3- कृष्‍ण - एक जननायक

मेरी पुस्तक ‘जीवन की गूँज’ के लोकार्पण के समय प्रख्यात साहित्यकार रघुराज सिंह हाड़ा ने ‘यदा यदा हि धर्मस्य ---" पर सार्थक विवेचना की थी। उन्होंने कहा कि सभी अवतारों में कृष्ण का ही अवतार हैं, जिन्हें पूर्ण अवतार की संज्ञा दी जाती है। यह पूर्णता कैसे अर्जित हो? भगवान् होने के बाद तो वह विषय भोगने वाला हो सकता है,किंतु पूर्ण अवतार होने के लिए उसका स्वयं का वक्तव्य “यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत, अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्” को समझने की आवश्यकता पर बल दिया। ‘सृजाम्यहम्’ शब्द है, वचन नहीं दिया कि मैं आउँगा, कभी नहीं कहा था। जब तुम मेरा सृजन करोगे, तब ही मेरा सृजन होगा। इसका अगला श्लोक इसकी पुष्टि करता है कि कब आऊँगा, कैसे आऊँगा “परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्” दुष्टों का ही नहीं दुष्कृत्यों का भी ‘धर्मसंस्थापनार्थाय’ धर्म की स्थापना के लिए “संभवामि युगे युगे।" यानि जब-जब भी संभावनायें होंगी, मेरा सृजन किया जायेगा, मेरा सृजन होगा।
कहते हैं, पूत के लक्षण पालने में दिख जाते हैं। कंस के कारागार से नंदराय और यशोदा के घर पहुँचते ही वृष्णिवंशीय कृष्ण ने अपने गुण परिलक्षित करने आरंभ कर दिये थे। आकर्षण इतना कि स्घयं यशोदा उनके कमल सदृश कोमल शरीर को गोद में लेते समय थर थर काँप जातीं। जब से जटाजूट धारण किये, जिनके तेजस्वी मुख पर कोई देखने का साहस न कर सके, दृष्टि मिलाने की बात तो दूर, ऐसे यादवों के राजकुल मुनिवर गर्ग ने उसके नामकरण संस्कार के समय जो भविष्य वाणी की, वह कंस के संताप से त्रस्त गोकुलवासियों के लिए तो हर्षातिरेक से कम न थी, किंतु नंदराय, यशोदा और रोहिणी के लिए तो दहला देने वाली थी- ‘यह धर्म की रक्षा करने हेतु अनवरत भ्रमण करता रहेगा। अन्याय के विरुद्ध सदैव तत्पर रहेगा और न्याय के लिए 'न भूतो न भविष्‍यति' ऐसे कर्म करेगा, जिससे समस्त आर्यावर्त इसे अवतार के रूप में देखेगा। समस्त मानव जाति की रक्षा और विकास के लिए यह महासमर न हो उसके लिए समस्त मदांध राजकुलों को आगाह करेगा। रोकना यदि असंभव हुआ, तो महाविनाश करने को भी उद्यत होगा, इसका जन्म जन कल्याण के लिए हुआ है, युद्ध इसका ध्येय कभी नहीं होगा और यदि होगा तो भी युद्ध में कभी अस्त्र नहीं उठायेगा। इसके कर्म, युगों तक मानव जाति को मार्गदर्शन देते रहेंगे। यह कभी भी किसी भी राजसिंहासन पर अपना अधिकार नहीं जतायेगा। इसका आचरण सम्पूर्ण मानवजाति के कल्याण के लिए ही होगा। गर्ग मुनि ने इसके द्वारा पश्चिम सागर तट पर स्वर्ण नगरी की स्थापना के लक्षण भी बताये।
मुनि गर्ग ने भविष्यवाणी कर युग प्रवर्तक कृष्ण का फलित ज्योतिष तो बता दिया, किंतु वसुदेव को उनकी शंका का समाधान कभी नहीं मिला और वे उसे बालकृष्ण की चकित कर देने वाली लीलाओं में भूल से गये। यह अनुमान धीरे-धीरे तब होने लगा, जब बाल वय में कृष्ण का इंद्रदमन स्वरूप गोकुलवासियों पर ही नहीं, उन पर भी अमिट छाप छोड़ गया।

वस्तुत: तो गोवर्धन पर्वत की तलहटी में समस्त गोकुलवासियों और गोवंश को अपने बाल सखाओं के अप्रतिम सहयोग, और अथक परिश्रम से आश्रय देने का उनका अप्रतिम जनमंगल कर्म ही उनकी अथक जनकल्याण की यात्रा की प्रेरणा बना। उन्होंने निरीह, अशिक्षित, दलित, निर्धन, परिश्रमी, सच्चे और निष्ठावान् जन-जन के लिए राजकुल हठाग्रही राजाओं के गर्व को इंद्र के गर्व की भाँति चूर-चूर करने का मानस बना लिया था और वे इसी कारण कंस के उद्धार के साथ ही इसकी मूक घोषणा करने के लिए अपने अग्रज के साथ मथुरा प्रयाण के लिए सन्नद्ध हो गये थे। कंस का उद्धार करने वाला श्याम फि‍र गोकुल नहीं लौटा।
नंदराय को ‘न भूतो न भविष्यति’की मुनि गर्ग की बात स्मरण हो आई। क्या वह अपने जनक वसुदेव और माता देवकी के बारे में जान गया? इसलिए नहीं लौटा वह गोकुल!! वे उसे किशोर वय में देखने के लिए तरस गये। उसके शौर्य,सुंदरता,आकर्षण, उसकी देहयष्टि आदि के बारे में औरों से सुनते सुनाते रहते। इसी सोच में वे क्षीण होते जा रहे थे। कंस के पतन की असंभव सी लगने वाली बात जान कर तो वे किंकर्तव्योविमूढ़ हो गये थे। उसने मथुरा का राजसिंहासन उग्रसेन को सौंप दिया, जान कर पुन:गर्ग मुनि की भविष्यवाणी स्मरण कर सोच में डूब जाते-'यह कभी भी किसी भी राजसिंहासन पर अपना अधिकार नहीं जतायेगा।‘वह ॠषि सांदीपनि के यहाँ शिक्षा के लिए चला गया। बाद में भी वह गोकुल नहीं लौटा, जैसे मानव कल्याण की उसकी अथक यात्रा आरंभ हो गयी थी। उद्धव और बलराम कभी कभी गोकुल लौट कर हाल चाल बता देते थे। वे यह सोच कर संतोष कर लेते थे कि श्याम उनका था ही कब? निर्मोही से क्या मन लगाना ?
