ना उड़ते बन के यायावर
नहीं होते अपनों से दूर।
गगन कुसुम की चाहत इतनी
दूर गगन भी छाँव से लगे।
राह भले ही आग धधकती।
प्यासे मरुधर गाँव से लगे।
धता बताते पलकों के दर
चंचल मन के पाँव से लगे।
चंदा से अभिलाषायें ले
और जिन्दगी दाँव सी लगे।
मन के कई न चेहरे होते
कहीं ढूँढ़ते चारागर क्यों
नहीं रहते अपनों से दूर।
दीवानापन खोता आया
चैन दिहाड़ी जैसा जीवनं।
धूल धमासा रोड़ी गिट्टी
खाली हाँड़ी जैसा जीवन।
साँस साँस की गति ताल में
फिर भी ताड़ी जैसा जीवन।
नशा भरे अपने पाँवों में
मन मारों का जैसा जीवन।
मन के कहीं अँधेरे होते
जाके छिपते तब ज्यादातर
कहीं रहते अपनों से दूर।
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