!’
मैं सोच में
पड़ गया था, कुछ कहते नहीं बना. कुछ पलों बात उसकी आवाज से मैं चौंका- ‘क्या हुआ
पापा, आपने जवाब नहीं दिया... आपको चिंता नहीं करना है.. सब व्यवस्था हो
जाएगी.., आपको जरूर आना है, पहला प्रस्ताव (संस्कार) है.’
मैंने अपने
संकोच को नहीं बताते हुए पूरे उत्साह के साथ कहा- ‘हाँ, अरे... यह तो बहुत खुशी
की बात है, हम जरूर आएँगे...!!’
उसने जवाब
दिया- ‘वीज़ा की कार्यवाही के लिए हम जल्दी ही आपको समझा देंगे और स्पोंसर लैटर
भिजवायेंगे तब सारी कार्यवाही करनी है.’’
मैं
हाँ...हाँ.. करता रहा. पर मेरा ध्यान कहीं और था. बेटे का मेडिकल की पढ़ाई के लिए
रूस भेजने के लिए कर्ज लिया था, अभी तक नहीं चुका था. मैं रिटायर होने वाला था,
बैंक में जितनी चाहिए राशि नहीं थी कि मुझे वहाँ जाने की अनुमति नहीं मिलेगी, मैं
जानता था. वही हुआ. मेरे समधी ने नहीं, उनके किसी मित्र ने हमें स्पोंसर किया था,
किन्तु हुआ वही, मुझे फंड की कमी से स्वीकृति नहीं मिली. बड़ी खुशी छोटी रह गई
थी. तभी एक और घटना ने मेरी तो समस्याओं का समाधान तो कर दिया था, किन्तु बच्ची
को दु:खी कर दिया था. जिसने मुझे स्पोंसर किया था उसकी तीव्र हृदयगति का अटैक आने
से मौत हो गयी. अब इतना समय भी नही था कि वीजा के लिए अपील कर सकें. हमारे बिना ही
यज्ञोपवीत संस्कार सम्पन्न हुआ. दुखी मन से बच्ची ने हर संस्कार से पहले फोन
करके अनुमति माँगी, बच्चे ने हर बार हमें नमस्कार कर अनुमति माँगी. हमने
आशीर्वाद दिया. हम अभिभूत हो गए थे. घर में बैठे-बैठे छोटी सी खुशी, तब बहुत बड़ी
लग रही थी.
14. यहाँ लोग थूकते बहुत हैं
मेरे समधी मुंबई
आए हुए थे. उनका स्वाथ्य अब ठीक नहीं रहता था. इसलिए मुंबई आकर यहीं बसने का
विचार कर रहे थे. लंदन में वे पिछले 35 साल से रह रहे थे. अपना घर था, सभी सुख
सुविधा थी, पर वे अब लंदन से मुंबई अपने पैतृक घर में अपना बाकी का समय गुजारना
चाहते थे. उन्हें अब वहाँ की सर्दी सहन नहीं होती थी. लंदन में बर्फीली ठंडक के
कारण घुटनों की बीमारी आम है. वे व्हील-चेयर पर आ गये थे. एक ही बेटा था, इसलिए
वे चाहते थे कि वे भी मुंबई आ जायें, लंदन
भी आते-जाते रहना. पर उनका पोता यानि मेरा 9 साल का दोहिता जिद पर अड़ गया कि वह
तो लंदन में ही रहेगा, वहीं पढ़ेगा. दादाजी ने कहा भी कि यहाँ भी बहुत अच्छे-अच्छे
अंग्रेजी मीडियम के, कान्वेंट एजूकेशन के स्कूल हैं, पर वह नहीं माना. कारण पूछने
पर जो उसने बताया, तो सभी अवाक् रह गये. उसने अंग्रेजी में कहा- ‘पहली बात तो यह
कि यहाँ गंदगी बहुत है. दूसरी यहाँ किसी को भी ट्रेंफिक सैंस नहीं है और तीसरी बात....!’