चौदह विद्यायें (चार वेद, वेदों के षडांग, मीमांसा, तर्क, पुराण और धर्म) तथा चौंसठ कलाओं को 64 दिन में सीख कर कृष्ण जन कल्याण की अपनी अथक यात्रा के लिए गरूड़ध्वज पर आरूढ़ हो चुके थे। वेदाध्यन कर उसने सर्वप्रथम गुरु पत्नी को शंखासुर द्वारा बलात् अपहरण किये गये उनके पु्त्र को छुड़ाने का वचन दिया और गुरु सांदीपनि का आशीर्वाद ले कर आश्रम से विदा ली। साथ में शिक्षा प्राप्त किये अपने गुरुभ्राता प्रिय सखा सुदामा को अपने गृह संभाग सौराष्ट्र के लिए विदा किया, जिसे द्वारिका के निर्माण के पश्चा्त् अपने सखत्व भाव के अतिरेक योग ने निर्धन से सुदामापुरी का शासक बना दिया।
एक बुआ कुंतीदेवी की व्यथा पिता वसुदेव से सुन कर तो स्वयं कृष्ण सोच में डूब गये थे। उन्हें भवसागर के क्षार का सा अनुभव होने लगा और उन्होंने अनुमान लगाया कि सम्पू्र्ण आर्यावर्त में किन घोर परिस्थितियों का निर्माण हो रहा है, जिसके लिए अथक यात्रा में विश्राम के लिए क्षणिक समय भी किसी विपत्ति को आमंत्रण देगा। ऐसा हुआ भी।
सर्वप्रथम उन्होंने पश्चिमतट की यात्रा की और वहाँ एंद्रजालिक शक्ति सम्पन्‍न शंखासुर का मर्दन किया और उसके विशाल शंख को प्राप्त किया, जिसका नाम रखा उन्होंने पांचजन्य। उसके यहाँ से गुरु सांदीपनि पुत्र दत्त को मुक्त किया और धन धान्य दे कर आश्रम के लिए विदा किया।
कंस का उद्धार करने के कारण वे जरासंध के शत्रु बन बैठे थे। इसके लिए कूटनीति से जरासंध ने कृष्ण की चार बुआओं में से एक बुआ श्रुतश्रुवा के पुत्र शिशुपाल को अपनी सेना के एक विभाग का सेनापति बना दिया था। इसलिए वे समझ गये थे कि कंस के श्वसुर जरासंध और फुफेरे भ्राता शिशुपाल उसके हमेशा विरोधी रहने वाले थे। मथुरा पर एक के बाद एक सोलह जरासंधी आक्रमणों से त्रस्त यादवों के एक खेमे ने कृष्ण का विरोध भी आरंभ कर दिया था। अत: सत्रहवीं बार आक्रमण के लिए तैयार जरासंधी सेना के आक्रमण से पूर्व ही एक कठोर निर्णय में उन्हों ने मथुरा आमंत्रण पर ही आने का वचन दे कर, अधिक जन विनाश, जन अकल्यारण न हो, एक यादव के लिए निरीह सेना के हजारों सैनिकों की आहुति अनुचित है,हमेशा के लिए मथुरा छोड़ दिया और  रणछोड़ कहलाये। श्रीराम के पश्चात् दक्षिणापथ के सँकरे मार्ग से दण्डकारण्य अरण्य पार करते हुए रणछोड़ कृष्ण ने परशुराम के दर्शन किये और उनकी सेवा सुश्रुषा से प्रसन्न करते हुए उनसे ज्ञान प्राप्त किया। उन्होंने कृष्ण को शिक्षा दी- ‘जो दुर्बलों के जीवन की, अधिकारों की रक्षा करता है, वह ही सच्चा क्षत्रियत्व है। वही सच्चा पुरुषार्थ है। जीवन क्या होता है?अधिकार का अर्थ क्या है? उत्तरदायित्व क्या होता है? प्रकृति का अभिप्राय क्या है? इसका बोध जो सरलता से कराता है, वही ब्रह्मत्व है। जन्म से ब्राह्मण होते हए भी कर्म से मैंने निष्ठापूर्वक क्षत्रियत्व का पालन किया। सर्वांगीण जीवन में, बाधा डालने वाले, किसी का भी आदर न करने वाले मदोन्मत्त क्षत्रियत्व का मैंने निर्दलन किया है। किसी भी राजसिंहासन का लोभ किये बिना ही सम्पूर्ण आर्यावर्त में भृगु आश्रम स्थापित करते हुए, ज्ञानदान का ब्रह्मकर्म मैं जीवन भर निष्ठापूर्वक करता आया हूँ। यही कार्य अब तुम्हें करना है। इसीलिए तुम्हारा ऊद्भव हुआ है। उन्होंने कहा कि ज्ञान का अर्थ है-चराचर सृष्टि की समग्र जानकारी, जो तुम्हें समस्त आर्यावर्त के भ्रमण से मिलेगी। विज्ञान का अर्थ है- विशेष ज्ञान, जिसे तुम अपनी शिक्षा दीक्षा और ब्रह्मास्त्र के ज्ञान से जान