किसको क्या शाबाशी
नहीं कम हुए बढ़ते
दुष्कर्मों को पढ़ते
बेटे को माँ बापों पर
अहसाँ को गढ़ते
नेता तल्ख सवालों पर
बस हँसते-बचते
देख रहे गरीब-अमीर
की खाई बढ़ते
कितनी मन्नत माँगे
घूमें काबा काशी
फिर जाग्रति का
बिगुल बजेगा जाने कौन
फिर उन्नति का
छाएगी कब घटा
घनेरी बरसेगा सुख,
फिर संस्कृति की
हवा बहेगी जाने कौन
स्वप्न नहीं यह
अभिलषा के कुसुमाकाशी।
छोड़ेंगे यदि
संस्कार होंगे बेहतर कब
बहिष्कार होगें कमतर कब
रिश्तों की गरमाहट को
लग गई नज़र कब
भूलेंगे यदि
परिष्कार होंगे बरतर कब
कैसे बदले हवा
फूल कब हों पालाशी
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