8 अगस्त 2016

सुरेश चंद्र सर्वहारा की नयी पुस्‍तक 'ढलती हुई धूप' पर 'आकुल' की समीक्षा

जीने की लालसा जगाती ढलती हुई धूप

जीने को मन करता ही है। मौन संदेश मिलते हैं, आँखे ढूँढती रहती है, छाँह, संतोष, आश्रय, सुरक्षा और बहाना, सब दिल को ढाँढ़स देते रहते हैं, पर परिस्थितियाँ कैसी भी हों, जीने को मन करता ही है।

‘ढलती हुई धूप’ आने वाली नई स्‍वर्णिम भोर की आशा सँजोती सर्वहाराजी का नया कविता संग्रह है, जो अश्‍वत्‍थ की तरह आधिभौतिक में अध्‍यात्‍म को जीने और दशकुलवृक्षों की तरह हर ऋतु में सदाबहार रहने की शिक्षा देता हुआ। विभिन्‍न प्रकार की जिजीविषा को जीते हुए उनके जीवन के उतार-चढ़ाव को जीती हुई 49 कवितायें कहीं आधुनिक कविता का बोध कराती हैं, कहीं नवगीत की झलक भी दे जाती हैं। नैराश्‍य का मूल यदि है, तो भी अश्‍वत्‍थ जीवनसंचार की पुरातन परम्‍परा को जीता हुआ चेतन आनंद की अनुभूति भी देता है कवि को और उस पल्‍लवित वृक्ष को देखने की जिगीषा भी कवि में जीने की लालसा जगाती है उनकी पुस्‍तक ‘ढलती हुई धूप’। जीवन तो बस चलते रहने का नाम है। लेखक अपने नैराश्‍य को कितना भी लेखनी से उकेर लें जीने को मन करता ही है। यही जीने की लालसा सबको नया जीवन संचार देती है। सर्वहाराजी ने लिखा है-

वह सूखा पेड़
भीगता रहा बारिश में......
ऐसी एक लंबी
अँधेरी रात के बाद
जब जागा वह पेड़
तो देखा उसने
कटी शाख पर
उग आईं कोंपल को
अचरज से भर
चहचहाया एक पक्षी भी
आ गया वहाँ
कहीं दूर से और
लगा सोचने
उस सूखे पेड़ पर
फि‍र से बनाने को घर। (सूखा पेड़, पृ. 43-44)

लेखक स्‍वयं जीता है कविता। कौन है पेड़, कौन है पक्षी। सूखे वृक्ष के रुप में स्‍वयं को बारिश के थपेड़ों में संघर्ष करते हुए थक कर सोने पर जब नींद खुलती है तो कविमन पंछी बावरा उस सूखे वृक्ष पर बैठ कर उन अंकुरित आशापालव पर जीवन की लालसा को देखता है, तो जीने को मन करता ही है।  नई सुबह फि‍र नये उल्‍लास के साथ जीने को आग्रह करती है, अरे... ढलती सुबह देखो... कैसे सुनहले गोटे पहन कर आई है... पक्षी चहचहा रहे हैं.....पलाश...हारसिंगार के फूलों की चाँदनी बिखर रही है....नई उमंगों के साथ लोग दौड़ रहे हैं... किसी श्रमिक को खुल कर हँसते हुए देख कर लेखक मन फि‍र नैराश्‍य को भूल लेखनी चलाता है-
पता भी नहीं चला 
छू कर बदन मेरा
कब बह गयी
वासन्‍ती हवा....
अचरज मुझे कि
कुछ नहीं हुआ उसे
पाप ताप
अभिशाप मेरे
सब सह गई
वासन्‍ती हवा। (वासन्‍ती हवा, पृ. 51-52)

कवि मन है न, फूल सा कोमल, कागज सा जिद्दी, ममता सा भावुक, स्‍याही सा गहरा, शैवाल सा चिकना। ना, ना, भी करे तो भी चाहना तो है उसके कवि मन में, पर कहेगा कि उसे कोई चाह नहीं। कह गई लेखक की कलम ऐसे ही भाव। देखें-

