दिन ब दिन इक डर
सब
में समाया है।
संस्कारों
की बात करें
अपने ही जब
अपनों पर
घात करें
बढ़ती महँगाई,
हर तरफ
प्रदूषण
कौनसा व्रत, मौन,
कैसा
पर्यूषण
कैसी व्यवस्था
सुविधाओं
की बात
नियम कायदे कानून
किताबी
बात
अंगद पाँव
अनिष्ट
ने जमाया है।
शहरों में मशीनी
जीवन
हो गये
गाँवों में ज़मीनी
जीवन
खो गये
पाणिग्रहण,
यज्ञोपवीत
गुड्डे व गुड़ियाओं
के
जैसे खेल
सम्वेदनायें खोईं
बढ़े
स्वार्थ
भ्रम में ही रहेगा
हर एक पार्थ
इस चलन से किसने
क्या
कमाया है
सब में समाया है।
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