पाओगे। प्रज्ञान का अर्थ है-अपने स्वयं सहित सम्पूर्ण जीवन का समग्र ज्ञान,जिससे तुम पूर्णपुरुष बन जाओगे। यह सामर्थ्य केवल तुम में है, इसलिए मैं तुम्हें जन कल्याण और अधर्म के नाश के लिए सुदर्शन चक्र देता हूँ। सुदर्शन चक्र के बारे में उन्होंने बताया कि शिव ने त्रिपुरासुर की अदम्य शक्तियों का विनाश करने के लिए इसका निर्माण किया था। उनसे यह विष्णु ने प्राप्त किया, विष्णु ने उसे अग्नि को प्रदान किया, अग्नि ने इसे वरुण को दिया और वरुण से यह मुझे प्राप्त हुआ। जीवन में मुझे इसके प्रयोग की आवश्यकता ही नहीं पड़ी। मेरे कार्य परशु से ही सम्पन्न होते चले गये । तुम्हें इससे सत्य, न्याय और धर्म की रक्षा करनी है।
निसर्ग तत्व प्रेम की पराकाष्ठा के प्रेमत्रय स्वरूप कृष्ण को राधा से वैजयंतीमाला मिली और श्री से जुड़ कर कृष्ण से श्रीकृष्ण बनने का श्रेय मिला। भृगुवर परशुराम से सुदर्शन प्राप्त कर चक्रधारी बने। समग्र आर्यावर्त के भ्रमण से जन कल्याण करते करते सुयोग्य को राजसिंहासनारुढ़ करते हुए, उन्होंने भविष्य में उनसे सहायता का वचन लेते हुए अक्षोहिणी का निर्माण किया।
पंचगंगा के तीर्थ वाले पद्मावत राज्य के राजा शृगाल का आतंक दूर कर उन्होंने उसके पुत्र शक्रदेव को राज्य सौंपा। दण्डकारण्य होते हुए कुंतीभोज के राज्य अवंती में गर्ग मुनि से भेंट करते हुए वे आमंत्रण पर मथुरा पहुँचे । पिता वसुदेव से बुआ कुंती तथा पाण्डवों के साथ कौरवों के अनैतिक और अमानवीय व्यवहार के लिए कृष्ण से हमेशा उनका ध्या‍न रखने और न्याय दिलाने के लिए वचन लिया। तभी चेदि राज्य की महाराज्ञी ने,शिशुपाल के अपराध को क्षमा करने के लिए कृष्ण से विनती की और प्राणदान माँगा। कृष्ण ने कहा कि मैं उसके एक सौ अपराध तक क्षमा करूँगा,  इसलिए एक सौ एकवाँ अपराध करने की स्थिति न बने, उसे समझा दें।
राजसिंहासन उन्होंने प्राप्त किया नहीं था, इसलिए राजकन्या उन्हें कौन वरण करने के लिए बुलाता। उनकी छवि गर्वोन्मत्‍त्त राजाओं में अभी तक गोकुल के ग्वाले, गोबर और मिट्टी में खेलने वाले गोप की भाँति ही थी। इसी तरह के शब्दों से वे कृष्ण का भरी सभा में समक्ष और परोक्ष उपहास किया करते थे, किंतु मन के किसी कोने में उससे भयभीत भी रहते थे, क्योंकि उसके चातुर्य और शौर्य से धीरे-धीरे परिचित होते जा रहे थे। अपना भय वे उपहास और अभिषिक्त न होने के संवादों से छिपाया करते थे। विदर्भ का राजा भीष्मक जरासंध के पक्ष में हो गये थे। उन्होंने अपनी कन्या‍ रुक्मिणी के लिए स्वयंवर रचाया था। सभी राजकुल में संदेश पहुँचाये गये,किंतु शूरसेन राज्य के यादवों को आमंत्रित नहीं किया था। वे उनके आद्यपुरुष यदु के शापित होने के कारण, उनको क्षत्रिय नहीं मानते थे। यह मद भी कृष्ण को चूर-चूर करना था और क्षत्रियत्व दिखलाना था। उन्होंने कोई भी जनहानि न हो क्षत्रियत्व का मान रखने के लिए स्वयंवर में सम्मिलित नहीं होनें का निर्णय लिया। शूरसेन राज्य को आमंत्रित न करने से एक मात्र राजा क्रथकैशिक ने विरोध जताया था। उसने अपना राज्य कृष्ण को अर्पित किया और श्रीकृष्ण ने समयपरक, मन में इसे लौटाने के लिए दृढ़प्रतिज्ञ, स्वयंवर पर्यन्त राजमुकुट भी धारण किया, किंतु राजसिंहासन ग्रहण नहीं किया। यह कार्य केवल शिविर में ही सम्पन्न हुआ। भीष्‍मक को इसकी सूचना भिजवाई गयी। भीष्मक पु्त्र परशुराम शिष्य रुक्मि ने तब भी उन्हें राजा स्वीकार नहीं किया। भीष्मक द्वारा इसका विरोध करने पर जरासंध और शिशुपाल द्वारा बैठक में कृष्ण को लांछित किया गया। स्वयंवर नहीं हो सका । कृष्ण ने क्रथकैशिक को ससम्मान उनका राज्य‍ लौटा दिया और राजमुकुट भी। मित्रता और सहयोग का वचन ले कर कृष्ण द्वारिका बसाने के अपने स्वप्न को साकार करने के लिए उद्योग करने लगे।
