18 मई 2013

इंसान को ही खोजना होगा


कल का काम आज ही, हो कैसे सफल।
इंसान को ही खोजना, होगा इसका हल।।

धूल भरी आँधियाँ, प्रकृति का गुस्‍सा है।
सूरज का भी क़हर, पतझड़ पर बरसा है।
दिन पे दिन अब खो रही है सब्र धरती,
युग बदले हुए भी, हुआ एक अरसा है।
न जाने क्‍यों होता नहीं, समय पे अमल।
इंसान को ही खोजना, होगा इसका हल।।

दिमाग पे उसके अजीब, ज़ुनून छाया है।
आखिरकर  इंसान को, ऐसा क्‍या पाया है।
रग रग में नफ़रत नहीं, प्रदूषण है भरा,
जान कर भी  अनजान वो, क्‍यों भरमाया है।
इंसान पी रहा है, यह कैसा हलाहल।
इंसान को ही खोजना, होगा इसका हल।।

प्रकृति से इंसान, हमेशा हारा है।
प्रकृति ने ही उसे, फि‍र सँवारा है।
कौनसी ताक़त, उसे है रोकती,
प्रकृति को उसने, सदा नकारा है।
इंसान क्‍यूँ  इतना कैसे, गया है बदल।
इंसान को ही खोजना, होगा इसका हल।।

सर्वोपरि समस्‍या है, धरा प्रदूषण।
भ्रष्‍टाचार, महँगाई, वायु प्रदूषण।
गंदगी से अटे पड़े हैं,रास्‍ते सारे,
आवश्‍यकता है प्रण लें, करें पर्यूषण।
इंसान यदि चाहे हालात, जाएँ बदल।
इंसान को ही खोजना, होगा इसका हल।।

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