छंद-
विष्णुपद
विधान-
16, 10 अंत गुरु वर्ण से
पदांत-
चूल्हे की रोटी
समांत-
आती
याद
गाँव की अब भी आती, चूल्हे की रोटी.
माँ घर-भर
को साथ खिलाती, चूल्हे की रोटी.
दे
फटकारें राख झाड़ती, घी चुपड़े थोड़ा,
टुकड़े
कर सबको दे जाती, चूल्हे की रोटी.
सी-सी
करते आँख जोहती, खाते साग निरा,
खुशबू
सौंधी भूख बढ़ाती, चूल्हे की रोटी.
गीली
सूखी लकड़ी से जब, सुलगाती चूल्हा,
धूएँ
में लिपटी भी भाती, चूल्हे की रोटी.
चौका-
सानी करती लाती, कूएँ से पानी,
दुहती
दूध ससमय बनाती , चूल्हे की रोटी.
रोज
पोतती मिट्टी से माँ, चूल्हा नित पकता,
जीवन अग्निपथ है बताती, चूल्हे की रोटी.
भूली
बिसरी माँ की यादें, अब भी जेहन में,
अब
भी भूले नहीं भुलाती, चूल्हे की रोटी.
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