जरासंध कृष्ण के कारण यादवों के शूरसेन राज्य को कृश करने के षड्यंत्र रचता रहता था। उसने एक और कूटनीति चाल चली। यादवकुल के राजपुरोहित मुनि गर्ग के पुत्र कालयवन को आमंत्रित करके। आकाशमार्ग से आक्रमण के निष्णात शाल्व को भी जरासंध ने अपने पक्ष में कर लिया था, जो अर्बुद पर्वत पर बसी एक सुंदर नगरी का शासक था। किंतु अपने पुत्र कालयवन के इस कृत्य से मुनि बहुत क्षोभित हुए। उन्होंने कृष्ण से कहा कि मैंनें जब अपने पुत्र को वचन के अनुसार अजितंजय नगरी के यवन राजा को दे दिया तो अब वह मेरा कहाँ रहा। तुम अपना कर्म करो। वह अपने कर्म का फल पायेगा। उन्हों ने यादवों के प्रति अपनी निष्ठा को अक्षुण्ण कह कर कृष्ण को संतुष्‍ट कर दिया।
खग्रास ग्रहण के समय पहली बार कृष्ण द्वारिका बसाने से पूर्व दान पुण्यादि हेतु कुरुक्षेत्र गये और वहीं पहली बार उन्होने अपनी बुआ कुंती और पाँचों पांडवों से भेंट की। उनके व्यक्तितत्व से प्रभावित हुए और अपने व्यवहार और प्रेम से कृष्‍ण ने उन्हें भी प्रभावित किया। उन्हें क्या पता था कि यह खग्रास एक बार और एक पीड़ा लेने लौटेगा। द्वारिका का निर्माण आरंभ हो गया।
धौलपुर के मरुक्षेत्र में शाल्व,भीष्मक और कालयवन की मित्र देशों की सेना से युद्ध आरंभ हुआ। काम्यवन की पहाड़ी पर समाधिस्थ मुचकुंद की गुफा में उत्पाती कालयवन का अंत उनकी क्रोधाग्नि से हुआ। कालयवन के राज्य से प्राप्त‍ अपार स्वर्ण सम्पत्ति को द्वारिका के निर्माण के लिए भिजवा दिया गया।
प्रभास क्षेत्र में जिस द्वीप पर कृष्ण ने शंखासुर का मर्दन कर गुरुपत्‍नी के अपहरण किये गये पु्त्र दत्त को छुड़ाया था, वह क्षेत्र उन्हें इतना भा गया कि वहाँ अपना स्वतंत्र राज्ये बसाने की योजना को वे शीघ्र मूर्त रूप देने के मार्ग सोचने लगे थे । तभी उन्हें अपने मित्र सुदामा का स्म‍रण हो आया। प्रभास और रैवतक पर्वत क्षेत्र के समीप के मणिकांतक द्वीप की शोभा से प्रभावित होने पर उन्होंने अपना स्वतंत्र द्वीप बसाने का दृढ़ निश्च्य कर लिया। शीघ्र ही द्वारिका का निर्माण हुआ और उस पर राज्याभिषेक हुआ तात वसुदेव का और द्वारिका की जिम्मेदारी उन्होंने सौंपी दाऊ को।
द्वारिका के बसने के बाद सर्वप्रथम कृष्ण को कौण्डिन्यपुर से भीष्मक कन्या रुक्मिणी का संदेश मिला। भाई रुक्मि उसका विवाह शिशुपाल से करना चाहता था,जो रक्मिणी को स्वीकार नहीं था। रुक्म‍णी हरण हुआ,बहिन की करुणा दृष्टि से रुक्मि को जीवन दान मिला। अवंती में बलराम के सेनापतित्व में भीष्मक की सेना से विजयी हो कर यादव दल लौटा और द्वारिका पहुँच कर कृष्ण की पहली पत्नी और पटरानी बनीं रुक्मिणी।
उधर मथुरा में उग्रसेन के कोश की स्थिति ठीक नहीं थी। जरासंध का भय अभी तक खत्म‍ नहीं हो पाया था। कोश की कमी के कारण सैन्य शक्ति भी क्षीण होती जा रही थी। कृष्ण को जैसे ही समाचार मिले उन्होंने स्थिति पर विचार किया। द्वारिका की सुधर्मा राजसभा में एक मंत्री सत्राजित ने अपनी प्रबल सूर्य आराधना से स्यमंतक मणि प्राप्त की थी। इस बारे में कृष्ण जानते थे। उन्होंने उसकी विशेषता के बारे में सुना था। यह मणि लोह को स्वर्ण में परिवर्तित कर देती थी। उनकी निष्ठा का प्रताप यह था कि द्वारिका को स्वार्णपुरी बनाने