'आकुल' के सद्य प्रकाशित गीत संग्रह 'नवभारत का स्वप्न सजाएँँ' के बाद प्रकाशित नवगीत संग्रह 'जब से मन की नाव चली' भी प्रकाशित हो चुका है। उक्त दोनों पुस्तकों का विमोचन शीघ्र ही होना है। पुस्तकों का प्रकाशन जयपुर के अनुष्टुप प्रकाशन से हुआ है। विमाेचन माह सितम्बर में हिन्दी दिवस के अवसर पर हिन्दी सप्ताह के दौरान किया जाना प्रस्तावित है।
वरिष्ठ कवि गीतकार डा. गोपाल कृष्ण भट्ट 'आकुल' साहित्य की बहुविध विधाओं के चितेरे रहे हैं। प्रकाश्य कृति 'जब से मन की नाव चली' नवगीत का संकलन हैै, जो कवि के मानवतावादी सोच तथा उसके मंगल के लिए गतिमान संकल्पें का संकुल है। उनके गीतों में मानवीय संवेदनाओं की छटपटाहट है। वे जिस परिवेश से गुजरते हैं, वहाँँ उन्हें अनेकानेक विसंगतियों से साक्षात् होता है। ये विसंगतियाँँ उनके शब्द-चित्रों के माध्यम से साहित्य के कैनवास पर एक अनूठे अंदाज़ में उभरने लगती हैं। उनके गीतों में चीजों की यथार्थ अभिव्यक्ति तो है ही, साथ ही एक ठोस प्रहार भी है।
दलितों, शोषितों, पीडि़तों की पैरोकारी करते उनके गीतों में सर्वसाध्य साधन के शोध की ललक भी है। वे अपने आपको निसर्ग के काफ़ी क़रीब पाते हैं। उनके शब्दों में बहुतेरे रंग हैं, जिनका उपयोग वे एक कुशल सर्जक की तरह पूरे सामंजस्य, सामर्थ्य, एवं मनोयोग के साथ अपने गीतों में करते हैं। उनका बिम्बविधान अनुपम है। रूपक व प्रतिमानों प्रयोग के वे पारखी हैं। 'चन्दनवन में विषधर भटकें...' आदि में दो विषम प्रवृत्तियों के साथ आनुष्ठानिक अनवरतता को दर्शा कर कवि सम्भावनाअों को तलाशने का अटूट प्रयास करता है।
राजनीति के दल-प्रपंच से वंचित और व्यथित औसत जन की पीड़ा का वह सहभागी रहता है। वह 'भ्रष्टाचारी दलदल में, इन्दीवर खिल रहे देश में/आम आदमी मेहनतकश है, खास जी रहे ऐश में' कह कर एक तीीखा कटाक्ष करता है। उनके गीतों में राष्ट्रवाद का स्वर अनुगुंजित होता है। कवि परम्परावादी लोक मान्यताओं व लोक संस्कृति का प क्षधर है, तभी तो वह मनुष्य को सावचेत करता है 'जो समक्ष है उसे बचा लो/सहज मिले बस उसे बसालो/ अवचेतन मन से क्यों विचलित/ जीवन है अनमोल बचालो।' (इसी संग्रह से)
जन भावनाओं के खिवैया नवगीत- भानु 'भारवि'
दलितों, शोषितों, पीडि़तों की पैरोकारी करते उनके गीतों में सर्वसाध्य साधन के शोध की ललक भी है। वे अपने आपको निसर्ग के काफ़ी क़रीब पाते हैं। उनके शब्दों में बहुतेरे रंग हैं, जिनका उपयोग वे एक कुशल सर्जक की तरह पूरे सामंजस्य, सामर्थ्य, एवं मनोयोग के साथ अपने गीतों में करते हैं। उनका बिम्बविधान अनुपम है। रूपक व प्रतिमानों प्रयोग के वे पारखी हैं। 'चन्दनवन में विषधर भटकें...' आदि में दो विषम प्रवृत्तियों के साथ आनुष्ठानिक अनवरतता को दर्शा कर कवि सम्भावनाअों को तलाशने का अटूट प्रयास करता है।
राजनीति के दल-प्रपंच से वंचित और व्यथित औसत जन की पीड़ा का वह सहभागी रहता है। वह 'भ्रष्टाचारी दलदल में, इन्दीवर खिल रहे देश में/आम आदमी मेहनतकश है, खास जी रहे ऐश में' कह कर एक तीीखा कटाक्ष करता है। उनके गीतों में राष्ट्रवाद का स्वर अनुगुंजित होता है। कवि परम्परावादी लोक मान्यताओं व लोक संस्कृति का प क्षधर है, तभी तो वह मनुष्य को सावचेत करता है 'जो समक्ष है उसे बचा लो/सहज मिले बस उसे बसालो/ अवचेतन मन से क्यों विचलित/ जीवन है अनमोल बचालो।' (इसी संग्रह से)
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