विशेष पोस्ट
कई बार सुनने पढ़ने देखने को भी मिला कि लोग ‘दोहा-ग़ज़ल’ पर व्यर्थ में बहस करने से नहीं चूकते. बे-बह्र ग़ज़लों को बहुत तरजीह (प्राथमिकता) नहीं दी जाती और न ही ज्यादा तवज्जह (ध्यान) दी जाती है, यानि दूसरे शब्दों में कहें तो बे-बह्र ग़ज़ल को बहुत अच्छी तरह से नहीं देखा जाता. जब रचनाकार उसे ग़ज़ल कहता है तो उसे नज़्म (कविता) भी नहीं कहा जा सकता. हालाँकि स्वच्छंद भी रचना लिखी जाती हैं, जिसे छंद मुक्त कह कर संतोष कर लिया जाता है क्योंकि हमें रचना की लय व मात्रा व्यवस्था के अनुसार छंदों के बारे में ज्ञान न होने के कारण उसे छंदमुक्त कह देते हैं. विद्वानों का तो यह भी कहना है कि कवितायें भी छंदबद्ध होती हैं, क्योंकि उन्हें तुकांत व समान मात्रा से लय में ढाला जाता है.
वैसे सच्चाई तो यह है कि जहाँ ग़ज़ल का बहुत बड़ा इतिहास और विधान नहीं है तो बे-बह्र ग़ज़ल के बारे में ज्यादा बात करने का कोई औचित्य भी नहीं है. वैसे उर्दू काव्य में लगभग 32 जानी-पहचानी अथवा दूसरे शब्दों में 32 प्रचलित बह्रों (मापनियों) का उल्लेख मिलता है, जिस पर ज्यादातर रचनायें की जाती रही हैं और की जा रही हैं, वे सभी किसी न किसी हिंदी छंद साहित्य के छंदों पर आधारित हैं. इसका उल्लेख मैंने अपने सद्य प्रकाशित छंदाधारित गीतिका द्विशतक ‘’हौसलों ने दिए पंख’’ में किया है कि ग़ज़ल की कौनसी बह्र हमारे हिंदी छंद साहित्य में कौनसा छंद है. उदाहरण स्वरूप कुछ बह्र देखिए-
(1)
अ. बह्र का नाम- बहरे कामिल मुसम्मन सालिम
आ. बह्र का विस्तार- मुतफ़ाएलुन मुतफ़ाएलुन मुतफ़ाएलुन मुतफ़ाएलुन
इ. बह्र (मापनी)- 11212 11212 11212 11212
ई. हिंदी छंद साहित्य का छंद- मुनिशेखर
(2)
(आ) बह्र का विस्तार- मफ़ऊलु फ़ाएलातुन मफ़ऊलु फ़ाएलातुन
(इ) बह्र- 221 2122 221 2122
(ई) हिंदी छंद साहित्य का छंद- दिग्पाल
(3)
(अ) बह्र का नाम- बहरे मुतकारिब मुसमन सालिम
(आ) बह्र का विस्तार- फ़ऊलन फ़ऊलन फ़ऊलन फ़ऊलन
(इ) बह्र- 122 122 122 122
(ई) हिंदी छंद साहित्य का छंद- भुजंग प्रयात
(4)
(अ) बह्र का नाम- बहरे रमल मुसमन महज़ूफ़
(आ) बह्र का विस्तार- फ़ाएलातुन फ़ाएलातुन फ़ाएलातुन फ़ाएलुन
(इ) बह्र- 2122 2122 2122 212
(ई) हिंदी छंद साहित्य का छंद- गीतिका (मात्रिक/वाचिक)
ध्यानाकर्षण- मुनिशेखर छंद यदि वार्णिक हो तो वह 20 वर्णीय ‘गीतिका वृत्त’ कहलाता है. इसलिए उपर्युक्त गीतिका छंद (मात्रिक/वाचिक) है.
ग़ज़ल की अन्य बह्रें महालक्ष्मी, चंद्र, बाला, अरुण, मधुमालती, नराचिका, मधुवल्लरी, हरिगीतिका, मनोरम आदि छंदों पर आधारित हैं.