में उनका बहुत बड़ा हाथ था। कृष्ण उनका बहुत आदर करते थे। उन्होंने मथुरा की आर्थिक स्थिति सुदृढ़ करने के लिए सत्राजित से मणि राजपुरोहित मुनिगर्ग के संरक्षण में मथुरा भेजने के लिए माँगी,किंतु उन्होंने मना कर दिया। बात आई गई हो गयी। सत्राजित के सहोदर प्रसेन उसे पहन कर अरण्य में आखेट के लिए गये और सिंह द्वारा मारे गये। वह मणि धूलधूसरित हुई वहीं पड़ी रही,जो बाद में ॠक्षपर्वत के निषाधराज जाम्बवान के हाथों लग गयी। द्वारिका में यह भ्रांति फैल गयी कि प्रसेन की हत्या कर, कृष्ण ने वह मणि चुरा ली है। अपने ऊपर यह आरोप मिथ्या सिद्ध करने के लिए उन्होंने चारों तरफ चर दौड़ाये और स्वयं भी स्यमंतक ढूँढ़ कर लाकर उन्हें सौंपने की शपथ ले कर निकल पड़े। बाद में जाम्बवान ने अपनी पुत्री जाम्बवती को पत्‍नी के रूप में स्वीकार करने के वचन पर स्यमंतक मणि लौटाई, जिसे ससम्मान उन्होंने सत्राजित को सौंपी। लज्जा से और प्रायश्चित के लिए उन्होंने अपनी पुत्री सत्यभामा उन्हें पत्‍नी के रूप में देने हेतु आमंत्रण भिजवाया। विवाह हुआ और भेंट में मिली स्यमंतक मणि। मणि से द्वारिका स्वर्णपुरी बनी और मथुरा व अन्य कृश राज्यों को उन्होंने वैभव सम्पन्न और सैन्यशक्ति सम्पन्न बनाया।
संस्कृति की रक्षा, वीर कुल की रक्षा के लिए, वंश वृद्धि के लिए साधु संतों को प्रश्रय दिया जाता था। युद्ध में इनका वध निषेध था। राज्यों की सीमाओं का बंधन इनके लिये नहीं था। असुर, दानव, राक्षसों ने भी कभी इन्हें शारीरिक कष्ट नहीं पहुँचाया,अपितु अपने स्वच्छंद जीवन के लिए इनके हस्तक्षेप का उन्होंने विरोध किया, जैसे उनके आश्रमों को नष्ट कर देना, उनके यज्ञादि कार्यों में विघ्न डालना, उन्हें आश्रमों से पलायन के लिए विवश कर देना आदि। नियोग से उत्पन्न‍ कौरवों और पांडवों के मध्य की खाई इतनी बढ़ गयी कि दुर्योधन के अक्षम्य कृत्यों का बोझ कुलक्षति के समीप होने के कारण, वंश के वंश बलिवेदी पर नहीं चढ़ें, कौरव सभा में अपने सांख्य‍योग से कृष्ण ने गंभीरतापूर्वक पांडवों को खांडववन का हिस्सा स्वीकार कर इंद्रप्रस्थ बसाने की अपनी दूरंदेशी प्रज्ञा काम में ली और नियोग का द्यूत प्रकट न हो, पाण्डवों को मौन इसे स्वी‍कार करने के लिए सहमत कर लिया। उन्होंने महानायकों की भरी सभा में कहा कि युद्ध को आमंत्रण न दें। युद्ध से जीवन की समस्यायें हल नहीं होती बल्कि बढ़ जाती हैं। मानव जीवन को सुखकर बनाने का एक ही मार्ग है वह है प्रेम, किंतु ‘विनाशाय च दुष्कृताम्’दुर्योधन दुर्दान्त वन्य जीवों से भरे खांडववन की माँग को अपनी विजय समझ, राज्य के दंभ में धृष्टता, दुष्कृत्य करता चला गया। उसने समर में महानायकों के होम के लिए महासमर की तैयारी कर ली। इंद्रप्रस्थ का वैभव उसे आँखों नही भा रहा था। शकुनि की कुटिल चालों और उपकारों में दबे प्राणप्रिय कवचकुण्डलधारी अजेय कर्ण के साहचर्य के बलबूते पर उसने पांडवों को वार्ता के स्थान पर द्यूत के लिए आमंत्रित किया और द्रोपदी के चीर हरण की घटना ने उसके दुष्कृत्‍यों को पराकाष्ठा पर पहुँचा दिया। द्रोपदी के दाँव पर लगने के पश्चात् अनुद्यूत में भी हारने पर वनवास के पश्चात् एक वर्ष का अज्ञातवास भी पांडवों के हिस्से में आया, तब कृष्ण की जनमंगल की भावना को ठेस पहुँची। उनके जननायकत्‍व का चरम देखिये कि उन्होने द्वारिका छोड़ ॠषि घोर अंगिरस के आश्रम में जा कर कहा-‘मैंने आचार्य सांदिपनि से चौदह विद्याओं, चौंसठ कलाओं आदि अनेकों योगों और विद्याओं की शिक्षा