तीसरी बात
कहते-कहते वह थोड़ा रुक गया. सब एक दूसरे का मुँह देख रहे थे, मेरी बेटी ने कहा- ‘बताओ..
बताओ.. डरो मत कोई तुमसे कुछ नहीं कहेगा...’
उसने अपनी बात
को समझाने के लिए अंग्रेजी में ही स्पष्ट किया- ‘यहाँ लोग थूकते बहुत हैं. हमारे
यहाँ क्लास में टीचर ने बताया था कि थूकना घृणा की निशानी है, घृणा क्रोध को जन्म
देती है, और क्रोध में आदमी अकसर अपराध करता है. उसने आगे कहा- ‘क्या यहाँ के लोग
सबसे घृणा करते हैं, यहाँ कोई अपने देश से प्रेम नहीं करता, क्यों जगह-जगह गंदगी
रहती है, क्यों थूकते हैं जगह-जगह पर लोग. अपने वहाँ (लंदन) तो ऐसा नहीं होता.’
सब उस छोटे से
बच्चे की बात का जवाब नहीं दे पाये, निरुत्तर हो गये थे.
लंदन से बेटी
इस बार घर नहीं आ रही थी. वह अपने दो बच्चों साथ मुंबई आ गई थी. भारत में बैंक
खातों को आधार लिंक, पैन कार्ड से जोड़ना, आधार कार्ड बनवाना, पुरानी प्रोपर्टी को
बेचना आदि कई कामों के कारण उनका थोड़े समय के लिए क्रिसमस के पूर्व भारत आने पर
बहुत व्यस्त कार्यक्रम के कारण बेटी-दामाद ने हमें मुंबई बुला लिया था. मैं और
पत्नी दिन भर उनके साथ रहे. दूसरे दिन हमें घर लौटना था. बोरिवली से मुंबई
सेंट्रल. 32 किलोमीटर, 9005-मुंबई सेंट्रल-निजामुद्दीन विशेष राजधानी रेल, रवाना
होने का समय 4.00 शाम. हमने ओला केब बुक की. 2 बजकर 4 मिनिट पर हम बोरिवली से
रवाना हुए. सफर लगभग डेढ़ घंटे का बताया, तो पहले तो हम निश्चिंत हो गये कि समय से
कुछ समय पूर्व पहुँच ही जायेंगे. सभी ने यही कहा था कि दोपहर को ट्रेफिक ज्यादा
नहीं होता. पर जब केब का सफर शुरु हुआ तो धीरे-धीरे उतार-चढ़ाव आने लगे; कहीं बहुत
ट्रेफिक, कहीं जाम, कहीं आगे निकलने की दौड़ ने सफर बहुत धीमा कर दिया. बांद्रा के
पास हैंगिग ब्रिज से पहले टोल नाके पर लंबी कतार. वहाँ से रवाना होते ही दिल की
धड़कनें धीरे धीरे बढ़ने लगी थीं. केब के मोबाइल स्क्रीन पर रुट मेप पर दूरी तय
करने में लगने वाले समय को देख कर धड़कने बढ़ रही थी, उससे ऐसा लग रहा था कि आज
गाड़ी चूक सकते हैं. हैंगिंग ब्रिज क्रॉस करने के बाद मुंबई सेंट्रल तक भीड़, सिग्नल
पर रुकने, हैवी ट्रेफिक से चिंता बढ़ती जा रही थी. डेस्टिनेशन 10....9....8....7
मिनिटि. मेरा ध्यान बस केब के मोबाइल पर ही था. 3 बज कर 55 मिनिट पर मुंबई सेंट्रल
रेल्वे स्टेशन के सामने कैब ने हमें उतारा. हमने उसे शीघ्र उसका किराया चुकाया
और भागे सीधे प्लेटफार्म पर. बी-7 कोच में हम दोनों ने कदम रखा और रेल रवाना हो
गई. एक क्षण के लिए मैंने दिल की धड़कनों की धक-धक सुनी. अपनी सीट पर बैठ कर हमने
शांति की साँस ली. थोड़ी देर बाद मैंने मोबाइल पर कैब के पेमेंट के बारे में मैसेज
देखा. उसमें लिखा था- Pls. pay bill aount of Rs. 702 in cash for your ola ride,
served by Ramkeval. Tolls/parking included. तब मैंने सोचा कि टोल का भुगतान तो
मैंने किया था, मेरे पास रसीद थी, ड्राइवर ने मुझसे पूछने पर कहा ही नहीं कि
भुगतान उसे करना है या जिस समय किराया ले उसे कम करके देना है. वह पूरा पैसा ले
चुका था. खैर संतोष भी हुआ कि कोई बात नहीं टोल के 60/- रुपये भले ही चले गये,
किंतु उसने हमें समय पर मुंबई सैंट्रल पहुँचा दिया था. पर भविष्य में कोई ड्राइवर
किसी को इस तरह धोखे में नहीं रखे, रिव्यू में मैंने ‘ओला केब’ को टोल के बारे
में बताया. अभी तक ओला का कोई जवाब नहीं आया है.
