अपने मतलब से इंसाँ क्यों नफरत की आग जलाते हैं.
ये कैसा पागलपन है क्यों दहशत की आग जलाते हैं.
नफरत की दुनियाँ में क्या अब रह गये यही बाकी रस्ते,
मानवता पानी पानी क्यों वहशत की आग जलाते हैं.
यह जग इंसानों की बस्ती सब अपने कौन पराये हैं,
हर वक्त यही मसलों से क्यों गुरबत की आग जलाते हैं.
कब सूरज धरती चाँद सितारे फुरकत की भाषा बोले,
फिर बाँटें धरती को वेे क्यों फुर्कत की आग जलाते हैं.
क्यों न हम सभी मिलजुल कर, मोहब्बत की आग जलाते हैं
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