उपर्युक्त विश्लेषण का अर्थ यह नहीं कि मैं ग़ज़ल का विरोधी हूँ, बल्कि यह स्पष्ट करना चाहता हूँ, कि उपर्युक्त बह्रों पर रची ग़ज़लों को ही उर्दू काव्य में प्राथमिकता दी जाती है. ज्यादातर ग़ज़लें आपको उपर्युक्त चौथी बह्र या गीतिका छंद पर आधारित ही मिलेंगी. अन्य पर भी कई ग़ज़ले लिखी गई हैं, जिनको विद्वानों ने विधान से नहीं अपितु फिल्मी गीतों के उदाहरण दे कर समझाया है. (आप चाहें तो गूगल पर सर्च करके देख लें.) उर्दू का विधान बहुत क्लिष्ट है, जबकि हिंदी छंद साहित्य का विधान बहुत ही सुलझा हुआ है. ऊपर उल्लिखित ग़ज़ल की बह्रों के नाम, उनका विस्तार देख कर अनुमान लगा सकते हैं. जहाँ तक गज़ल में रदीफ़-काफ़िया का प्रश्न है वह हिंदी छंद साहित्य के समांत-पदांत से थोड़ा भिन्न है, यही विशेषता उसे गीतिका से अलग करती है.
‘गीति काव्य’ को संक्षिप्त कर गीतिका (व्य) नाम दिया हमारे प्रातस्स्मरणीय पद्मभूषण ‘नीरज’ जी ने. इसका मुख्य उद्देश्य रचनाकारों द्वारा हिंदी ग़ज़ल के भ्रामक जाल से बचने के लिए क्योंकि हिंदी ग़ज़ल के नाम से रचनाकार न तो ग़ज़ल समाज का भला कर रहा है और न हीं हिंदी छंद साहित्य का. ग़ज़ल का यदि विधान है तो उसे समझने के लिए आपको उर्दू (अरबी/फारसी) का अच्छा ज्ञान भी आवश्यक है. अनेक ग़ज़लनवीस ग़ज़ल को उर्दू (फ़ारसी) लिपि में लिख कर मजलिसों (बैठकों) में पढ़ते हैं. यही एक सही तरीका है ताकि उसमें नुक्ता आदि से सही शब्द लिखा जा सके, क्योंकि कई उर्दू शब्दों का प्रयोग तो लोग कर लेते हैं किंतु नुक्ता लगाने की भूल कभी कभी ठेठ उर्दू मजलिसों में उपहास का रूप या हास्यास्पद बन जाती है. वहीं, हिंदी छंद साहित्य में थोड़ा गहराई से सोचें तो हम पायेंगे कि हमारा हिंदी छंद साहित्य संस्कृत के छंद साहित्य से परिष्कृत हो कर तद्भव व तत्सम की तरह सरलता से बोधगम्य है. हर छंद का अपना विधान है. विधान को बहुत ही विस्तार से बताया हुआ है.
बे-बह्र यानि बिना मापनी या दूसरे शब्दों में हमारे छंद साहित्य में इसे मापनी मुक्त श्रेणी कह सकते हैं. हमारा छंद साहित्य इतना विशाल और इतना उदार है कि मापनी-मुक्त छंदों की भी एक लंबी फेहरिस्त (सूची) है, उसका विधान है. एक एक मात्रा के विचलन से अनेकों छंदों का उल्लेख हमें हिंदी छंद साहित्य में देखने को मिलता है. जैसे चंद्र छंद वार्णिक बन जाए तो बाला छंद बन जाता है. सोमराजी छंद वाचिक बन जाये तो वह नयन छंद बन जाता है, पीयूष वर्षी छंद, आनंदवर्धक छंद बन जाता है. कुंडल छंद के अंत में 2 गुरु के सथान पर लघु गुरु हो जाए तो वह उड़ियाना छंद बन जाता है. तमाल छंद में अंत गुरु लघु के स्थान पर लघु गुरु हो जाये तो वह नरहरि छंद बन जाता है, दोहा का केवल सम चरण अभीर/अहीर छंद बन जाता है, केवल विषम छंद हो तो जनक छंद की रचा जाता है आदि. उसी प्रकार संगीत में भी एक एक स्वर के विचलन से अनेक रागों के निर्माण हुए है. हमारा छंद साहित्य, हर साहित्यिक समस्या का समाधान देता है.इसका कारण है कि हम छंद साहित्य को समझने के लिए हिंदी भाषा, व्याकरण का अच्छा ज्ञान रखते हैं.