16. अनमोल खुशी
मैं 2015 में सेवानिवृत्त हो गया था. बेटा रूस
से मेडिकल की डिग्री ले कर 2012 में भारत लौट आया था. विदेश से मेडिकल की उच्च
शिक्षा प्राप्त करके भारत आने वाले डॉक्टर्स को भारतीय चिकित्सा परिषद् (एम.सी.आई.)
की परीक्षा उत्तीर्ण करना तत्पशचात् एक वर्ष की इंटर्नशिप करना जरूरी होता है.
आते ही उसने भारतीय चिकित्सा परिषद् (एम.सी.आई.) की परीक्षा पास कर ली और एक साल
की इंटर्नशिप भी कर ली. उसका दिल्ली मेडिकल काउसिंल (डी.एम.सी.) में पंजीकरण हो
गया. वह पंजीकृत चिकित्सक बन गया था. वह दिल्ली में ही रह कर निजी अस्पतालों में
छोटे-छोटे अनुबंध पर चिकित्सा सेवा दे रहा था और अपना खर्च निकाल लेता था. अंतत:
जून 2016 में उसका भारतीय सशस्त्र सेना में शॉर्ट सर्विस कमीशंड मेडिकल ऑफिसर के
पद पर चयन हो गया और वह दिल्ली में ही पदस्थापित हो गया था. देश की सर्वोच्च
सेवा में उसकी नियुक्त्िा से परिवार गौरवान्वित हो गया था. यह पहली खुशी थी.
मालूम हुआ कि उसे सेना में ‘कैप्टन’ की रैंक
मिली है. एक सादा समारोह में सितारा अलंकरण समारोह में उसे कैप, स्टार, बैज लगाये
गये. उसे सितारा और कैप में सुसज्जित देखना अलौकिक था. यह दूसरी खुशी थी.
सेना में सभी औपचारिकता पूर्ण करने के बाद लगभग 3
से 4 महीने के बाद ही पहला वेतन मिलता है, इसलिए बेटे को हर माह खर्च के लिए हम ही
मदद करते थे. दिवाली के दूसरे दिन 1 नवम्बर को बेटे का फोन आया कि पापा मेरी
सेलेरी आ गई है. हमारी खुशी दो गुनी हो गई. यह तीसरी खुशी थी.
तभी उसने आगे कहा- ‘पापा आपके बैंक खाते में 2
लाख रुपये डाल दिये हैं.’ अब वह खुशी चार गुनी हो गई थी. इन अनमोल खुशियों को शब्दों
में नहीं बाँधा जा सकता था. हमारी तपस्या सिद्ध हो गई थी.
