पर्यावरण प्रकृति का एक सुदर्शन कवच है, जो पृथ्वी से आकाश तक सुंदर वातावरण सृजित कर प्रकृति को अनुपम सौंदर्य प्रदान करता है और पृथ्वी पर जीवन को हर सम्भव जीने का अवसर प्रदान करता है। इस कवच पर समय-समय पर ॠतुओं व प्रदूषण के अनगिनत आक्रमण से निस्तेज होते हुए भी वह सूर्य के प्रभामंडल से असीम ऊर्जा पा कर पुन: पर्यावरण को संरक्षित करने में समर्थ होता है।
पर्यावरण को आज मनुष्य से सबसे ज्यादा खतरा है। भौतिक सुख सुविधाओं की अंधी दौड़ में मनुष्य ने इस सुदर्शन कवच को इतना कृश कर दिया है कि पृथ्वी का जीवन खतरे में पड़ गया है। पौराणिक परिदृश्य पर भी दृष्टि डालें, तो हम पायेंगे कि हर युग में मनुष्य ने अपनी त्रुटियों से प्रकृति को बहुत कष्ट पहुँचाया है। भगवान् परशुराम-शिव युद्ध के भीषणतम चरम पर परशुराम द्वारा ब्रह्मास्त्र उठाने के असंयम ने राजस्थान के मरुस्थल को जन्म दिया और अंत:सलिला सरस्वती को लुप्त किया। इस भीषण घटना ने उस युग के प्रलय को सृजित किया था। प्रकृति के अनुपम सौंदर्य को संरक्षित करने के अतुलनीय सुदर्शन प्रयासों ने पुन: जीवन का संचार किया। त्रेता युग के रामायण काल में वरुणदेव द्वारा सागर से लंका का मार्ग प्रशस्त न करने के कारण उन्हें श्रीराम के कोप का भाजक बनना पड़ा और श्रीराम द्वारा ब्रह्मास्त्र धारण करने के कारण कच्छ के मरुस्थल का आविर्भाव हुआ। यह सब पर्यावरण के साथ मनुष्य के कृत्यों का एक पौराणिक पक्ष था।
आज विज्ञान और प्रोद्योगिकी की प्रोन्नति के साथ मनुष्य द्वारा पर्यावरण की अनदेखी पुन: एक भावी आशंका को जन्म दे रही है। इसके दिनों दिन दिखाई देते कुप्रभावों एवं दुष्परिणामों से भी यदि मनुष्य नहीं चेते, तो कुछ भी प्राकृतिक घटित हो जाने पर, हमें चिंतित होने की आवश्यकता नहीं है। विज्ञान के संज्ञान से भी यदि प्राणी, उसके समस्त घटकों का अध्ययन किये बिना, अपने प्राप्त होते जाने वाले सापेक्ष परिणामों को सफलता मानता चला जाये और प्रकृति के संतुलन को कायम नहीं रख पाने के परिणामों को जाने बिना, यदि कोई निर्णय लेता चला जाये, तो दुष्परिणामों का मनुष्य को ही सामना करना है।
पर्यावरण में व्याप्त अनेकों प्रकार के प्रदूषण प्रकृति को प्रभावित करते हैं। प्रदूषण का अर्थ है वातावरण में संदुश्को (contiminents) का घुलना, जिससे जीव-जंतुओं में बेचैनी उत्पन्न होती है और उनके विस्तृत फैलाव से विकृतियाँ उत्पन्न होती हैं। उनके स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव पड़ते हैं और चराचर जगत् को अपूरणीय क्षति का सामना करना पड़ता है। चेर्नोबिल की रासायनिक रिसाव की दुर्घटना, द्वितीय विश्वयुद्ध की विभीषिका, हिरोशिमा-नागासाकी का विकराल और विकृत अंत, भोपाल गैस त्रासदी, इराक युद्ध से सैंकड़ों बैरल तेल के समुद्र में बहने से जलजीवों की दुर्गति, सुनामी से हुई तबाही, जयपुर का इंडियन ऑयल डिपो अगिनकांड, भीषण गर्मी आदि का फैलता साया, यह सब जीवन के दायें बायें फैलते जा रहे अपर्यावरणीय दानव के भयावह रूप हैं, जो मानव जीवन को अपने संजाल में जकड़ते हुए भविष्य के अंधकूप में धकेलते जा रहे, विवशता के वे सोपान हैं, जो प्राय: दिखाई देते रहेंगे और हम विवश मानव जीवन के मूल्यों को सहेजने में अपने आपको विवश पाते जायेंगे। कुछ सफलताओं के लिए हम अनगिनत जीवन अर्पित करते आये हैं और भविष्य में भी करते रहेंगे।