हमारा संस्कृत छंद साहित्य प्राचीन काल से या यूँ कहिए वेद काल से चला आ रहा है. विश्व का सबसे बड़ा काव्य महाभारत, वाल्मीकि रामायण, चारों वेद, पुराण, उपनिषद्, महाभारत का सार ग्रंथ गीता (श्रीमद्भागवत पुराण) आदि सम्पूर्णत: छंदाधारित हैं.हमारे संस्कृत काव्य के प्रचलित श्लोकों, स्तोत्रों, मंत्रों से हम इसके छांदसिक स्वरूप का पान कर सकते हैं, क्योंकि इनके छांदसिक स्वरूप को ही विद्वानों ने हिंदी में अनुवाद कर हिंदी छंद साहित्य का विकास किया.रामचरित मानस इसका साक्षात् उदाहरण है. हिंदी छंद साहित्य को बहुत समीप से समझना हो तो प्रचलित गीतों, दोहों, चौपाइयों आदि के स्वरूपों को आत्मसात कर सकते हैं. संस्कृत छंद साहित्य में कुछ स्तोत्र, श्लोकों को देखें-
इंद्रवज्रा छंद
कर्पूरगौरं करुणावतारं संसारसारं भुजगेंद्र हारं ।।
उपेंद्रवज्रा छंद
सदावसंतं हृदयारविंदे भवं भवानी सहितं नमामि ।।
चौपाई
अधरं मधुरं वदनं मधुरं, नयनं मधुरं हसितं मधुरं।
हृदयं मधुरं गमनं मधुरं, मधुराधिपतेरखिलं मधुरं।।
अनुष्टुभ छंद
श्रीकृष्ण शरणं मम (अष्टाक्षर मंत्र)
अरुण छंद
अच्युतं केशवं कृष्ण दामोदरं, रामनारायणं जानकी वल्लभ।।
शार्दूल विक्रीडित छंद
या कुंदेंदु तुषार हार धवला या शुभ्रवस्त्राव्रता......
वंशस्थ छंद
सशंखचक्रं सकिरीटकुंडलं, सपीतवस्त्रं सरसीरुहेक्षणं ।
सहारवक्षस्थल कौस्तुभश्रियं नमामि विष्णु शिरसा चतुर्भुजं ।।
हिंदी छंद साहित्य मे प्रख्यात गीतों, चौपाइयों, दोहों से हिंदी छंदों के बारे में जानकारी से रचना करने में बहुत मदद मिलती है. वैसे तो तरंगिनी छंद समारोह में अक्सर प्रदत्त छंद पर प्रचलित रचनाओं, छंदों, गीतों, श्लोकों का उल्लेख होता रहता है, फिर भी मैं कुछ प्रचलित रचनाओं का उल्लेख यहाँ करना उचित मान रहा हूँ-
सार छंद
जन गण मन अधिनायक जय है, भारत भाग्य विधाता (राष्ट्रगान)
सुखदा छंद
ओम जय जगदीश हरे... (आरती)
द्विवाचिक यशोदा छंद
तुम्हीं हो माता तुम्हीं पिता हो, तुम्हीं हो बंधु सखा तुम्हीं हो.
कुंडल छंद
जय गणेश जय गणेश जय गणेश देवा....
उड़ियाना छंद
ठुमक चलत राम चंद्र बाजत पैंझनियाँ
मुक्तामणि छंद
नंद के आनंद भये, जय कन्हैया लाल की
राधेश्यामी छंद/द्विगुणित पदपादाकुलक छंद
उठ जाग मुसाफिर भोर भई
गंगोदक छंद
मेरे रश्के कमर तूने पहली नज़र...