दीक्षा ली तथापि कहाँ मेरी निष्ठा,मेरे कर्मों में न्यूनता रह गयी? युधिष्ठिर जैसा धर्मराज, अभिषिक्त, प्रजा के प्रति समर्पित राजा द्यूत में सब कुछ हार कर विभ्रमित हो सकता है। राज्य और सप्त पदी विधि से स्वीकृत पत्नी को द्यूत में दाँव पर लगा सकता है। भीष्म , द्रोण, कृप, विदुर जैसे राजनीतिज्ञ यदि रजस्वला कुलवधु को घसीटते हुए द्यूत सभा में चुप रह कर वंश को कलंकित कर सकते हैं, तो मेरी शिक्षा दीक्षा में कहाँ कमी रह गयी। नियोग की आधारशिला को कलंकित न होने देने के लिए, संस्कृति, परंपरा को बचाने के लिये, यथासंभव हर संभावनाओं का मैंने निर्वाह किया, तब भी वो घटित हो गया, जो टाला जा सकता था। कैसा मन है यह, इतनी साधना, योग के बाद भी इसमें अविचलन--- नहीं गुरुवर, मुझे लगता है, अभी और भी कुछ ज्ञान प्राप्त करना शेष रह गया है। आज लगता है,आज तक जो भी मेरे द्वारा हुआ वह व्यर्थ हो गया। विषाद से मेरा मन खिन्न है। मन की शांति के लिए मुझे शेष योग भी सिखायें क्योंकि इससे ही शायद मैं, मनोयोग से शेष कर्म पूर्ण कर पाऊँगा। उसके बाद प्रयाग का घोर आंगिरस आश्रम कुछ समय के लिए उनका योगक्षेत्र बन गया ओर कृष्ण पूर्णता प्राप्त कर योगी कृष्ण हो गये। उनके मुख का तेज सूर्य के समान दैदीप्यमान रहने लगा। कोई उनसे दृष्टि मिलाने का साहस नहीं कर पाता था। स्वयं बलराम उद्धव, रानी रुक्मिणी, सत्यभामा, जाम्बवती, तात वसुदेव कोई भी नहीं, पर वे सब से उसी निर्मल भाव से मिलते थे सस्मित, जैसे वे वही गोकुल के गोपाल हों। घोर अंगिरस से शिक्षा लेकर लौटे कृष्ण में एक परिवर्तन अवश्य आ गया था। वे पूर्णपुरुष हो गये थे। हमेशा चंचल स्मित बिखेरते रहने वाले कृष्ण गंभीर रहने लगे थे। वे हस्तिनापुर में बढ़ते जा रहे निरंकुश शासन, धृतराष्ट्र की हठधर्मिता, दुर्योधन की उद्दण्डता और पांडवों के साथ कौरवों के अन्याय से बहुत चिंति‍त थे। उन्हें भावि के अनिष्ट को विचारा और मार्ग ढूँढ़ने लगे।
12 वर्ष का बनवास और 1 वर्ष का अज्ञातवास कृष्ण के ही मार्गदर्शन में व्यतीत हुआ और विराट्नगर में व्यतीत हुए अज्ञातवास में पाँच पांडवों ने अपनी कला और चातुर्य से राजा विराट् का मन जीत लिया।  विराट के सेनापति कीचक द्वारा द्रोपदी पर कुदृष्टि डालने के अपराध में अर्जुन द्वारा कीचक का अंत हुआ। जरासंध का अंत भीम द्वारा हुआ। अर्जुन ने अपने पुत्र अभिमन्‍यु के लिए विराट् की पुत्री उत्तरा को पुत्रवधु बनाया और विशाल विराट् सेना व राज्य के सहयोग का वचन लिया। कृष्ण विराट् पुत्र शिखंडी के रहस्य से भविष्य की रूपरेखा बना रहे थे और उधर पुत्र और राजमोह में मदांध कौरवराज धृतराष्ट्र समय व्यतीत होते हुए अपनी कुटिल चाल से द्यूत के दंड की अवधि नियमानुसार समाप्त होने पर पांडवों को बिना यु्द्ध किये इंद्रप्रस्थ लौटाने के लिए तैयार नहीं हुए। युद्ध न हो सधि और शांति प्रस्ताव के लिए कृष्ण ने कौरवों के साथ मंत्रणा के लिए बैठक बुलाई। इस बैठक में शिशुपाल को धृष्टता के कारण एक सौ एकवें अपराध के लिए सुदर्शन का कोप भाजक बनना पड़ा। शिशुपाल के वध और दुर्योधन की धृष्ट‍ता ने अंतत: महासमर निर्णीत कर दिया।
दुर्योधन और शकुनि की कुटिल चालों ने जहाँ पांडवों को द्यूत से हानि पहुँचाई वहीं कृष्ण ने भी अवसर देख कर पलटवार किया। उसने दुर्योधन के प्राणप्रिय सखा कर्ण को निर्बल कर दुर्योधन के भविष्य के जीत के मार्ग में अमिट संधि उत्‍पन्‍न कर दी, जो उसकी पराजय का कारण बना। इंद्र द्वारा कर्ण के कवच कुंडल दान से वह शारीरिक रूप से कृश हो गया। माता कुंती द्वारा पाँच पांडवों के वध न करने के वचन से बाँध कर उन्होंने कर्ण को ममतास्त्र में बाँध लिया। प्रथम ज्येष्ठ पांडव होने का भेद बता कर, उसे मानसिक संत्रास दे कर रही सही कसर भी कृष्ण‍ ने पूरी कर दी।