वायु प्रदूषण, मृदा संदूषण, जल प्रदूषण आदि अनेकों प्रदूषणों से त्रसित हमारा जन जीवन प्रकृति से एक ऐसे छद्म युद्ध की आधारशिला रच रहा है, जिसके परिणाम जन जीवन के समक्ष लाने के लिए प्रबुद्ध वर्ग और वैज्ञानिक घबरा रहे हैं, क्योंकि सफलता के स्वार्थ में अंधे हो कर उनके हाथ प्रकृति से छेड़-छाड़ करने की बार-बार कोशिश करते रहे हैं और कर रहे हैं, जो ब्रह्मास्त्र को छेड़ने के सदृश है। हम अपने वर्तमान जीवन के आस-पास के वातावरण के लिए सामान्य मानव संभव कार्यों के लिए ही अभियन छेड़ें, वही उचित है, क्योंकि इतना सहयोग प्रकृति को प्रसन्न करने में काफी है। आइये, केवल ग्रीन हाउस गैसों के बारे में ही संक्षेप में जानें और सोचें कि पर्यावरण की सुरक्षा के लिए वृक्षारोपण कितना महत्वूर्ण है?
ग्रीन हाउस गैसें ग्रह के वातावरण और जलवायु में परिवर्तन व अंतत: भूमंडलीय ऊष्मीकरण के लिए उत्तरदायी होती है। इनमें सबसे ज्यादा उत्सर्जन कार्बन डाई ऑक्साइड, नाइट्रस ऑक्साइड, मीथेन, क्लोरो-फ्लोरो कार्बन, वाष्प, ओजोन आदि करती हैं। कार्बन डाई ऑक्साइड का उत्सर्जन लगभग 50 प्रतिशत बढ़ने को अग्रसर है। इन गैसों का उत्सर्जन आम प्रयोग के उपकरणों वातानुकूलक, फ्रिज, कम्यूटर, स्कूटर, कार आदि से है। कार्बन डाई ऑक्साइड का सबसे बड़ा स्रोत पेट्रोलियम ईंधन और परम्परागत चूल्हे हैं। पशुपालन से मीथेन गैस का उर्त्सजन होता है। कार्बन डाई ऑक्साइड गैस तापमान बढ़ाती है। कोयला बिजलीघर भी ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन का प्रमुख स्रोत हैं। हालाँकि क्लोरो-फ्लोरो कार्बन का प्रयोग भारत में बंद हो चुका है, फिर भी उसके स्थान पर प्रयोग में ली जा रही सबसे हानिकारक ग्रीन हाउस गैस हाइड्रो क्लोरो-फ्लोरो कार्बन, कार्बन डाई ऑक्साइड गैस से एक हजार गुना ज्यादा हानिकारक है। पूरे विश्व के औसत तापमान में लगातार वृद्धि दर्ज की गयी है। ऐसा माना जा रहा है कि मानव द्वारा उत्पादित गैसों के कारण ऐसा हो रहा है। हाल ही में नीदरलेण्ड की पर्यावरण सम्बंधी रिपोर्ट में चीन और भारत की ऊँची विकास दर को कार्बन उत्सर्जन में बढ़ोतरी के लिए दोषी ठहराया गया है। रिपोर्ट में कहा गया है कि इसी वजह से अमीर देशों ने उत्सर्जन में जो कटौती की है, वो निष्प्रभावी हो गयी है। कार्बन डाई ऑक्साइड, जो प्रकाश संश्लेषण के लिए महत्वपूर्ण है, कई बार प्रदूषण का कारण मानी जाती है, क्योंकि वातावरण में इन गैसों का बढ़ा हुआ स्तर पृथ्वी की जलवायु को प्रभावित करता है। हाल ही के अध्ययनों से वातावरण में कार्बन डाई ऑक्साइड के स्तर के बढ़ने के बारे में पता चला है, जिसके कारण समुद्री जल की अम्लता में मामूली सी बढ़ोतरी हुई है। यह एक जटिल स्थिति है और इसका संभावित प्रभाव समुद्री परितंत्र पर पड़ेगा। पृथ्वी पर उत्सर्जित 40 प्रतिशत कार्बन डाई ऑक्साइड गैस पेड़ पौधों द्वारा सोख ली जाती है।
