30 नवंबर 2016

कुछ कर गुजर जाइये (चार मुक्‍तक)

1
बैठने से बचिए, कुछ भी कर गुजर जाइये.
सोचना क्‍या चलिए कुछ भी कर गुजर जाइये.
कल की चिन्‍ता छोडि़ये, आज सँवार लें 'आकुल',
अब ठानिए,उठिए कुछ भी कर गुजर जाइये.

2
कितने हैं स्‍वच्‍छंद ये पंखी, दूर अम्‍बर तक भरें उड़ान.
कितनी हैं स्‍वच्‍छंद हवाएँँ, देेश-देशान्‍तर करें प्रयाण.
कितना है मन भी स्‍वच्‍छंद यह', प्रकृति संग भागा करता है,
कितनी है स्‍वच्‍छंद प्रकृृति यह, पहनती हर रुत का परिधान.

3
समय ने हौसले दिये हैं, बहुत कुछ कर जाना है.
पढ़ना भी है, इक पल भी खाली नहीं गँवाना है.
भाग्‍य है कि बहाने भी नहीं करने देता 'आकुल',
सोच लिया है मुझे हर हाल में मंजिल पाना है.

4
भूकम्‍प, आपदाओं से सबका दिल दहल जाता है.
अकर्मण्‍यता से अकसर मौका हाथ से निकल जाता है.
हवा के इक झौंके में ढह' जाते हैं ताश के महल 'आकुल',
जो कुछ कर गुजरता है, समय उनका भाग्‍य बदल जाता है.

28 नवंबर 2016

जीवन की शाम

पदपादाकुलक चौपाई (राधेश्यामी)
32 मात्रा पंक्ति रचित मुक्‍तक
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जब से जीवन की शाम हुई, मैं समय नहीं बिसराता हूँ.
तड़के उठ जाने से लेकर, सोने तक कलम चलाता हूँ.

हर काम जरूरी जो भी हैं, निपटाता हूँ घर बाहर के,
धोना खाना न्‍हाना सब कुछ, दिनचर्या से कर पाता हूँ.

घर में हम ईन मीन दो हैं, कर लेते हैं जिससे जो हो,
जैसे ही आयें भाव कहीं, झट उन पर कलम चलाता हूँ.

बस इसीलिए मैं रोजाना, लिख पाता हूँ कविता,मुक्‍तक,
है मुक्‍तक-लोक बना साथी,जिसके सँग मन बहलाता हूँ.

कहते हैं जहाँ नहीं पहुँचे, रवि बैठा पाता हूँ कवि को.
बस इसी प्रेरणा से ‘आकुल’, मैं लिख कर ऊर्जा पाता हूँ.

26 नवंबर 2016

जीवन नैया



(गीतिका)


मेरी जीवन नैया भी अब डग-मग बहती रहती है.
श्‍वास लहर लहरों सेे भी अब लगभग डरती रहती है.

जब जब आए ज्‍वार किनारे पर सहमी सी डरी हुई,
तंग थपेड़ों को हरदम अब डग-डग सहती रहती है.

जब भी रहते मेरे सँग मेरे संगी साथी दिन भर,
यादों के सँग आँँखें भी अब डब-डब बहती रहती है

कभी नहीं था ऐतराज मुझको जाने अनजानों से,
केवट आँँखें दुनिया के अब रँग-ढँग पढ़ती रहती है

मोह माया महत्‍वाकांक्षाएँ  नहीं छूटतीं जीवनभर,
रोज बहाने नाम धाम अब पल-पल धरती रहती है 

बचपन और जवानी तो यूँ निकल गए गिरते पड़ते,
गिरूँ-पड़ूँ नहीं शेष उमर अब जब-तब कहती रहती है.   

अब भी बीच सफर में जब तूफानों के तेवर देखूँ, 
आशंकाएँ ‘आकुल’ की अब धक-धक बढ़ती रहती है.

25 नवंबर 2016

अंत हो

छंद- आनंदवर्धक छंद
मापनी
2122 2122 212
पदांत- हो, समांत-अंत

भ्रष्टता के आचरण का, अंत हो.
अभ्युदय की वांछना, अत्यंत हो.

सत्यमेव जयते, जय जयकार हो,
अतिथि देवोभव, प्रथा विजयंत हो.

धर्म की भी हो अब, पुनर्स्‍थापना,
न्याय सर्वोपरि, मरण पर्यन्त हो.


आज पीढ़ी हो रही है, मार्ग-च्युत‍,
सन्मति हवन करें, पीढ़ी पंत हो


लेंं फिर इस धरा पर, जनम युगंधर,
आकुल अब सदैव, यहाँ बसंत हो.

21 नवंबर 2016

मौन रहेंगे


रोला छंद गीतिका (11  X 13 )
 
जीवन है विषकूट, पियेंगे मौन रहेंगे. 
घात और प्रतिघात, सहेंगे मौन रहेंगे.