दिग्पाल छंद
सारे जहाँ से अच्छा हिंदोसताँ हमारा....
चौपई छंद
हिंदी- हिंदू- हिंदुस्तान (नारा)
सुमेरु छंद
मेरे हाथों में नौ नौ चूड़ियाँ हैं
इंद्रवज्रा छंद-
हे कृष्ण गोविंद हरे मुरारी, हे नाथ नारायण वासुदेवा
बॉलिवुड में संगीत के शिखर पर स्थापित रहे संगीतकारों ने सदा शास्त्रीय संगीत और अभ्यास को महत्व दिया और अमर गीतों की रचना की. 90 के दशक से पूर्व कुछ अपवाद छोड़ दें तो पहले गीतों की रचना होती थी, फिर उस पर शास्त्रीय संगीत से या सुगम संगीत में ढाल कर गीत रचे जाते थे, किंतु कालांतर में पहले संगीत/लय रची जाने लगीं और उसे गुनगुना कर गीत की रचना गीतकार कहानी के अनुरूप गीत लिखने लगे. यहीं से आरंभ हुआ शास्त्रीय संगीत और छंद आग्रह का पतन और उसी चलन पर बॉलिवुड चल रहा है परिणामस्वरूप जो गीत रचे जा रहे हैं वे लंबे समय तक याद नहीं रखे जा सकते.
छंद दीपिका में इस बार दोहा छंद दिया गया था. प्रख्यात दोहा छंद के बारे में बहुत लिखा जा चुका है. पिछले तरंगिनी छंद समारोह में कुंडलिया छंद के अंतर्गत ‘हमें कुछ कहना है’’ में, मैंने दोहा के बारे बहुत विस्तार से भी लिखा है. दोहा ग़ज़ल के भ्रामक प्रचार के संदर्भ में ऊपर लिखा ही है. इसलिए दोहा छंद के बारे में कुछ और बात एवं दोहा गीतिका के संदर्भ में थोड़ी बात.
दोहा छंद हिंदी छंद साहित्य का सर्वाधिक रचा जाने वाला प्रख्यात एवं प्रचलित छंद है. 13, 11 का 24 मात्रा वाला यह छंद इतना प्रख्यात है कि इससे बने छंदों को मिला कर छंद परिवार का निर्माण भी हुआ है. यानि इन छंदों को दोहा परिवार के छंदों में माना जाता है जैसे- रोला, सोरठा, उल्लाला, जनक, अभीर, कुंडलिया छंद आदि. दोहा उलटा कर दें और लय व विधान को ध्यान में रखें तो दो छंद बनते हैं, रोला और सोरठा. रोला के बारे में पिछले समारोह में दोहा के साथ रोला के बारे में भी विस्तार से बताया हुआ है. इसी प्रकार केवल दोहा के विषम चरण से जनक छंद, सम चरण से अभीर/अहीर छंद. दुमदार दोहों का भी चलन है. दोहा गीत, दोहा मुक्तक, दोहा गीतिका आदि दोहा परिवार के छंद हैं. मात्राओं के कलन या गुरु लघु के विभिन्न क्रमचय संचय से 23 प्रकार के दोहों के बारे में भी उल्लेख हैं ये हैं मंडूक, करभ, मर्कट, नर, सर्प आदि.विद्वानों ने दोहा को इतना स्वतंत्र कर दिया कि उसे लघु ओर गुरु मात्राओं के उपयोग/प्रयोग के आधार पर नाम तक दे दिये जैसे यदि किसी दोहे में गुरु वर्ण 18 और लघु वर्ण 12 हैं तो वह मंडूक दोहा कहलाता है, इसके बारे में मैंनें विस्तार से मुक्तक-लोक प्रस्तुति दोहा मुक्तक संकलन ''तन दोहा मन मुक्तिका'' में उल्लेख किया है. आदि.
दोहा गीतिका में प्राय: सभी अपदांत रचनायें रचते हैं. थोड़ा प्रयास करें तो हम पदांत समांत के साथ दोहा गीतिका रच सकते हैं. मेरी एक गीतिका देखें-
दोहा गीतिका
पदांत- गीतिका मित्र
समांत- अढ़ी
समांत- अढ़ी
मात्र मापनी में नहीं, गढ़ी गीतिका मित्र.
