14 मार्च 2012

शैफ़ाली

नाम है शैफाली
जाने हयात का
आँगन में है दरख्‍त
पारि‍जात का।

फ़स्ले बहाराँ में
वो रूठे रहे
और मौसि‍म में
सदा हँसते रहे
दरख्त भी रूठा रहा
इस मौसि‍म में
वर्ना हर मौसि‍म में
फूल झरते रहे
अफसोस रहा मुझे
बस इस बात का।

रातों में वो चहकती
कचनार सी
बातों में बहकती
आबशार सी
सुबुह थकी थकी
जाने हयात वो
ज्यूँ नि‍सार हो
शम्ए मज़ार सी
अफसोस रहा मुझे
हर इक रात का।

जब से नाम बदला है
आई बहार
नामकरण कर दि‍या है
हरसिंगार
सिंगार सी सजी सँवरी
रहती है अब
फूलों से लदी रहती है
ज्‍यूँ बागो बहार
अफसोस कहाँ मुझे
अब इस बात का।

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