कलियुग के अवसाद, ग्रहण में इस जगती को, 
और धधकता देख, जलेंगे मौन रहेंगे.

हम जनपथ की राह, बिलखते लोकतंत्र में, 
जन-जन का बलिदान, करेंगे मौन रहेंगे.

लालच मत्‍सर भूत, नाचता जिनके सिरपर 
कौन मसीहा बने, छु्एँगे मौन रहेंगे.

काक-बया का बैर, छछूँदर-साँप विवशता,
दुर्योधन हर बार, पलेंगे मौन रहेंगे.

छद्म, द्यूत, बल, घात, चाल हो शकुनी जैसी,
शर शैया पर भीष्‍म, जियेंगे, मौन रहेंगे.

लोकतंत्र में भ्रष्ट, बिना नहींचलता शासन, 
भ्रष्टाचारी और, बढ़ेंगे मौन रहेंगे.

18 नवंबर 2016

हास नहीं' हो

सुमेरु छंद में गीतिका
मापनी- 1222 1222 12 
पदांत - नहीं' हो
समांत - आस

कभी अपघात का अहसास नहीं' हो
कभी प्रतिघात का उल्‍हास नहीं' हो

नहीं जीवन सफर में हो अकेला,
कभी जजबात का परिहास नहीं' हो

अगर तूफान आए साहिलों पर,
कभी इस घात का उपहास नहीं' हो  

कहीं जीवन जिगीषा की निशा हो,
कभी व्‍यतिपात का उपवास नहीं' हो

चलो ‘आकुल’ बदी का उत्‍स देखें,
कभी शह मात का इतिहास नहीं' हो

15 नवंबर 2016

14 नवंबर 2016

आग जलाते हैं (ग़़ज़ल)

अपने मतलब से इंसाँ क्‍यों नफरत की आग जलाते हैं.
ये कैसा पागलपन है क्‍यों दहशत की आग जलाते हैं.

नफरत की दुनियाँ में क्‍या अब रह गये यही बाकी रस्‍ते,
मानवता पानी पानी क्‍यों वहशत की आग जलाते हैं.

यह जग इंसानों की बस्‍ती सब अपने कौन पराये हैं,
हर वक्‍त यही मसलों से क्‍यों गुरबत की आग जलाते हैं.

कब सूरज धरती चाँद सितारे फुरकत की भाषा बोले,
फिर बाँटें धरती को वेे क्‍यों फुर्कत की आग जलाते हैं.

‘आकुल’ इनसे कह दे कोई अब अमन-मुहब्‍बत को बख्‍शें,
क्‍यों न हम सभी मिलजुल कर, मोहब्‍बत की आग जलाते हैं

12 नवंबर 2016

500 व 1000 के नोटों बंद के ऐलान पर 3 दोहा मुक्‍तक

1
हजारी नोट
आया है तूफान फिर, बदले भारी नोट.
काले धन के फेर में, धुले हजारी नोट.
ई-नोटों से मित्रता, करिए ‘आकुल’ खूब,
ई-नोटों से ना कभी, लगे करारी चोट.
2
छोटे
छोटे नोट बचाइये, रुपये रखो अकूत.
ना चिंता नुकसान की, ना हो भय का भूत.
छोटी छोटी खुशी से, मिलता खूब सुकून
छोटेे होतेे घरों में, सबसे प्‍यारेे पूत.
3
उधार
देता छप्‍पर फाड़ के, देता जब भगवान
सिद्ध किया जब हो गए, छोटे भी धनवान
कहते हैं व्‍यापार का, है उधार प्र‍तिभान.
सेठ बने सौभाग्‍य से, विद्या से विद्वान.

अकूत- बेहिसाब, अपरिमित; प्रतिभान- विश्‍वास.  

11 नवंबर 2016

आगे बढ़ो

छंद- गीतिका छंद
पदांत- आगे बढ़ो
समांत- बे.....अक
मापनी
2122 2122 2122 212

गलतियों को भूल कर तुम, बेहिचक आगे बढ़ो.
हादसों को भूल कर तुम, बेझिझक आगे बढ़ो.

पीछेमुड़ के देख कर तुम डगमगाना मत कभी
फासलों को भूल कर तुम, बेछिटक आगे बढ़ो.

बारिशों के मौसमों में, आँधियों से क्या गिला,
मुश्किलों को भूल कर तुम, बेखटक आगे बढ़ो.

हाथ पर रख हाथ बैठे, तो नहीं अवसर मिलें,
गर्दिशों को भूल कर तुम, बेधड़क आगे बढ़ो.