17. कैश काउंटर
मोहल्ले में ‘’चंचल राम चंडू राम’’ की किराने की दुकान बरसों
से चल रही थी. चंचल को चच्चू के नाम से ज्यादा जानते थे, बचपन से दुकान पर काम
करता था, पिता चंडूराम के मर जाने के बाद चच्चू ने दुकान सँभाल ली थी. किराने की
दुकान प्राय: उधार में ज्यादा, नकद में कम चला करती हैं. जितना उधार चुकता, उससे
दुगुना उधार हो जाता.
जैसे ही नोट बंदी के दौरान पाँच सौ- एक हजार के नोट बंद हुए, चच्चू की
पौ-बारह, जैसे लाटरी खुल गई हो. बरसों का जितना भी उधार था, एक दिन में उतर गया.
लाखों रुपये की कमाई एक दिन में हो गई. मोहल्ले के रामनिवासजी ने आकर पूछा- ‘चच्चू
भाई मेरा महीने का किराना कितना जाता होगा.’ चच्चू ने जवाब दिया 5 से 7 हजार
रुपये का. चौके पर छक्का लगा. महाशय रामनिवासजी ने एक गड्डी पाँच सौ और हजार के
नोट की थमाते हुए कहा- ‘ले यह दो साल का एडवांस किराने का पेमेंट एक लाख रुपये,
जमा कर लेना. मना करते-करते भी रामनिवासजी उसके यहाँ गड्डी दे कर चल दिये. मोहल्ले
में बात छिपती थोड़े ही है, फिर क्या था, रात को बारह बजे तक चंचल के पास चंचला
का ढेर हो गया. और मोहल्ले व ज्यादातर जान पहचान वालों ने अपने सम्बंधों का
वास्ता दे कर चंचल को मालामाल कर दिया.
सवेरे चंचल की दुकान बंद थी, और वह बैंक के सामने लंबी लाइन में
थैला भर कर नोट जमा कराने में लगा हुआ था. रात में वह अपने चार्टर्ड अकाउण्टेंट
से मिल लिया था. उसने जो रास्ता बताया था, उससे वह संतुष्ट हो गया था. सवेरे के
खड़े हुए चंचल का शाम तक नंबर आया. नोट जमा करके वह लौटा तो खुश था.
नये साल में उसने अपनी छोटी सी दुकान तोड़ कर बड़ी दुकान बना ली
थी. उसकी दुकान पर बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा हुआ बोर्ड लगा लिया था ‘’मै0 चंचल
राम एण्ड डॉटर्स ‘’कैश काउंटर’’ और उसके नीचे कुछ छोटे अक्षरों में लिखा था उधार
बंद. बैंक से चच्चू ने ओ.डी. लिमिट भी ले
ली थी. सच कहते हैं ऊपर वाला जब भी देता है छप्पर फाड़ के देता है.
18. बेटी, तुम्हें आराम की आवश्यकता है
(अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस 8 मार्च को)
उस दिन
प्रकृति ने भी नारी की अस्मिता की रक्षा की थी, लोकलाज और लज्जा से. जी हाँ, सत्य
कथा है. मार्च का महीना था. गुलाबी सर्दी केवल सवेरे की रह गई थी. मैं सवेरे-सवेरे
प्रतिदिन लगभग साढ़े छ: बजे से साढ़े सात बजे तक घर से थोड़ी दूर सिद्धि विनायक
उद्यान के लिए प्रात:कालीन भ्रमण पर निकलता था और उद्यान के पैदल पथ पर आधा घंटे
तक लगातार हल्के कदमों से चक्कर लगाता था. पिछले दो साल से यह सिलसिला चल रहा
था. पार्क में बहुत सी महिलाएँ-पुरुष आते थे. कुछ न कुछ व्यायाम, या पैदल पथ पर
चलते थे, कुर्सियों पर बैठ कर ताजा हवा लेते थे, योग करते थे. कभी लोगों की संख्या
ज्यादा होती थी, कभी कम. उनमें से पिछले एक साल से लगभग मेरे ही समय पर एक
नवयुवती लगभग 25-26 वर्ष की होगी वह भी पैदल पथ पर चक्कर लगाती थी. मेरी गति से
लगभग दुगुनी तिगनी गति से चलते हुए. मेरे मन में विपरीत लिंग का एक स्वाभाविक
आकर्षण था. उसका पीछे का ही भाग प्राय: देखने में आता था. मैंने कभी उसके चेहरे को
देखने का प्रयास भी नहीं किया. उसकी उम्र के अनुसार उसके गठन पर संतुष्ट था, किंतु
कभी कोई विचित्र बात नहीं देखी थी.
