ग़ज़ल
बह्र का नाम - बह्रे हजज मुसम्मन सालिम
बह्र - मुफाईलुन मुफाईलुन मुफाईलुन मुफाईलुन
रदीफ़ – है
का़ाफ़िया – आती
सदा तूफ़ान
आँधी के तबाही संग आती है।
मुहब्बत बिन इबादत के, निबाही कम ही’ जाती है।
रहें चैनो
अमन से तो नहीं हों देश में झगड़े,
लड़े जब भी सदा देखा मिला ही रँग जमाती है।
बह्र का नाम - बह्रे हजज मुसम्मन सालिम
बह्र - मुफाईलुन मुफाईलुन मुफाईलुन मुफाईलुन
रदीफ़ – है
का़ाफ़िया – आती
मुहब्बत बिन इबादत के, निबाही कम ही’ जाती है।
लड़े जब भी सदा देखा मिला ही रँग जमाती है।
कभी पिसती कभी बॅटती है नारी की भी क्या किस्मत,
कहीं पीसो, कहीं बाँटो हिना तो रंग लाती है।
कहीं घूमर,
कहीं भँगड़ा, कहीं गरबा कहीं गिद्दा,
अगर हो ताल मस्ती की तो’ बस ढफ चंग छाती है।
अगर हो ताल मस्ती की तो’ बस ढफ चंग छाती है।
जहाँ ऐसा
बनाएँ अब जहाँ ना हो जबरदस्ती,
कहीं हो ना अदावत और ना हुडदंग घाती हो।
कहीं हो ना अदावत और ना हुडदंग घाती हो।
रँगे हैं
खून से इतिहास के पन्ने कई ‘आकुल’,
सियासत
सरहदों पे तो सदा ही जंग लाती है।
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