इसलिए स्पष्ट है कि हमें पेड़ पौधों के विकास एवं वृक्षारोपण अभियान की गति को तेज करना होगा। हमारे आस-पास, जीवन- यापन के क्षेत्रों में पेट्रोलियम पदार्थों से चालित साधन संसाधनों की बहुतायत की तुलना में वृक्षारोपण बहुत कम है, जिसे बढ़ाना होगा। इसके लिए मानव शृंखलाएँ बनायी जानी चाहिए और आने वाले एक दशक में इसके चमत्कारिक परिवर्तन देखे जा सकें, ऐसी योजनायें क्रियान्वित की जानी चाहिए। यानि, मूल रूप से हमें पर्यावरण की संरक्षा करनी होगी और पर्यावरण प्रदूषण रोकना होगा। इसके लिए जन सामान्य से सर्वाधिक वृक्षारोपण सहयोग और ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन आधारित साधन संसाधनों के कम से कम प्रयोग करने के बारे में समझा कर किया जा सकता है, जिसके लिए नुक्कड़ नाटक, समाचार पत्रों, रोचक दूरदर्शन कार्यक्रमों के बीच-बीच में विज्ञापनों आदि के माध्यम से प्रचार-प्रसार किया जाना चाहिए।
पर्यावरणीय अचेतनता का एक उदाहरण है राजस्थान के पिछले 30 सालों से विशाल परिसर में चल रहा इंजीनियरिंग कॉलेज, कोटा, जो आज राजस्थान सरकार की स्टेट यूनिवर्सिटी “राजस्थान तकनीकी विश्वविद्यालय, कोटा” के रूप में 2006 से संचालित है, किंतु आज तक प्रशासन और सरकार की उदासीनता से यह परिसर पर्यावरण प्रदूषण की त्रासदी झेल रहा है। यह परिसर 1982-83 से तत्कालीन इंजीनियरिंग कॉलेज प्रशासन के अधीन आया। तब से आज तक परिसर को हरा भरा करने के प्रयासों की यदि समीक्षा की जाये, तो परिणाम शून्य ही रहा है। विश्वविद्यालय के गठन के बाद विगत 4 वर्षों में भी इस दिशा में अभी तक कुछ नहीं किया गया। तकनीकी विश्वविद्यालय के नये भवन निर्माण के साथ-साथ यदि वृक्षारोपण को भी योजना में शामिल किया जाता, तो आज यह भवन वृक्षों से आच्छादित होने के भविष्य के सुनहरे स्वप्न देख रहा होता। परिसर चट्टानों से भरा हुआ है, सत्य है, किंतु यह मान कर तो अनदेखी नहीं की जा सकती है। ऐसा संस्थान जहाँ सबसे ज्यादा शोधकर्ता (पीएच-डी-धारक) शैक्षणिक स्टॉफ हो, वहाँ परिसर को हरा-भरा करने की ओर गम्भीरतापूर्वक प्रयास न हों, क्या यह प्रशासनिक और तकनीकी संस्थान के संदर्भ में एक प्रश्न चिह्न नहीं लगाता? चैलेंज और साहस से क्या नहीं किया जा सकता? इसके लिए आवश्यक है, एक बिन्दु कार्यक्रम। 30 वर्ष की लम्बी अवधि में इस परिसर के लिए पर्यावरणीय संरक्षण के प्रयासों के लिए सरकार को कितने प्रस्ताव भेजे गये, यह यदि प्रशासनिक अधिकारियों से पूछा जाये, तो कदाचित् हम उन्हें मौन ही पायेंगे। सरकार सैंकड़ों योजनायें बनाती है, सहायता देती है, अनुदान देती है। हर असफल प्रयासों के लिए सरकार को दोष देना निरर्थक है। हमें स्वयं से प्रश्न करना होगा- क्या हम अब भी हाथ पर हाथ धरे बैठे रहेंगे?