बात हो जब जिंदगी औ मौत की आकुलसुनो,
हर सबक़ को भूल कर तुम, बेसबक़ आगे बढ़ो

9 नवंबर 2016

हवा बदलनी चाहिए (मुक्‍तक)

1
प्रदूषण/संक्रमण
दूषित धरा, प्रदूषित फ़ज़ा, अब हवा बदलनी चाहिए.
साँस-साँस संक्रमित है, आबो हवा बदलनी चाहिए.
प्रदूषण से बीमार है हर इक शहर, गाँव, गली, मकाँ,
हर-एक घर में खुशनुमा अब, सुबहा निकलनी चाहिए.
 2
उत्‍थान
कर्मनिष्‍ठ का कर्म ही, होता है उत्‍थान।
अकर्मण्‍य के भाग्‍य में, सोता अभ्‍युत्‍थान।
जीव बिना जीवन नहीं, मरण बिना नहीं मोक्ष,
कर्म बिना उत्‍थान बस, मृगमरीचिका जान।
3
पतन
धर्म कर्म बिन जीव का, जीवन पतन समान।
जैसे गुरु बिन ज्ञान का, मोल मिले ना मान।
वंश बेल तो बढ़ाते, पूत कपूत सपूत, 
निकले पूत कपूत तो, पतन सुनिश्चित जान। 

4 नवंबर 2016

सान्‍नि‍ध्‍य सेतु: 21 प्रतिभाएँँ सम्‍मानित होंगी एवं 3 पुस्‍तकों के ल...

सान्‍नि‍ध्‍य सेतु: 21 प्रतिभाएँँ सम्‍मानित होंगी एवं 3 पुस्‍तकों के ल...: कोटा। तैलंगकुलम् के षष्‍टम प्रतिभा सम्‍मान समारोह एवं लाइफ टाइम एचीवमेंट समारोह 6 नवम्‍बर को सूचना केंद्र जयपुर में सायं 4 बजे से आयोजित कि...

जिंदगी के सिलसिले

जिंदगी के अजीब सिलसिले हैं.
प्रेमियों के जब भी दिल मिले हैं.

आग लग गई है जल उठा चमन,
फिर भी चले दिल के सिलसिले हैं.

चाँद को चकोर की चाहतों के
अभी तक तो मिले नहीं सिले हैं.

मार कर मन जिया अगर जहाँ में
उसको खुद से सैंकड़ों गिले हैं.

खुद बनाता है जो अपना जहाँ
आकुलमिलेे उसे ही' काफिले हैं.

2 नवंबर 2016

अनमोल खुशी (लघुकथा)

मैं 2015 में सेवानिवृत्त हो गया था. बेटा रूस से मेडिकल की डिग्री ले कर 2012 में भारत लौट आया था. विदेश से मेडिकल की उच्च शिक्षा प्राप्त करके भारत आने वाले डॉक्टर्स को भारतीय चिकित्साि परिषद् (एम.सी.आई.) की परीक्षा उत्तीर्ण करना तत्पश्‍चात् एक वर्ष की इंटर्नशिप करना जरूरी होता है. आते ही उसने भारतीय चिकित्सा परिषद् (एम.सी.आई.) की परीक्षा पास कर ली और एक साल की इंटर्नशिप भी कर ली. उसका दिल्ली मेडिकल काउसिंल (डी.एम.सी.) में पंजीकरण हो गया. वह पंजीकृत चिकित्सक बन गया था. वह दिल्ली में ही रह कर निजी अस्प्तालों में छोटे-छोटे अनुबंध पर चिकित्सा सेवा दे रहा था और अपना खर्च निकाल लेता था. अंतत: जून 2016 में उसका भारतीय सशस्त्र सेना में मेडिकल ऑफिसर के पद पर चयन हो गया और वह दिल्लीे में ही पदस्थापित हो गया था. देश की सर्वोच्च सेवा में उसकी नियुक्त् से परिवार गौरवान्वित अनुभव कर रहा था. यह पहली खुशी थी. मालूम हुआ कि उसे सेना में ‘कैप्टन’ की रैंक मिली है. एक सादा समारोह में सितारा अलंकरण समारोह में उसे कैप, स्टार और बैज लगाये गये. उसे सितारा और कैप में सुसज्जित देखना अलौकिक था. यह दूसरी खुशी थी. सेना में सभी औपचारिकता पूर्ण करने के बाद लगभग 3 से 4 महीने के बाद ही पहला वेतन मिलता है, इसलिए बेटे को हर माह खर्च के लिए हम ही मदद करते थे. दिवाली के दूसरे दिन 1 नवम्बर को बेटे का फोन आया कि पापा मेरी सेलेरी आ गई है. हमारी खुशी दो गुनी हो गई. यह तीसरी खुशी थी. तभी उसने आगे कहा- ‘पापा आपके बैंक खाते में 2 लाख रुपये डाल दिये हैं.’ अब वह खुशी चार गुनी हो गई थी. इन अनमोल खुशियों को शब्दों में नहीं बाँधा जा सकता था. हमारी तपस्या सिद्ध हो गई थी.