कर्ण के रहस्य को बता कर भी कृष्ण उसे दुर्योधन से विलग नहीं कर सके। पश्चात् भी कृष्ण जानते थे कि उसके पास कवच कुंडल दान के बदले इंद्र द्वारा प्राप्त वैजयंती शक्ति से वह किसी पांडव को अवश्य वध कर अपना वचन पूरा करेगा। उसकी नित्य दान देने की परम्परा में इंद्र को कवच कुंडल दान देने की अप्रतिम घटना ने दुर्योधन को हिला कर रख दिया। वह बिफरे साँड की भाँति विचलित हो गया। उसने कर्ण तक को भला बुरा कहा और अर्जुन की वीरता के बखान कर बिना कवच कुण्डल के कृश कर्ण को ब्रह्मास्त्र प्राप्त करने के लिए उकसाने लगा। प्रिय मित्र का मन जीतने के लिए उसने वह भी किया। अपने क्षत्रियत्व के बल पर उसने परशुराम से ब्राह्मण बन कर ब्रह्मास्त्र की शिक्षा ले ली, किंतु क्षत्रियत्व का भेद ज्ञात होते ही, कर्ण परशुराम के क्रोध का भाजक बना। वे कर्ण का भेद तो जानते थे, किंतु अधर्मी दुर्योधन के साथ रहने के कारण, वे नहीं चाहते थे कि कर्ण के शौर्य से कोई भी पांडव काल का ग्रास बने। अधर्म के लिए ब्रह्मास्त्र का प्रयोग करने व उपयोग में लेने पर वह ब्रह्मास्त्र धारण करने की विधि विस्मृत कर बैठेगा, उसे शापित कर बैठे। यह उचित था या नहीं, उनसे यह भूल कैसे हो गयी, इसी प्रायश्चित्त में उन्होंने हमेशा के लिए ब्रह्मास्त्र की शिक्षा देना बंद कर दिया और हमेशा के लिए हिमालय चले गये।
कौमार्यावस्था में जन्मे कर्ण से ममता का वास्ता दे कर,कुंती ने पाँच पांडवों का अभय माँग कर कर्ण को मानसिक आघात तो पहुँचाया, किंतु कर्ण भी अर्जुन के वध के अपने वचन पर अडिग रहे और मॉं से बोले माते- 'तुमने मेरा भेद जानते हुए भी, पॉंच पांडवों का ही अभय मॉंगा। क्रूर हास्य के साथ कर्ण ने माता कुंती से कहा- “जा, याचक बन कर आई हो तुम तो, तुम्हें यह कर्ण, पांच पांडवों का अभय देता है। किंतु अर्जुन का वध तो मैं अवश्य करूँगा। मैं जीवित रहा तो मेरे सहित तेरे पाँच पांडव तुझे अवश्य मिल जायेंगे।"
महायुद्ध आरंभ हुआ। युद्ध क्षेत्र में गीता ज्ञान के माध्यम से कर्मदीक्षा दे कर कृष्ण ने अर्जुन  के विषाद को मिटाया और युद्ध के लिए तैयार किया। राजनीति, कूटनीति, छल छद्म से लड़ा जा रहा यह युद्ध धर्मयुद्ध कम महाविनाश ज्यादा सिद्ध हुआ । वंश के वंश नष्ट हो गये। कौरवों के महानायकों ने निरीह अभिमन्यु को घेर कर वध किया। कूटनीति से भीष्म का पतन हुआ। सत्य के संशय में द्रोण का शिरच्छेद हुआ। कर्ण ने वैजयंती से भीमपुत्र घटोत्‍कच का अंत किया। निरस्त्र कर्ण का वध किया अर्जुन ने, भीम ने दु:शासन की छाती फाड़ कर रक्त से द्रोपदी के बालों को धोया और दुर्योधन की जंघा तोड़ वचन पूरा किया। कृष्ण ने कुमारी भूमि शिखर पर कर्ण को मुखाग्नि दी। मृत्युंजय भीष्म ने उत्तरायण में देह त्यागी। अपने पिता की मृत्यु के विषाद में अमर अश्वत्थामा ने रात्रि में पांडव शिविर में घुस कर जघन्य कृत्य कर, कुल को कलंकित किया, मस्तक पर विराजमान मणि गँवाई और अनंतकाल के लिए घने अरण्य‍ में जा कर मुँह छिपाया। कृष्ण के सुदर्शन ने उत्तरा के गर्भ की परिरक्षा की और परीक्षित का जन्म हुआ। परीक्षित के जन्‍म के साथ ही कलियुग का प्रवेश सुनिश्चित हो गया।