सब कुछ सामान्य
चल रहा था. छ: माह के लगभग एक दिन वह मुझसे पैदल पथ पर आगे निकलते हुए टकराते हुए
बची. टकराई नहीं. उसने मुझे देखा और मुस्कुरा दी. मैं भी स्वत: मुस्कुरा दिया,
‘कोई बात नहीं’ के लिए मौन स्वीकृति में सिर हिला दिया. वह आगे निकल गयी. लगभग दो
महीने बाद वह जब मुझसे आगे निकलते हुए तीन-चार चक्कर लगा चुकी थी, एक चक्कर में
मुझसे आगे निकलती हुई बोली- ‘नमस्ते अंकिल.’ मैंने भी ‘नमस्ते’ कह दिया. पर, एक
दिन एक अजीब सी घटना हो गयी. पार्क में हम केवल दो पैदल पथ पर चक्कर लगा रहे थे और
एक 70-80 वर्ष के बुजुर्ग व्यक्ति एक आराम कुर्सी पर बैठे ताजा हवा ले रहे थे. वह
मेरे पास से ‘नमस्ते’ कहते हुए निकली. मेरा ध्यान उसके आगे निकलने के बाद उसके
पैरों की तरफ गया. मैं अंदर तक काँप गया. मैं दूर तक उसे जाते हुए देखता रहा.
चारों तरफ देखा. और कोई वहाँ नहीं था और न आता दिखाई दे रहा था. बाहर सड़क पर अवश्य
लोग आ जा रहे थे. वह चक्कर लगाते हुए मेरे नजदीक आ कर आगे निकली ही थी कि मैंने
उसे आवाज दे कर रोका- ‘बेटी, रुको.’ वह ठिठक कर रुक गयी. मैंने उससे एक क्षण
नज़रें मिलाई और उसके पैरों की तरफ देखते हुए हिम्मत करके बोल गया- ‘बेटी, तुम घर
जाओ, तुम्हें आराम की आवश्यकता है.’ वह चौंक गई थी. मेरी नज़रे क्षण भर को फिर मिली और मैं तुरंत
आगे निकल गया. मैं दो क़दम आगे बढ़ते हुए इतना ही देख पाया कि वह नीचे अपने पैरों
की ओर देख रही थी. मैं आगे पैदल पथ जा कर मुड़ा और तिरछी दृष्टि से इतना ही देख
पाया कि वह तुरंत उसी पैदल पथ पर पीछे मुड़ कर द्वार की ओर तेज क़दम से बढ़ी और
बाहर निकल कर ओझल हो गयी. मैंने लंबी साँस ली. मैं फिर आगे पैदल पथ पर घूम नहीं
सका. प्रात:कालीन ठंडक से ठंडी आराम कुर्सी पर बैठ गया, पर सारा शरीर पसीने से
लथपथ था. मैंने मन ही मन प्रकृति का आभार व्यक्त किया और संयत होने पर उठ कर
पैदल पथ पर पुन: एक चक्कर लगा कर द्वार से निकल कर घर चल दिया.
रास्ते में
वहीं दृश्य मेरे मन में बार-बार दोहरा रहा था. उसके पैरों पर अंतर्स्राव से रक्त
सलवार से बाहर पिंडलियों पर बह कर आ गया था. उस नवयुवती को यह आभास तक नहीं हुआ था.
वह फिर कभी पार्क में सुबह मेरे सामने आने की हिम्मत नहीं जुटा पाई थी, क्योंकि
वह आज तक मेरे आने जाने के समय में पार्क में घूमने नहीं आई.
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