फूल नहीं चाहते
कोई आए करने
उनकी भूरि-भूरि
प्रशंसा या कोसने प्रारब्‍ध...
यश-प्रार्थी नहीं हैं फूल
नहीं चाहते वे
खिलने का कोई पुरस्‍कार
खिलकर चार दिन
दे जाते हैं फूल
रंग रूप रस गंध
सब कुछ दुनिया को
उपहार। (फूल खिलते हैं, पृ. 73-75)
चाहना नहीं है तो कवि के यह उद्गार क्‍यों-
कुछ देर ही सही
तैरती रहती है
इनकी मधुर मधुर स्‍मृति
समय की
लहरों के आर-पार।
सही तो कहा है चाहना तो जरूरी भी है, ठहरी हुई नदी का जल भी पीने योग्‍य नहीं रह पाता, नदी भी कहाँ चाहती है कि वह किसी सुंदरवन में ठहर जाए, वह जानती है कि उसका संतोष तो किसी प्‍यासे की पिपासा का शमन है। मेघ भी कहाँ चाहते हैं कि वे नंदनवन में ही बरसें, प्‍यासी धरती की चाहना को चंचल हवा उसे स्‍वच्‍छंद उड़ने को ढकेलती रहती है। जीने को मन करता ही है। अगर नैराश्‍य ने घेरा है उन्‍हें, तो क्‍यों लिखती है लेखनी उनकी-
समझते हैं शब्‍द ये
व्‍यर्थता एकाकीपन की
इसलिए बैठकर साथ।
कह रहे हैं बात
अपने अन्‍तर्मन की।
दे रहे हैं अर्थ
रह कर आत्‍मनिर्भर
नए-नए भाव को बिखेरते
कभी हँसी तो सहलाते हैं
कभी घाव को।
खिलते फूलों से
शब्‍द ये भर रहे हैं
कविता की माला में
निज अस्तित्‍व की गंध (नि:शब्‍द सम्‍बंध पृ. 84-85)
नैराश्‍य में भी जीने की चाहना। समय का सदुपयोग कवि के लिए लेखनी से मित्रता से बढ़ कर क्‍या होगा। अपनी हर बात को निराशा में डूबने से पहले ठेलती है, रोकती है, नहीं लिखने देती नैराश्‍य की बातें, और थक हार कर जिद्दी अंतर्मन के आगे झुकती भी है, तो इस शर्त पर कि जीने का कोई संदेश देना होगा-
चाह आशाएँ
मनुज की
क्षण-क्षण यहाँ दम तोड़ती
स्‍वप्‍न की चिड़ि‍या मगर कब
नभ में उड़ना छोड़ती।
वर्ष नूतन या पुरातन
सब समय के अंग हैं,
स्‍वीकार लें सबको 
सहज हम   
आँसू हँसी तो संग हैं। (नव वर्ष पृ.102-103)

मुक्‍त गगन में उड़ने की
आशा दो खग में
नव गति को
संचालित कर दो
हर डगमग पग में।
आदि काल से शुभ्र भाव तुम
रहीं जगाती
उद्बोधन के गान रही
वेदों में गाती।
विश्‍व प्रेम के फुल गूँथ कर
मन के स्रग में
संस्‍कारित कर दो
मानव को
फिर से जग में। (उषा सुंदरी- पृ.120)
सर्वहाराजी ने बहुत ही संयम से अपने इस संग्रह को निखारा है। हर कविता में नैराश्‍य है पर कहीं न कहीं आशा का जीवनसंचार उसमें है, क्‍या यह चाहना नहीं रही होगी उन्‍हें कि भले ही नैराश्‍य का संकलन है तो जब वह पुस्‍तक बन कर आए तो वह उसे पढ़ेंगे, बार...बार.. न जाने कितनी बार....यह क्‍या है... यही है जीने की लालसा.... जीवन का मर्म.... सच है न, जीने को मन करता ही है....।

सरल शब्‍दों में उकेरी हैं सर्वहाराजी ने ये कवितायें। एक शब्‍द शायद कोई नहीं समझ पाये। पुस्‍तक के अंतिम पृष्‍ठ पर, वह है ‘स्रग’। यह शब्‍द कविता के तुकांत के लिए नहीं लिखा है उन्‍होंने, शब्द अप्रचलित अवश्‍य है पर, कवि के लिए सामान्‍य है। ‘गजरे’ के अर्थ में दिया है यह शब्‍द लेखक ने कविता में, जो इस कविता में ही मात्र कुछ टंकण की त्रुटियों की तरह पाठक इसे टंकण त्रुटि समझें मगर यह शब्‍द लेखक की गहन समझ और गंभीरता के साथ-साथ उनके अनुभव को बताता है।
आज से 49 वर्ष पूर्व कदाचित् उन्‍होने हर वर्ष अपनी उम्र को ढलते हुए देखा और हिम्‍मत जुटाई 49 वर्ष अपने भोगे हुए यथार्थ के कड्वे सच को कविताओं के रूप में ढाल कर सुधीजनो के अंत:करण को झकरझोरने की। झूठ जीना तो आसान है, सच को कहना ही नहीं एक प्रामाणिक साहित्‍य के रूप में साहित्‍यजगत् को अर्पण करना। पिछले 49 वर्षों को 49 कविताओं में समेट कर उन्‍होंने नागफनी के फूलों की भेंट दी है साहित्‍य जगत को। इस सराहनीय रचनाधर्मिता के लिए सर्वहाराजी को साधुवाद।

सर्वहारा जी का यह संग्रह अन्‍य कवियों की कपोल कल्‍पनाओं से भरे दृश्‍यों को उकेरती पुस्‍तकों के मध्‍य मरु में बसाये नखलिस्‍तान (मरु उद्यान) की तरह हैं। अपने अस्तित्‍व को जैसे हथेली पर रख कर मरु की तपती रेत में चलने का हठाग्रह रखा है उन्‍होंने, लेकिन ऐसे निशान छोड़े हैं कि हो न हो शीघ्र ही जीवन का संदेश देती रचनाओं का और एक गुलदस्‍ता फि‍र पाठकों के समक्ष होगा।

बोधि प्रकाशन के सजाये सुंदर कलेवर के साथ यह पुस्‍तक स्‍वान्‍त: सुखाय रचना संसार के मुनि सर्वहाराजी को एक आत्‍मसंतोष प्रदान करेगी और पाठकों को पढ़ने का आग्रह करेगी कि कैसे कवि स्‍वयं के बारे निष्‍कपट, सत्‍य और केवल सत्‍य को उजागर कर सकता है....।

शुभेच्‍छु।

डा0 गोपाल कृष्‍ण भट्ट ‘आकुल’

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