विश्वविद्यालय को सबसे बड़ा खतरा है ग्रीन हाउस उत्सर्जक एक प्रमुख संयंत्र थर्मल पॉवर स्टेशन से, जो संस्थान के पृष्ठ भाग में चम्बल नदी के सामने वाले किनारे पर स्थित है, जहाँ टनों कोयला पड़ा हुआ है। इस संयंत्र के कारण चम्बल का पानी हमेशा गर्म रहने लगा है और उसमें जल जीव या तो कम हो रहे है अथवा उनका पलायन निरंतर जारी है। चम्बल के किनारे-किनारे विश्वविद्यालय परिसर पट्टी पर गहन वृक्षारोपण करने की अत्यन्त आवश्यता है। वहाँ धीरे-धीरे कम होते जा रहे हरे-भरे वृक्ष भी चिन्ता का विषय है। उन्हें विकसित करना, अधिक वृक्ष लगाना व उन्हें संरक्षित करने की बहुत आवश्यकता है।
विश्वविद्यालय परिसर में जहाँ घना वृक्षाच्छादित क्षेत्र विकसित किया जा सकता है वे स्थल हैं- प्रशासनिक भवन व गेस्ट हाउस के सम्मुख अल्प वृक्षाच्छादित क्षेत्र, ट्रीटमेंट प्लांट, स्टॉफ कॉलोनी परिक्षेत्र, छात्रावास, प्रवेश द्वार से अंतिम एकेडमिक ब्लॉक तक के मार्ग के दोनों ओर, विश्वविद्यालय के नये भवन के चारों ओर का सड़क मार्ग। जिम के सामने खेल मैदान के चारों ओर एवं लाइब्रेरी के सामने सिल्वर जुबली मंच एवं अगोरा के चारों ओर विशाल यूक्लिप्टिस वृक्षों से उसे आच्छादित कर, इसे भविष्य के लिए एक विरासत के रूप में विकसित किया जा सकता है।
वर्षों से निष्क्रिय पड़े ट्रीटमेंट प्लांट को वृक्षारोपण के लिए उपयोगी बनाया जा सकता है। इस प्लांट से नियमित वृक्षों को जलापूर्ति पहले भी दी जाती थी। पूरे परिसर में यथा संभव जल संचय के लिए 2-3 एनीकट्स और विकसित किये जा सकते हैं। कम चट्टानों वाले क्षेत्रों की तलाश कर दो तीन बोर वेल खोदे जा कर नियमित जलापूर्ति से पूरे परिसर को हरा भरा रखने के लिए जल प्रबंधन किया जा सकता है। परिसर में भावी भवन निर्माण के समय रेन वाटर हार्वेस्टिंग के लिए ध्यान रखा जाना चाहिए। नवनिर्मित विश्वविद्यालय भवन के सामने, उसके वेबसाइट पर प्रदर्शित चित्र के अनुरूप इसे विकसित करने के पिछले चार वर्षों के शिथिलनीय प्रयासों में भी गति लाया जाना अत्यावश्यक है। राजस्थान में सर्वाधिक भूक्षेत्र वाले शैक्षणिक सांस्थानिक परिसर का संभ्रम पाले हम यदि गर्व ही करते रहें और हाथ पर हाथ धरे बैठें रहें, तो यह प्रकृति के साथ खिलवाड़ और पर्यावरण का परिहास होगा।