धृतराष्ट्र ने शोक जताया किंतु सतीत्व के तेज से गांधारी ने कृष्ण को शापदग्ध किया, जिसे कृष्ण ने सहर्ष स्वीकार किया।
सहस्रों वीरों, महानायकों के खड्गों से गुंजायमान आर्यावर्त शांत हो गया। दिन नीरव, रात्रि अशांत रहने लगी। वर्षों तक कर्णों में महासमर की गूँज सुनाई देती रही। कुरुक्षेत्र की भूमि युगों तक सूखी नहीं। वहाँ दूर-दूर तक कभी उपनिवेश नहीं बसे। बर्बर जातियों ने वहाँ डेरे डाले। कुरुक्षेत्र की भूमि कभी उर्वर नहीं बन सकी।
कृष्ण के जननायकत्व का अंतिम पर्व आरंभ हुआ। श्रांत अशांत,वे बचे हुए यादवों और वीरों के परिवारों के कोपभाजक बने और बोझिल मन ले कर द्वारिका लौटे। वर्षों तक पहले जैसी आस्था नहीं लौटी। वे वृद्ध भी हो चले थे। दूर-दूर से प्रतिदिन अशुभ संदेश आते। चोरी, लूटपाट, आतंक, अपहरण की घटनायें बढ़ने लगी। स्थान-स्थान पर भ्रमण करते हुए कृष्ण ने शक्तिपीठ स्थापित कीं,  युवाओं में नवचेतना जाग्रत की और संगठन बनाये। गिरिवन, रैवतक पर्वत, प्रभास क्षेत्र, पश्चिमी तट आदि स्थानों पर शांतिपीठ, यो‍गकेंद्र बनाये, व्यायाम शालायें खुलवाईं। किंतु धीरे-धीरे काल चक्र घूमा और एक-एक करके द्वारिका के आसपास के उपनिवेश जलमग्‍न होने लगे और एक दिन द्वारिका जलमग्न हो गयी। द्वारिका के जलमग्न-होने के कुछ समय पूर्व ही एक विषम समुद्री चक्रवात की भेंट चढ़ गये बलराम। कृष्ण और अधिक टूट गये।
एक नये युग का आरंभ हो चुका था। परीक्षित को राज्य सौंप कर सभी पांडव बद्रीनाथ चल पडे़। राह में लुटेरों से रक्षा करने हेतु, अर्जुन ने गांडीव उठाया, तो वह नहीं उठा। भीम में भय के लक्षण ने युधिष्ठिर को आश्वस्त कर दिया कि महाजननायक का निर्वाण समीप है। बद्रीधाम पहुँच कर वे समाचार भी उन्हें मिल गये। स्वर्गारोहिणी में पांडवों ने अंतिम श्वास ली और एक युग का पटाक्षेप हो गया।
प्रभास क्षेत्र के अरण्य‍ में अश्‍वत्‍थ के नीचे आखेटक के आंजलिक बाण से कृष्ण सुखधाम पधारे। एक महाजननायक का प्रयाण युगों तक मार्गदर्शन देता रहा और आज भी दे रहा है।
जब-जब भी किसी ने किसी को जन कल्याण कर्मों से प्रभावित होते देखा,वह उसे अवतारित ही लगा है। इसका उदाहरण युगों से चला आ रहा है। आतताइयों के निरंकुश क्रूर शासन के विरोध में जन कल्याण के लिए,जिसने भी बीड़ा उठाया, वह धीरे-धीरे जन मंगल, जन कल्याण के लिए समर्पित होता गया, उसका अस्तित्व एक अवतार की भाँति पुष्ट होता गया। परशुराम ने जन कल्याण के लिए जीवनपर्यन्त अरण्य और आश्रम में ही जीवन व्यतीत किया। विदुषी राजनयी कैकेयी ने जन कल्याण के लिए पुत्र मोह भ्रमित दशरथ के चक्रवर्ती स्वरूप की रक्षा के लिए राम को बनवास भेज कर अपने वचन का वास्ता दे कर जनकल्याण के लिए अभिप्रेरित किया और गृहस्थाश्रम को भी कलंकित न होने देने के लिए, सीता को भी संग भेजा तथा लक्ष्मण को सहायक के रूप में भेज कर राम को समर्थ बनाया।  बुद्ध ने शांति का पाठ पढ़ाया। रामकृष्ण परमहंस, विवेकानंद, दयानंद सरस्‍वती जैसे संतों ने मानवता का पाठ पढ़ाया। भारत निर्माण में गाँधी का महात्मा अस्तित्व, दलितों के लिए अम्बेडकर का मसीहा स्वरूप,युवाओं के लिए जयप्रकाश नारायण का लोकनायक व्यक्तित्व, राजनयिकों में ज्योतिबसु आदि अनेकों जननायक जन जन के प्रिय के रूप में कर्मक्षेत्र में जीवन भर लगे रहे हैं और भविष्य में भी ऐसे व्यक्तित्व आयेंगे, जन कल्याण के लिए कार्य करेंगे और संस्कृति की अस्मिता को बचाये रख्नने के लिए हरसंभव जनमंगल कर्म करेंगे।

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