सहज और स्वच्छंद थी, पढ़ी गीतिका मित्र.
सहज और स्वच्छंद थी, पढ़ी गीतिका मित्र.
कथ्य शिल्प में जान थी, पैठी मन में बात,
नहीं एक विद्वान पर, चढ़ी गीतिका मित्र.
नहीं एक विद्वान पर, चढ़ी गीतिका मित्र.
हिंदी के थे शब्द सँग, प्रचलित उर्दू शब्द,
ले खटास मन में बनी, कढ़ी गीतिका मित्र.
ले खटास मन में बनी, कढ़ी गीतिका मित्र.
अलग-थलग होने लगी, रचनाएँ स्वच्छंद,
छंद किताबों में रही, मढ़ी गीतिका मित्र.
छंद किताबों में रही, मढ़ी गीतिका मित्र.
अब स्वच्छंद गगन उड़ी लेकर युग्म प्रवीण,
'मुक्तक-लोक' विधान से, बढ़ी गीतिका मित्र.
'मुक्तक-लोक' विधान से, बढ़ी गीतिका मित्र.
विश्वास है कि इस आलेख से आप कुछ तो ग्रहण करेंगे. किमधिकम्.
-आकुल
फिल्मी गीतों के बहर और संस्कृत छन्द पर कार्य करने की जरूरत । गीतों में निहित संस्कृत के लाखों छन्द में से फिल्म के गीतों में निहित छन्द पहचानना समय साध्य कार्य है । इस पर एक स्वतंत्र पुस्तक का नितान्त अभाव है ।
जवाब देंहटाएंब्लॉग पर उपस्थिति के लिए धन्यवाद। मैं प्राय: अपनी नई पुस्तक में अवश्य इस संदर्भ में जो भी नई जानकारी ग्रहण करता हूँँ और ढूँढ़ता हूँ, अपने आत्मकथ्य / प्राक्कथन में उल्लेख करता हूँ। फिल्मी गीतों में छंद को आधार तो लिया जाता है, किन्तु पूरा गीत छंद पर खरा नहीं उतरता। वैसे भी फिल्मी गीतों में माधुर्य को प्राथमिकता दी जाती है और व्यावसायिक दृष्टिकोण के कारण संगीतकार को समझौता करना होता है। छंदों की तरह राग-रागनियों की भी कमोबेश यही स्थिति है, आज शास्त्रीय संगीत में कम ही गीत बनते हैं। इसका कारण है कि आज गीत पहले नहीं बनता, संगीत पहले बनता है और गीतकार को धुन पर चित्राकन के अनुरूप गीतों की रचना करनी होती है, इसलिए छंद और राग-रागनियाँँ गौण होती जा रही है, इसीलिए गीतों में आज माधुर्य भी खत्म हो रहा हैा संस्कृत में क्लिष्टता के चलतेे कोई ध्यान नहीं देता, इसलिए संस्कृत श्लोंकों पदों में छंद को ढूँढ़ना श्रमसाध्य हैा हाल ही में प्रकाशित मेरेे गीत संग्रह 'गीत संजीवनी' में सभी प्रकाशित गीत छंदाधारित हैं, जिनका संक्षिप्त परिचय मैंने गीत के पूर्व दिया हैा साथ ही आलेख और आत्मकथ्य में मैंने संस्कृृतके नए छंदों व रागरागनियों पर आधारित गीतों/श्लोकों/फिल्मी गीतों में छंदों पर भी प्रकाश डाला है। जैसे लताजी का गाया पुष्टिमार्गीय हवेली संगीत का प्रख्यात यमुनाष्टक 'नमामि यमुनामहं... छंद 'पृथ्वी' पर आधारित है और वह यमन राग में गाया गया है। कालिदास रचित मेघदूत सम्पूर्ण मंदाक्रांता छंद पर आधारित है,आदि। शीघ्र ही आलेख और मेरा आत्मकथ्य ब्लौग पर प्रकाशित होगा।
जवाब देंहटाएं