यहाँ अनेकों अधिशासी अभियंता स्तर के सम्पदा अधिकारी, प्रशासनिक अधिकारी, प्राचार्य, कुलपति आये किन्तु पर्यावरण चेतना का बिगुल किसी ने नहीं बजाया। हमारे यहाँ समृद्ध तकनीकी शिक्षक वर्ग, जुझारू कर्मचारियों, तकनीशियनों, कार्मिकों और पर्यावरण प्रेमी छात्रों का समूह है, बस कमी है तो योजना की और योजना की क्रियान्विति की।
जब रेगिस्तान में हरित क्रांति लाई जा सकती है, पहाड़ों पर झूम खेती हो सकती है, तो चट्टानों पर हरियाली क्यों नहीं छा सकती है? काश ऐसा हो कि विश्वविद्यालय पर्यावरण क्रांति का संदेश दुनिया को दे, चट्टनों पर झूमते लहलहाते वृक्षों के वृन्दावन के लिए पहचाना जाये। यहाँ पर्यावरण के लिए शोध केन्द्र खुले और शोधार्थी पर्यावरणीय मानक स्थापित करने के लिए शोध करने आयें।
यह पर्यावरणीय चेतना का अभाव ही है कि शहर में सफाई व्यवस्था चरमराई हुई है। सड़कें और नालियाँ कचरे से अटी पड़ी रहती हैं, जिसमें प्लास्टिक की थैलियों का कचरा सबसे ज्यादा होता है। चम्बल के वरदान से फलीभूत कोटा शिक्षा की दृष्टि से समृद्ध होते हुए भी उच्च तापमान में जीने को विवश है। चट्टानी परतों के बाहुल्य, पाषाणीय उत्खनन (कोटा स्टोन) के लिए प्रख्यात इस क्षेत्र को वृक्षारोपण की अत्यंत आवश्यकता हैं। उद्योग नगरी, शिक्षा नगरी के साथ-साथ अब बहुमंजिली इमारतों के लिए पहचाना जाने लगा चुम्बकीय शहर कोटा पर्यावरण के लिए कितना संवेदनशील है, कितना सजग है, यह बताने के लिए यहाँ के प्रशासकों, महापौर, विधायकों, सांसदों, मंत्रियों, उद्योगपतियों, समाज सेवियों, प्रबुद्ध नागरिकों और हमें कुछ तो कर गुजरना होगा ही।
वर्ष 2010 में 50 डिग्री सेल्सियस तापमान को छूने वाला कोटा शहर पर्यावरणीय अचेतन पग लिए कितना और झुलसेगा यह भावी पीढ़ी निर्धारित करेगी। हमें पीछे मुड़ कर नहीं देखना है। हमें असंख्य पेड़ो के लिए प्रकृति का आह्वान करना है। आइये, जगह-जगह मानव शृंखला बनायें, इलाकों को हरा-भरा करने के लिए इलाकों को, उद्यानों को दत्तक लें, शहर को स्वच्छ बनाने का बीड़ा उठायें, वृक्षारोपण के लिए दृढ़ संकल्प, लें और “वसुधैव कुटुम्बकम्” की अवधारणा को सच करने के लिए एक यज्ञ आरंभ करें-
वृक्ष ही वृक्ष लगायें। पर्यावरण अलख जगायें।।
प्रदूषण मुक्त करायें। पृथ्वी को स्वर्ग बनायें।।
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